सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 14 ( क ) सिंहावलोकन
सिंहावलोकन
श्रीराम को भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चेतना का एक महत्वपूर्ण स्रोत कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि श्रीराम ही इस चेतना के एकमात्र स्रोत हैं। क्योंकि भारतीय चेतना का यह स्रोत तो सृष्टि के आदि से प्रवाहित होता चला आ रहा है। इसके महत्वपूर्ण संरक्षक के रूप में श्रीराम हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। उनसे पहले के उनके पूर्वजों ने इस दिशा में बहुत ही गंभीर और सार्थक कार्य किया। जिसे हम अपनी नजरों से ओझल नहीं कर सकते। उनके काल तक आते-आते जिस प्रकार राक्षस शक्तियों का वर्चस्व संपूर्ण भूमंडल पर बढ़ गया था और उस राक्षस शक्ति का जिस प्रकार श्रीराम ने संहार किया उससे उनका कद अपने पूर्वजों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गया।
हम यह भी कह सकते हैं कि श्री राम से पहले भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रवाहमान गति के लिए कोई विशेष संकट या चुनौतियां उत्पन्न नहीं हुई थीं। जिससे सब कुछ सामान्य चलता रहा । जब कुछ असामान्य या असाधारण घटित हो जाता है तभी उस असामान्यजनित चुनौती का जो लोग सामना करते हैं वही इतिहास में सम्मानित स्थान प्राप्त करते हैं। श्रीराम के समय की परिस्थितियां कुछ इस प्रकार की बन गई थीं कि उनमें सर्वत्र चुनौती ही चुनौती दिखाई देती थी । उन चुनौतियों से श्री राम ने लोहा लिया और सफलता सफलतापूर्वक उन पर विजयश्री प्राप्त की।
खास घटित जब होय है बदले जग प्रवाह।
महापुरुष पाले रखें संघर्ष करन की चाह।।
प्रदीप जैन बनाम भारत संघ 1984 के केस में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पीएन भगवती और अमरेंद्र नाथ तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था- ”यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी भी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है।”
जस्टिस महोदय अपने इस निर्णय में बहुत अच्छी बात कह रहे हैं। सच्चाई यही है कि भारत की समान संस्कृति ने ही हमें सदियों से नहीं बल्कि युग युगों से एक सूत्र में बांधे रखा है। इस एक समान संस्कृति का निर्माण हमारे वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि आर्ष ग्रंथों के योगदान से हुआ है । इस प्रकार हमारी संस्कृति एक सतत प्रवाहमान सरिता है। जब जब यह सरिता किसी भी कारण से प्रदूषित हुई है तो इसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए अनेकों भागीरथ समय-समय पर उत्पन्न होते रहे हैं। इन्हीं भागीरथों में से एक भागीरथ श्रीराम हैं।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि संस्कृति अपने मूल में केवल एक ही होती है। अनेकों संस्कृतियां नहीं हो सकतीं। समाज में या संसार में जो लोग संस्कृति को इस्लामिक संस्कृति, ईसाई संस्कृति ,भारतीय संस्कृति या अमुक मजहब, वर्ग ,संप्रदाय, देश की संस्कृति के रूप में उद्धरित करते हैं तो वे अपने अज्ञान का ही प्रदर्शन करते हैं। जैसे धर्म के टुकड़े नहीं हो सकते वैसे ही संस्कृति के भी तो खड़े नहीं हो सकते। धर्म अपने आप में एक अखंड सत्ता है। वैसे ही संस्कृति भी अपने आप में अखंड सत्ता और शक्ति का केंद्र है। जैसे मानव का धर्म एक है वैसे ही मानव की संस्कृति भी एक है। जैसे मानव के धर्म को संप्रदाय या मजहब खंडित – विखंडित, दूषित -प्रदूषित करता है वैसे ही संस्कृति को भी अन्य संस्कृतियां प्रदूषित करती हैं।
जैसे धर्म अखंड है तोड़ सके ना कोय ।
संस्कृति भी एक है जाने बिरला कोय।।
जब संस्कृति को मत,पंथ, संप्रदाय, वर्ग ,जाति, भाषा या प्रांत आदि की संकीर्ण भावनाएं प्रभावित करती हैं तो संस्कृति का स्रोत सूखने लगता है। जिससे राष्ट्र विखंडित होता है और उसे भारी हानि उठानी पड़ती है। जब तक एक समान संस्कृति में विश्वास रखने वाले लोगों का बहुमत होता है तब तक राष्ट्र खंडित नहीं होता बल्कि ‘एक’ बना रहता है और ‘नेक’ भी बना रहता है। जैसे ही कोई दूसरी संस्कृति अपसंस्कृति के रूप में इस मूल संस्कृति के साथ अपने आपको मिलाने की कोशिश करती है वैसे ही द्वन्द्वभाव आरंभ हो जाता है। देर सवेर यह द्वंदभाव किसी न किसी प्रकार की टूटन या बिखराव में परिलक्षित होता है।
हमें इस संदर्भ में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक समान संस्कृति भी एक धर्म से ही विकसित होती है। मूल रूप में धर्म वह स्रोत है जो हम सबकी सामूहिक चेतना का मूलोद्गम कहा जा सकता है। जब धर्म से उदभूत संस्कृति अपने व्यापक स्वरूप में आती है तो वह अपने मानने वालों के बीच एक ऐसी सूक्ष्म, पवित्र परन्तु अदृश्य भावना का निर्माण करती है जो राष्ट्र के रूप में हमें आभासित और प्रकाशित करने लगती है। यह पवित्र भावना हमें आंतरिक जगत में एक दूसरे के साथ समन्वित करती है । एक ही माला के मोती बनाकर पिरो देती है। हमें एक साथ चलने, एक साथ सोचने और एक साथ कुछ बेहतर करने की प्रेरणा हमारे आंतरिक जगत में व्याप्त ज्योति के रूप में देने लगती है। राष्ट्र की इसी भावना का लोग केवल आभास या अहसास करते हैं । उसे देख नहीं पाते। परंतु यह आभास इतना गहरा होता है कि सब एक ही सामूहिक चेतना से अपने आपको बंधे हुए अनुभव करते हैं। सामूहिक चेतना का यही भाव सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहलाता है। इस प्रकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपने आप में एक सामूहिक गान है । एक ऐसा सामूहिक नृत्य है। एक सामूहिक चेतना है। जो हमें राष्ट्रगत मनोभावों से भरकर एक साथ एक धुन पर नृत्य करने के लिए प्रेरित करता है।
राष्ट्रवाद एक गीत है – मस्ती भीतर देय।
खामोश रहे भीतर सदा आनंद भारी देय।।
कुछ लोगों की दृष्टि और दृष्टिकोण में राष्ट्रवाद एक आधुनिक ‘पद’ है। ऐसी अवधारणा में विश्वास रखने वाले लोगों का मानना है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा फ्रांस की क्रांति (1789) के बाद विकसित हुई।’ जिन लोगों ने इस धारणा में विश्वास व्यक्त करते हुए यह कहा है कि आधुनिक राष्ट्र राज्य की अवधारणा फ्रांस की क्रांति के बाद विकसित हुई ,उन्होंने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को या तो समझा नहीं या फिर समझकर भी उन्होंने अनसमझ बने रहने का नाटक किया। इस प्रकार की मानसिकता के चलते हमें अपने आप को समझने और अपने पूर्वजों के त्याग, तपस्या और साधना से विकसित हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सही संदर्भों और सही अर्थों में स्वीकार करने में कठिनाई आई है।
वैसे यदि एक बार यह मान भी लिया जाए कि आधुनिक संसार में वास्तव में ही फ्रांस की क्रांति के बाद राष्ट्रवाद की अवधारणा विकसित हुई है तो यह राष्ट्रवाद की अवधारणा हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा की अपेक्षा बहुत तुच्छ है। इसका कारण केवल यह है कि आधुनिक राष्ट्रवाद की यह अवधारणा संपूर्ण भूमंडलवासियों और प्राणीमात्र के अधिकारों के प्रति आज तक गंभीर नहीं हो पाई है। यहां तक कि मानव मानव के प्रति भी वह एक ऐसा संबंध स्थापित नहीं कर पाई है जो संपूर्ण वसुधा पर प्रेम ही प्रेम की सृष्टि करने में सक्षम हो।
पश्चिमी जगत की जितनी भर भी राजनीतिक ,सामाजिक और आध्यात्मिक अवधारणाएं हैं वे सारी की सारी समतामूलक समाज की संरचना की बात करती हुई तो दिखाई देती हैं परंतु व्यवहार में वे ऐसा कुछ भी नहीं कर पाईं जिससे मानव सुख शांति के साथ जीवन यापन कर सके।
कुल मिलाकर वह संसार को एक सुव्यवस्थित व्यवस्था देने में पूर्णतया असफल सिद्ध हो चुकी हैं। उसने सामाजिक विषमताओं और विसंगतियों को जन्म दिया है। राजनीतिक चिंतन के आधार पर पश्चिमी जगत की सारी अवधारणाओं ने इस्लामिक अवधारणाओं के समनुरुप कार्य करते हुए संसार में विखंडन ही विखण्डन पैदा किया है । आज भी ईसाई जगत और इस्लामिक जगत के रूप में संसार को ये दोनों राजनीतिक अवधारणाएं बाँटकर देखने का काम करती हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इनके राजनीतिक चिंतन में विखंडन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इनका आध्यात्मिक चिंतन भी विखंडन का ही है। इस प्रकार अपने आंतरिक जगत में बिखराव के भूचालों के अतिरिक्त इनके पास और कुछ नहीं है। उसी का परिणाम है कि सारा संसार बिखराव के भूचालों से जूझ रहा है।
मजहब बिखराव बिखेरता लाता है भूचाल।
धर्म सभी को बांधकर कर दे सीधी चाल ।।
जबकि भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दिव्य और भव्य समाज की अवधारणा पर आधारित है। इसने एक समय ऐसे दिव्य और भव्य समाज का निर्माण करके भी दिखाया था। यदि आज भी संसार को ऐसे ही दिव्य और भव्य समाज की इच्छा है तो वह निसंदेह भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा से ही प्राप्त हो सकता है।
उनका राष्ट्रवाद अपने देशवासियों के लिए होता है और कभी-कभी तो वह देशवासियों में भी न्याय नहीं कर पाता। वहां भी जिस संप्रदाय या मजहब के मानने वाले लोगों का वर्चस्व होता है सामान्य रूप से वे दूसरे वर्ग या संप्रदाय के लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण करते देखे जाते हैं। इस प्रकार के राष्ट्रवाद को हम कभी भी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ नहीं कह सकते। हां, इसे हम लंगड़ा लूला और गूंगा बहरा राष्ट्रवाद अवश्य कह सकते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तो सबको समान अवसर उपलब्ध कराता है। बिना किसी भेदभाव के सबके बीच न्याय करता है। वह व्यक्ति का ना तो मजहब पूछता है , ना लिंग पूछता है , ना जाति पूछता है, ना निवास का क्षेत्र पूछता है , ना ही प्रांत पूछता है और ना ही भाषा पूछता है । वह हर व्यक्ति के भीतर एक ही चेतना की ज्योति को को प्रज्जज्ज्वलित होते हुए देखता है और सोचता है कि जैसे मैं स्वयं एक ही चेतन सत्ता से चेतनित हूं वैसे ही उसी चेतन सत्ता से चेतनित यह व्यक्ति भी है। इसलिए इसे मैं न्याय दूँ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत