वैदिक सम्पत्ति तृतीय खण्ड, अध्याय – ब्रह्मसूत्रों की नवीनता
गतांक से आगे…
हमने यहां तक प्रस्थानत्रयी की पड़ताल करके देखा कि, उसमें आसुर दर्शन का मिश्रण है और वह मिश्रण रावण के समय में आरंभ हुआ था, जो बादरायण, शुक्र,गोविंदनाथ और शंकराचार्य के समय तक चलता रहा और प्रस्थानत्रयी के नाम से सम्मानित हुआ।इसी के द्वारा बौद्धों और जैनों को नष्ट किया गया और इसी के द्वारा भारतवर्ष में अनेक संप्रदायों को जन्म दिया गया। द्वेत,अद्वैत,विशिष्टाद्वैत,शुद्वाद्वैत और द्वैताद्वैत आदि दर्शनों तथा शाक्त,शैव, वैष्णव आदि संप्रदायों को इसी दल और इसी साहित्य ने उत्पन्न किया। शंकराचार्य ने रावणकृत लिंग-पूजा को शिवलिंग – पूजा में परिवर्तित किया और यज्ञों में गोवध तथा मांसाहार को सहारा दिया। बात आ पड़ने पर वे कह देते थे कि-
हन्ता चेन्मन्यते हन्तु हतश्वेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ विजानीतौ नायं हन्ती न हन्यते॥
अर्थात जो मरने वाले को हिसंक समझते हैं और जो हत को मारा हुआ समझते हैं वे दोनों ही अज्ञ है। इनमें न किसी ने मारा है और न कोई मरा है। इन बातों से और ‘कूटस्थ, चेतन’ और ‘चिदाभास’ आदि नवीन परिभाषित शब्दों की रचना से लोगों में कोलाहल मच गया।लोगों ने कह दिया कि शंकराचार्य वर्णाश्रम को नहीं मानते। क्योंकि वे कहते हैं कि वर्णा,आश्रम, वेद, यज्ञ आदि कुछ भी नहीं है। इसलिए शंकराचार्य प्रच्छत्र बौद्ध है। उनके विरुद्ध अनेक श्लोक स्कन्दपुराण के उत्तराखण्ड में स्कन्द के मुंह से कहलाकर लिखे गए हैं। वे हमें एक मरहठी पत्र में मिले हैं, जो अशुद्ध और अस्तव्यस्त प्रतीत होते हैं, परन्तु हम उनको ज्यों के त्यों फुटनोट में लिख देते हैं। हमारी इस समस्त विवेचन का केवल इतना ही कारण है कि यह बात अच्छी तरह से सिद्ध हो जाए कि नवीन दर्शन और नवीन सम्प्रदायों का जन्म मद्रास से ही हुआ है। हम यहां द्वैत और अद्वैत पर बिलकुल बहस नहीं करते। क्योंकि वैदिकों के मत में न तो द्वैत ही होता है और न अद्वैत ही, वेदों में द्वैत अद्वैत का झगड़ा ही नहीं है। वेदों के सिद्धांतनुसार द्वैत में अद्वैत और अद्वैत में द्वैत सदा बना रहता है। वेदों में तो स्पष्ट लिखा है कि- ‘तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्मतः’ अर्थात यह परमात्मा हम सबके भीतर भी है और बाहर भी है। जो सब के भीतर और बाहर भी भरा है जो ‘यत किल् च जगत्यां जगत्’ अर्थात यत्किन्चस्थान में भी उपस्थित है, उसके अतिरिक्त अन्य वस्तु की कहां गुंजाइश है और अन्य वस्तुओं और उसके अस्तित्व के अतिरिक्त कहां रह सकती है। इस तरह अनिर्वचनीय माया और माया विशिष्ट चेतन के बिना उसे व्यापक का अस्तित्व ही कहां रह सकता है और वह बिना व्याप्य के किसका व्यापक हो सकता है ? इसलिए कोई ऐसा अद्वैतवादी नहीं है,जो अनिर्वचनीय जैसी कोई वस्तु और मायामोहित जीव जैसा एक पदार्थ अनादि न मानता हो और कोई ऐसा द्वैतवादी नहीं है, जो तीनों पदार्थों को व्याप्यव्यापक भाव से एक मानता हो। हमारी समझ में तो अनिर्वचनीय माया और मायाविशिष्ट चेतन को अनादि मान लेने पर और दोनों में परमात्मा को और ओतप्रोत व्यापक मान लेने पर द्वैत-अद्वैत में कुछ भी अंतर नहीं रह जाता। इस प्रकार के समतोल सिद्धान्त में जो मनुष्य जरा सा भी सुधार करने जाएगा,वह आर्यों की प्राचीनतम तत्वज्ञानविषयक परिस्थिति में बहुत बड़ा धक्का लगाएगा। इसलिए वैदिकों में द्वैत -अद्वैत के नाम से सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। द्वैत-अद्वैत के सम्प्रदायों की सृष्टि तो वैदेशिक है और अनार्य है।
क्रमशः