पंकज चतुर्वेदी
भले ही तीन कृषि कानून वापस होने के बाद किसान घर लौट गये हों लेकिन गंभीरता से विचार करें तो भारत की अर्थ नीति का आधार खेती-किसानी ही खतरे में है। यह संकट इतना गहरा है कि कहीं देश की बढ़ती आबादी के लिए पेट भरना एक नया संकट ना बन जाए।
आजादी के बाद देश अन्न पर आत्मनिर्भरता ना होने की त्रासदी एक बार भुगत चुका है। आज जिस तरह खेती की जमीन तेजी से अन्य उपयोग में बदली जा रही है, किसान का खेती से मन उचाट हो रहा है, भारत पर यह खतरा बढ़ता जा रहा है कि कहीं खाद्य सुरक्षा पर खतरा ना खड़ा हो जाए। यही नहीं, खेत सिकुड़ने का असर भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर भी पड़ रहा है। भारत के गामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग और इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा जारी ‘वैस्टलैंड एटलस-2019’ में उल्लेखित बंजर जमीन को खेती लायक बदलने की सरकारी गौरव गाथाओं के बीच यह दुखद तथ्य भी छुपा है कि हमारे देश में खेती के लिए जमीन साल-दर-साल कम हो रही है, जबकि आबादी बढ़ने से खाद्य की मांग बढ़ रही है और इस दिशा में देश की दुनिया के दीगर देशों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। भारत में खेती की जमीन प्रति व्यक्ति औसतन 0.12 हेक्टेयर रह गई है, जबकि विश्व में यह आंकड़ा 0.28 हेक्टेयर है।
सरकार भी मानती है कि पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्य में देखते ही देखते 14 हजार हेक्टेयर अर्थात कुल जमीन का 0.33 प्रतिशत पर खेती बंद हो गई। पश्चिम बंगाल में 62 हजार हेक्टेयर खेत सूने हो गए तो केरल में 42 हजार हेक्टेयर से किसानों का मन उचट गया। देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यह भी सच है कि मनरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूर ना मिलने से किसान खेती को तिलांजलि दे रहे हैं।
नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक देश में 14 करोड़ हेक्टेयर खेत हैं। सन् 1992 में ग्रामीण परिवारों के पास 11.7 करोड़ हेक्टेयर भूमि थी जो 2013 तक आते-आते महज 9.2 करोड़ हेक्टेयर रह गई। यदि यही गति रही तो तीन साल बाद अर्थात 2023 तक खेती की जमीन आठ करोड़ हेक्टेयर ही रह जाएगी।
आखिर खेत की जमीन कौन खा जाता है? इसके मूल कारण तो खेती का अलाभकारी कार्य होना, उत्पाद का माकूल दाम ना मिलना, मेहनत की सुरक्षा आदि तो हैं ही, विकास ने सबसे ज्यादा खेतों की हरियाली का दमन किया है। पूरे देश में इस समय बन रहे या प्रस्तावित छह औद्योगिक कॉरीडोर के लिए कोई 20.14 करोड़ हेक्टेयर जमीन की बलि चढ़ेगी, जाहिर है इसमें खेत भी होंगे। सरकारी रिपोर्ट में भले ही बहुत से आंकड़े दर्ज हों कि कितनी सारी बंजर या बेकार जमीन को काम लायक बदल दिया गया है, लेकिन खेतों के कंक्रीट में बदलने के आंकड़े निराशाजनक हैं। जरा सोचिये जो देश सन् 2031 तक डेढ़ सौ करोड़ की आबादी पार कर जाएगा, वहां की खाद्य सुरक्षा बगैर खेती का इजाफा किए कैसे संभव होगी।
किसानों के प्रति अपनी चिंता को दर्शाने के लिए सरकार के प्रयास अधिकांशतः उसकी चिंताओं में इजाफा ही कर रहे हैं। बीज को ही लें, गत पांच साल के मामले सामने हैं कि बीटी जैसे विदेशी बीज महंगे होने के बावजूद किसान को घाटा ही दे रहे हैं। ऐसे बीजों के अधिक पैदावार व कीड़े न लगने के दावे झूठे साबित हुए हैं। इसके बावजूद सरकरी अफसर विदेशी जेनेटिक बीजों के इस्तेमाल के लिए किसानों पर दवाब बना रहे हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल के दुष्परिणाम किसान व उसके खेत झेल रहे हैं। इसके बावजूद सरकार चाहती है कि किसान पारंपरिक खेती के तरीके को छोड़ नई तकनीक अपनाएं। इससे खेती की लागत बढ़ रही है और इसकी तुलना में लाभ घट रहा है।
गंभीरता से देखें तो इस साजिश के पीछे कतिपय वित्तीय संस्थाएं हैं जो कि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं। हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि आंध्र प्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं। पंजाब और महाराष्ट्र में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है। इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध-जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं।