(लेखक- हृदयनारायण दीक्षित, उत्तर प्रदेश, विधानसभा अध्यक्ष)
असत्य की उम्र नहीं होती, लेकिन प्रायोजित झूठ की बात दूसरी है। यह प्रायोजकों के बुद्धि कौशल से चर्चा में बना रहता है। राष्ट्रीय पमानजनक सत्य शूल की तरह हृदय में चुभते हैं। आर्य हमारे पूर्वज हैं। वे वैदिक संस्कृति, सभ्यता और दर्शन के जन्मदाता हैं। दुनिया के प्राचीनतम ज्ञानकोश ऋग्वेद के द्रष्टा रचयिता हैं बावजूद इसके उन्हें विदेशी हमलावर बताया-पढ़ाया जाता है। डॉ. आंबेडकर ने ‘हू वेयर शूद्राज’ लिखकर आर्यो के विदेशी होने का सिद्धांत गलत ठहराया। मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा और संस्कृति दर्शन के विद्वान डॉ. भगवान सिंह आदि ने भी इस झूठ का पर्दाफाश किया था, लेकिन राष्ट्रीय स्वाभिमान को अपमानित करने की योजना से आर्य आक्रमण का महाझूठ अब भी जारी है।
राखीगढ़ी-हरियाणा और ग्राम सिनौली जिला बागपत उत्तर प्रदेश से शुभ सूचनाएं आई हैं। सिनौली में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने खोदाई में ईसा पूर्व 2000-1800 के समय का ताम्र मोतियों से सजा रथ, कटार और तलवार के साथ आभूषण भी मिले हैं। वहीं राखीगढ़ी में 5000 वर्ष पुराने नरकंकाल के डीएनए परीक्षण ने चौंकाया है। दोनो ने भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और निरंतरता को सही ठहराया है।
भारत प्राचीन सभ्यता है। दोनों अध्ययनों ने प्राचीन ऋग्वैदिक सभ्यता को देसी पाया है। डेकन कॉलेज पुणो के कुलपति बसंत शिंदे व बीरबल साहनी प्रयोगशाला लखनऊ के प्रमुख नीरज के नेतृत्व में हुए डीएनए विश्लेषण के अनुसार शव संस्कार की पद्धति ऋग्वैदिक काल से मिलती जुलती है। कंकाल परीक्षण में उच्चतर स्वास्थ्य पाया गया है। ज्ञान तंत्र भी वैदिक काल का अनुसरण करने वाला है। बर्तन और ईंटों का उपयोग भी वैदिक सभ्यता की निरंतरता बताता है। आर्यो पर हड़प्पा सभ्यता नष्ट करने के आरोप हैं। हड़प्पा को प्राचीन और ऋग्वैदिक सभ्यता को परवर्ती सिद्ध करने की कसरत भी पुरानी है।
भारत रत्न पीवी काणो ने ‘धर्मशास्त्र के इतिहास’ में वैदिक संहिताओं का काल 4000-1000 ईसा पूर्व तक बताया है। ऋग्वेद का कुछ भाग पांच हजार साल से भी पुराना है। अथर्ववेद और तैत्तिरीय संहिता 4 हजार ईसा पूर्व के आसपास हो सकते हैं। भारत के लोग उस समय भी रथारूढ़ थे। रथ का उपयोग ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन है। घोड़े उन्हें खींचते थे। घोड़े विदेशी नहीं भारतीय आर्य संपदा थे। मैक्डनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ (खण्ड 1) में लिखा है, ‘सिंधु और सरस्वती तट के घोड़े, मूल्यवान थे।’
ऋग्वेद में घोड़े के तमाम मंत्र हैं। ऋषि इंद्र को श्वपति कहते हैं और अपने लिए घोड़ा मांगते हैं। एक अन्य मंत्र में वह घोड़े के साथ जौ भी मांगते हैं। एक मंत्र में अच्छा घोड़ा रथ के आगे-आगे चलता है। घोड़ा समृद्धि और गति का प्रतीक है। रथ निजी यात्रा के उपकरण थे और युद्ध के भी। ऋग्वेद में घोड़ा और रथ की सफाई के भी उल्लेख हैं। घोड़ा और रथ भारत के मन की सुंदर अभिलाषा हैं। उपनिषद दर्शन ग्रंथ हैं, लेकिन दर्शन बोध में इंद्रियां घोड़े हैं और मन लगाम। सूर्य भी रथ पर चलते हैं। उसे सात घोड़े खींचते हैं। काल अनुभूति है पदार्थ नहीं। काल भी रथ पर चलते हैं। अथर्ववेद के कालसूक्त में ‘ज्ञानी ही कालरथ पर बैठ सकते हैं।’ जिसके पास रथ वही श्रेष्ठ संपन्न। ऋग्वेद में सिंधु नदी के बहाव की तीव्रता को घोड़ी की गति की उपमा दी गई है। वैदिक पूर्वज घोड़ों को खेती में प्रयोग नहीं करते थे। यूरोप में घोड़े खेती के काम भी आते थे। रथ सुमेरी सभ्यता में भी थे, परंतु उनके पहियों में आरे नहीं थे। भारतीय रथों में आरे थे। वे हल्के थे। बागपत में मिला दो हजार साल पुराना रथ भारत के प्राचीन वैभव और वैदिक सभ्यता का मुख्य साक्ष्य है।
भारत के मुठ्ठी भर स्वयंभू विद्वान ही आर्यो को विदेशी बताते रहे हैं। 1922 तक सिंधु सभ्यता की जानकारी नहीं थी। विलियम जोंस ने ‘रॉयल सोसाइटी ऑफ बंगाल’ (1786) में संस्कृत को ग्रीक और लैटिन से भी समृद्ध भाषा बताया था, लेकिन संस्कृत को किसी न्य भाषा का विकास बताया। दुनिया की सर्वाधिक विकसित संस्कृत भाषा सामने थी, लेकिन संस्कृत को मूल भाषा मानने से यूरोपीय नस्लवाद को कष्ट होता इसलिए दूसरी भाषा की चर्चा जरूरी थी। इसी कल्पित भाषा का नाम इंडो यूरोपियन चल निकला। इसे बोलने वाले जनसमूह और भाषा के मूल स्थान की समस्या पेचीदा थी। आर्यो की मूल भूमि भारत से बाहर बताने के लिए जर्मनी, हंगरी, साइबेरिया, ओल्गा नदी क्षेत्र, पामीर और एशिया माइनर तक दिमाग दौड़ाया गया। वे सिद्ध करना चाहते थे कि ज्ञात क्षेत्र के निवासी आर्यो ने ईरान के रास्ते आकर भारत पर आक्रमण किया। जोंस की बातें सुविधाजनक थीं। कथित इंडो यूरोपीय भाषा के आधार पर इंडो यूरोपीय नस्ल की कल्पना की गई। इसी फर्जीवाड़े का शिकार बने भारतीय आर्य।
भारत सरकार को कराची-लाहौर के मध्य रेलवे के लिए ईंटें चाहिए थीं। 1922 की हड़प्पा खोदाई में एक नगर मिला। भारतीय पुरातत्व विभाग ने और खोदाई की। सिंधु सभ्यता का पता चला। यहां से लगभग 600 किलोमीटर दूर मोहनजोदड़ो था। 1925 में मैके ने मोहनजोदड़ो से लगभग 100 किमी दूर चन्हुदारो का उत्खनन कराया। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और चान्हुदारों से प्राप्त सामग्री पर सिंधु सभ्यता का विवेचन हुआ। भारतीय सभ्यता का विकास सिंधु, सरस्वती और गंगा आदि नदियों के तट पर हुआ है। इन नदियों के स्तुतिगान ऋग्वेद में भी हैं। मार्शल ने भी इन्हीं नदियों के नाम लिए हैं। उत्तर पूरब में इस सभ्यता के वशेष रोपण और फगानिस्तान व पंजाब तक मिले हैं और बिहार-बक्सर की गंगा घाटी तथा बंगाल, गुजरात के लोथल व राजस्थान के काली बंगन में भी। यह सभ्यता सिंधु घाटी तक ही सीमित नहीं थी। मेरठ,अम्बाला -रोपड़, सूरत तक इसका विस्तार था। हड़प्पा सभ्यता का हृास लगभग 1750 ईसा पूर्व है। तब सरस्वती जलहीन है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में सरस्वती उफना रही हैं। ऋग्वेद की रचना और सभ्यता का विकास 1750 ईसा पूर्व से बहुत प्राचीन है। बागपत व सिनौली के ताजे ध्ययन वैदिक सभ्यता के साक्ष्य हैं।
अखिल भारतीय प्रसार वाली सभ्यता के साक्ष्य गर्व लायक थे, लेकिन 1926 में रामचंद्र प्रसाद ने मोहनजोदड़ो से प्राप्त तथ्यों व कंकालों के बहाने आर्यो पर सभ्यता विनाश का आरोप लगाया। 1926 का साल स्वाधीनता संग्राम का तनाव समय है। यूरोपीय विद्वान सिद्ध करना चाहते थे किअँगरेज़ विदेशी तो आर्य भी विदेशी। ब्रिटिश पुरातत्वविद् ह्वीलर ने भी इस झूठ को प्रचारित किया, लेकिन वह हमले का कोई प्रमाण नहीं दे सके। भारत के वेद, पुराण, लोक कथा या महाकाव्य सहित सभी प्राचीन उपाख्यानों में आर्यो के विदेशी होने का कोई उल्लेख नहीं। डॉ. आंबेडकर ने प्रश्न उठाया था कि आर्य विदेशी हैं तो नदियों को माता क्यों कहते हैं? भारत का मन सांस्कृतिक उत्तराधिकार को लेकर सजग नहीं है।
वैदिक सभ्यता की निरंतरता में हड़प्पा है और हड़प्पा की निरंतरता में चन्द्रगुप्त मौर्य। ब्रिटिश समुदाय शेक्सपियर आदि का भव्य स्मारक बनाते हैं। हम राष्ट्रीय एकीकरण के प्रथम शासक चन्द्रगुप्त मौर्य व कौटिल्य को याद भी नहीं करते। हम अशोक, पतंजलि, वाल्मीकि और व्यास को भी कहां याद करते हैं। सांस्कृतिक स्मृति ही राष्ट्रीय स्वाभिमानी संपदा है।
(लेखक के लेख में कुछ तथ्यों पर हमारी सहमति नहीं है। पहला वेदों में सरस्वती शब्द से नदी अर्थ ग्रहण करनासे हमारी असहमति है। क्यूंकि वेदों में इतिहास और भूगोल आदि की पुस्तक नहीं हैं। दूसरा वेदों की उत्पत्ति का काल 1750 वर्ष ईसापूर्व नहीं हैं। अपितु एक अरब 96 करोड़ वर्ष पहले सृष्टि की रचना के साथ ही वेदों का प्रकाश हुआ था। तीसरा लेखक ने ऋग्वेद और अथर्ववेद की रचना का काल भिन्न बताया है। यह भी असत्य है। क्यूंकि चारों वेद एक ही काल में प्रकाशित हुए हैं। फिर भी लेख में बहुत सरे तथ्य सत्य है। इसलिए इसे आर्यसमाज पेज पर प्रकाशित किया जा रहा है।
- #डॉविवेकआर्य )
सलंग्न चित्र- सनौली में मिले रथ को दिखाते पुरातत्ववेता
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