गजवा ए हिंद की इस सच्चाई की आपको भी होनी चाहिए जानकारी
अनुराग शुक्ला
खुफिया रिपोर्टों के मुताबिक पुलवामा हमले से करीब एक साल पहले हुई जैश-ए-मोहम्मद की बैठक में भारत के खिलाफ गजवा-ए-हिंद जारी रखने का फैसला किया गया था
पुलवामा हमले के बाद चरम पर पहुंचा भारत-पाकिस्तान तनाव विंग कमांडर अभिनंदन की रिहाई के बाद से घटता लग रहा है. लेकिन यह बात अभी भी अपनी जगह पर जस की तस बनी है कि पाकिस्तान में एक पूरा तंत्र है जो इस्लाम की बहुत सारी बातों की गलत व्याख्या कर जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों को ‘वैचारिक’ खाद-पानी देता है.
इन्हीं मनगढ़ंत व्याख्याओं से निकला एक लफ्ज है – गजवा-ए-हिंद. आतंकवाद पर अध्ययन करने वाले जानकार मानते हैं कि गजवा-ए-हिंद कश्मीर में पाकिस्तान से चलने वाली आतंकी गतिविधियों की पंचलाइन है. पुलवामा में सीआरपीएफ जवानों पर हुए फिदायीन आतंकी हमले के बाद यह शब्द फिर मीडिया और सोशल मीडिया पर छा गया. भारत- पाक तनाव के बीच 28 फरवरी को एक इंटेलीजेंस रिपोर्ट सामने आई कि पाकिस्तान के ओकारा जिले में 27 नवंबर 2017 को जैश-ए-मोहम्मद की एक बैठक हुई थी, जिसमें भारत के खिलाफ गजवा-ए-हिंद जारी रखने की बात की गई थी.
सवाल उठता है कि आखिर गजवा-ए-हिंद है क्या. इसकी वैचारिकी क्या है और कैसे आतंकी संगठन इस्लाम के नाम पर हिंसा फैलाने में इसकी मदद लेते हैं?
गजवा-ए-हिंद का उल्लेख हदीस के संग्रह में मिलता है. हदीस पैगंबर मोहम्मद की उन बातों का संग्रह है जो उन्होंने सहाबा (पैगंबर के सहयोगी) से कही थीं या उनके किसी सवाल का जवाब में कही थीं. हदीस, कुरआन के बाद इस्लाम में सबसे ज्यादा महत्व रखती हैं.
इस्लामिक इतिहास के जानकारों के मुताबिक पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के कम से कम 100 साल बाद तक हदीस का कोई औपचारिक संग्रह नहीं मिलता. तब तक यह इस्लाम के मानने वालों के बीच मौखिक इतिहास के तौर पर ही रही. इसके बाद इस वाचिक परंपरा का लेखन शुरू हुआ. मुस्लिम विद्वान मानते हैं कि इसमें वैसी ही मुश्किलें आईं जैसी किसी भी वाचिक इतिहास को लिपिबद्ध करने में आती हैं.
पाकिस्तान के मशहूर इस्लामिक विद्वान जावेद अहमद गामिदी मानते हैं कि हदीसों के संकलन के दौरान इसमें कुछ सुनी-सुनाई बातें भी शामिल हो गईं. चूंकि, पैगंबर की कही गई बात दीन का हिस्सा है इसलिए हदीसों के संकलन के बाद उनकी प्रमाणिकता पर तमाम विद्धानों ने काम किया. गामिदी का मानना है कि हदीसों को कसौटी पर कसने का एक तरीका है और उसके बाद ही उन्हें सच मानना चाहिए.
अब फिर गजवा-ए-हिंद पर लौटते हैं. कट्टरपंथी हदीसों के संकलन से कुछ ऐसी रवायतें पेश करते हैं जिनमें गजवा-ए-हिंद का जिक्र होने की बात कही जाती है. कुछ जानकार ऐसी रवायतों का आंकड़ा पांच तो कुछ छह बताते हैं. इस्लामिक इतिहास के शोधार्थी मुहम्मद फारुख खां के मुताबिक ये रवायतें मुस्नद अहमद बिन हन्बल और निसाई की किताब ‘अल फितन’ में आई हैं. आतंकवाद का वैचारिक ढांचा, गजवा-ए-हिंद के नाम से जिन हदीस का सबसे ज्यादा बखान करता है, उसमें से एक का तर्जुमा कुछ यूं है-
‘हजरत अबू हुरैरा (सहाबी- पैगंबर के साथी) फरमाते हैं कि इस उम्मत (मुस्लिम) में सिंध और हिंद की तरफ एक लश्कर रवाना होगा. अगर मुझे इस गजवा में शिरकत का मौका मिला तो शहीद कहलाऊंगा और अगर बच गया तो वह अबू हुरैरा होऊंगा, जिसे अल्लाह ने जहन्नुम की आग से आजाद कर दिया होगा.’
इसी से मिलती जुलती एक और रवायत का भी उल्लेख किया जाता है-
‘तुम्हारा एक लश्कर हिंद से जंग करेगा. मुजाहिदीन वहां के बादशाह को बेडि़यों में जकड़कर लाएंगे और फिर जब वह वापस पलटेंगे तो हजरत ईसा ( जीसस क्राइस्ट, मुसलमान इन्हें भी एकश्वेरवाद के तमाम पैगंबरों में से एक मानते हैं और यह भी मानते हैं कि कयामत से पहले उनका अवतरण होगा) को स्याम (वर्तमान सीरिया) में पाएंगे. इस पर अबू हुरैरा ने कहा कि अगर मैं इस गजवा में शामिल हुआ तो मेरी ख्वाहिश होगी कि मैं हजरत ईसा के पास पहुंच कर यह बताऊं कि मैं आपका (पैगंबर मोहम्मद) सहाबी हूं. इस पर रसूल अल्लाह मुस्कराए और कहा- बहुत मुश्किल, बहुत मुश्किल.’
कुछ ऐसे ही कथ्य से मिलती–जुलती तीन रवायतें और हैं जिनका इस्तेमाल गजवा-ए-हिंद के नाम पर किया जाता है. गजवा-ए-हिंद के नाम से इन्हीं का आतंकी संगठनों के भाषण में जिक्र किया जाता है और उसमें मौजूदा राजनीतिक बातों को जोड़कर नौजवानों को यह समझाया जाता है कि यह गजवा-ए-हिंद दरअसल, भारत के खिलाफ जंग की बात है और जिसकी पेशेनगोई ( भविष्यवाणी) खुद पैगंबर ने की है. इन्हीं रवायतों का सहारा लेकर साबित किया जाता है कि भारत के खिलाफ जेहाद इस्लाम का काम है.
अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत और हडसन इंस्टीट्यूट के ‘इस्लाम और लोकतंत्र’ प्रोजेक्ट के मुखिया रहे हुसैन हक्कानी अपने एक लेख में लिखते हैं कि हदीसों का सहारा लेकर मुस्लिम नौजवानों को जेहादी आतंकवाद के लिए उकसाने की प्रवृत्ति अफगान-सोवियत युद्ध के दौरान शुरू हुई. उस समय उन हदीसों का जिक्र किया जाता था जिनमें खुरासान से काले झंडे लेकर जत्थे निकलने और ऐलिया ( येरूशलम का मध्यकालीन नाम) में विजयी झंडे गाड़ने की बात कही जाती थी. हक्कानी कहते हैं कि एकाएक इस हदीस का जिक्र इसलिए बढ़ गया था कि उस समय अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को खुद को अफगानिस्तान में स्थापित करना था. चूंकि, मध्यकाल की शुरुआत में अफगानिस्तान, खुरासान नाम के देश का हिस्सा हुआ करता था. ऐसे में खुरासान के जिक्र वाली हदीस अफगानिस्तान में अलकायदा की गतिविधियों को धार्मिक आधार पर तर्कसंगत बना देने की एक राजनीतिक मुहिम थी.
हक्कानी मानते हैं कि अफगान-सोवियत युद्ध के खत्म होने के बाद तमाम जेहादी गुटों ने मध्य और दक्षिण एशिया में अपनी गतिविधियां शुरु कीं. 1989-90 के इस दौर में कश्मीर में चरमपंथ ने अपने पांव पसारे और ‘गजवा-ए-हिंद’ नाम से इस दुष्प्रचार की शुरुआत हुई कि कश्मीर में जेहाद दीन का आदेश है और इसमें शहीद होने वाले को जन्नत नवाजी जाएगी. धर्म के नाम पर मौलवियों का एक पूरा नेटवर्क खड़ा किया गया जिसने जेहाद के शहीद को जन्नत में 72 हूरें मिलने जैसी बातें भी जोड़ीं.
हक्कानी लिखते हैं कि भारत के साथ कश्मीर में प्राक्सी वार (छद्म युद्ध) लड़ रही पाकिस्तानी सेना और सरकार के लिए उस समय यह मनमाफिक था. उसने इन जेहादी संगठनों की भरपूर मदद की. लश्कर-ए-तैयबा तो उस समय गजवा-ए-हिंद की व्याख्या कश्मीर से भारत की आजादी के तौर पर करता था और इसे दीन का हुकुम बताता था. हक्कानी के मुताबिक आईएसआई के इशारे पर जैद हामिद जैसे पत्रकार पाकिस्तानी मीडिया में गजवा-ए-हिंद के तौर पर मशहूर रवायतों की आधुनिक व्याख्या हिंदू भारत और मुस्लिम पाकिस्तान के बीच युद्ध के तौर पर बताते थे. वे कहते थे कि पाकिस्तान बना ही दुनिया में इस्लामिक खिलाफत कायम करने के लिए है.
लेकिन, 2001 में अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले ने समीकरण बदले. अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान के तब के राष्टपति परवेज मुशर्रफ ने अमेरिका का साथ दिया और उन्हें कुछ जेहादी गुटों पर कार्रवाई भी करनी पड़ी. उस समय अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता उखड़ने और पाकिस्तानी सरकार के जेहादी गुटों से कन्नी काटते ही अफगान-पाकिस्तान में फैले आतंकी नेटवर्क ने अपने जेहाद में पाकिस्तान सरकार को भी शामिल कर लिया. उसने कहना शुरू कर दिया कि पाकिस्तान तो नाममात्र का मुस्लिम मुल्क है.
इसके बाद तालिबान की पाकिस्तान शाखा, तहरीक-ए-तालिबान, पाकिस्तान (टीटीपी) ने बाकायदा पाक सरकार से युद्ध की घोषणा कर दी. टीटीपी ने अपने प्रचार साहित्य और भाषणों में यह बताना शुरू किया कि गजवा-ए-हिंद से मतलब पुराने एकीकृत हिंदुस्तान से है क्योंकि पैगंबर के वक्त हिंद का मतलब यही था. साफ है कि आतंकी संगठनों ने अपनी सियासी-सामरिक जरुरत बदलते ही गजवा-ए-हिंद का मतलब भी बदल लिया.
अल कायदा की एक इस्लामिक शाखा, इस्लामिक मूवमेंट आफ उजबेकिस्तान तो एक कदम और आगे निकल गई. उसने गजवा-ए-हिंद नाम की उर्दू पत्रिका निकाली और गजवा-ए-हिंद की अपनी व्याख्या में कहा कि पाकिस्तान में चूंकि, शरीयत के हिसाब से निजाम नहीं है, इसलिए गजवा-ए-हिंद के लिए जेहाद यहां से शुरू होकर अन्य जगहों पर फैलेगा. जाहिर है कि आतंकी संगठनों का उस समय तात्कालिक निशाना पाकिस्तान सरकार थी जो अमेरिका की मदद कर रही थी और आतंकी गुटों के खिलाफ सख्त थी. इस दौरान ही कभी कश्मीर में गजवा-ए-हिंद के नाम पर आतंकियों को मदद देने वाले पाकिस्तान में लगातार फिदायीन धमाकों से लेकर पेशावर के आर्मी स्कूल में बच्चों तक पर नृशंस हमला हुआ. 2014 में आर्मी स्कूल पर हमला करने वालों में चेचन्या, अफगान और अरबी मुसलमान शामिल थे जो तहरीक-ए-तालिबान, पाकिस्तान से जुड़े थे.
यानी आतंकी संगठन अपने मकसद के लिए गजवा-ए-हिंद समेत कुरआन और हदीस का मनचाहा मतलब बताते रहे हैं. लेकिन सवाल यह भी है कि जिन चुनिंदा हदीसों का बार-बार जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन इस्तेमाल करते हैं क्या वाकई उनकी कोई धार्मिक हैसियत है?
पैगंबर के नाम पर जिन रवायतों का इस्तेमाल हिंसा फैलाने और जेहादियों की भर्ती के लिए किया जाता है, उन पर तमाम इस्लामिक विद्दान भी सवाल उठाते रहे हैं. हुसैन हक्कानी अपने लेख ‘प्रोफेसी एंड द जिहाद इन द इंडियन सबकॉन्टिनेंट’ में दारुल-उलूम, देवबंद से दीन की शिक्षा लेने वाले और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से इस्लामिक इतिहास में पीएचडी करने वाले मौलाना वारिस मजहरी का हवाला देते हैं. मजहरी कहते हैं, ‘दुनिया में ‘गल्बा-ए-इस्लाम’ के लिए कुरान-हदीस के उद्धरण देना गलत है क्योंकि कुरआन में ‘गल्बा-ए- इस्लाम’ से मतलब किसी तरह के सियासी निजाम को स्थापित करना नहीं है, बल्कि इस्लाम के पैगाम से दुनिया को मुतासिर करना है.’
गजवा-ए-हिंद के बारे में प्रचलित रिवायतों के बारे में मौलाना मजहरी का कहना है कि गजवा-ए-हिंद का जिक्र हदीसों के छह प्रामाणिक संग्रहों में केवल एक में मिलता है. वे इस बात पर भी सवाल उठाते हैं कि गजवा-ए-हिंद से संबंधी रिवायतों में केवल एक ही सहाबी अबू हुरैरा का ही जिक्र आता है. उनके मुताबिक इसलिए ऐसा लगता है कि यह रवायत सही नहीं है और पैगंबर की मृत्यु के काफी बाद उमैया खिलाफत के शासकों द्वारा इस मकसद से लिखवाई गई है कि वे अपनी आक्रमण और विस्तार की नीति को इस्लाम का जामा पहना सकें और उन्हें तर्कसंगत ठहरा सकें.
पाकिस्तान के विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान जावेद अहमद गामिदी द्वारा स्थापित अल-मवारिद शोध संस्थान भी इन हदीसों को गलत मानता है. अल-मवारिद की वेबसाइट पर-‘गजवा-ए-हिंद की कमजोर और गलत रिवायत का जायजा’ नाम से एक लेख है. इसमें कहा गया है कि हदीस की प्रमाणिकता जानने के लिए इस्लाम में जिन तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, उनके मुताबिक गजवा-ए-हिंद की रिवायत कबूल करने लायक नहीं हैं. लेख यह भी बताता है कि गजवा-ए-हिंद के नाम पर कुछ गिरोह राजनीतिक अर्थ निकालते हैं, वे हदीस 1500 साल पहले की सुनाते हैं लेकिन हिंद शब्द का मतलब आज के भारत से लेते हैं. लेख के मुताबिक 1500 साल पहले हिंद शब्द का इस्तेमाल सिंध के पूर्वी इलाकों के साथ उस समय के दक्षिण-पूर्व एशियाई इलाकों के लिए भी होता था जिनमें आज के इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड जैसे मुल्क भी शामिल थे.
इसके अलावा कुछ इस्लामी जानकार कहते हैं कि शिया मुसलमानों की हदीस की किसी किताब में गजवा-ए-हिंद जैसी कोई हदीस नहीं मिलती. लेबनान के इस्लामिक विद्धान अयातुल्ला फदल्लाह भी गजवा-ए-हिंद की हदीस को कबूल न करने लायक मानते हैं. यह भी मजे की बात है कि गजवा-ए-हिंद का सबसे ज्यादा इस्तेमाल पाकिस्तान की धार्मिक तकरीरों में ही होता है. हालांकि, पाकिस्तान के बहुत सारे मौलाना हदीस को ठीक तो मानते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि इसका ताल्लुक मोहम्मद बिन कासिम के हिंद पर हमले से था और आज के दौर से इसका कोई मतलब नहीं है. हालांकि, पाकिस्तान के कट्टरपंथी मौलानाओं के अलावा वहां के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय कुछ इस्लामिक जानकार इन हदीसों की जरुर ऐसी व्याख्या करते रहे हैं जो आतंकी संगठनों के पक्ष में जाती है.
साफ है कि गजवा-ए-हिंद के नाम पर आतंकी संगठनों ने हिंसा को जायज ठहराने के लिए धर्म का मनमाना राजनीतिक इस्तेमाल किया. पाकिस्तान सरकार ने भी इसका अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग किया. जानकार मानते हैं कि आतंक को मिली फंडिंग ने पाकिस्तान में एक ऐसी मशीनरी खड़ी कर दी है, जिसमें जेहाद और इस्लाम के नाम पर हिंसा का महिमामंडन किया जाता है. उनके मुताबिक अफसोस और चिंता की बात यह है कि पाकिस्तान आतंक के इस वैचारिक नेटवर्क को खत्म करने पर अभी भी गंभीर नहीं दिखता।
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