कांग्रेस ने नहीं, भारत की दो वीर बालिकाओं ने लिया था सरदार भगत सिंह की फांसी का प्रतिशोध

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भारत का प्रतिशोधात्मक पराक्रम संसार में अनुपम और अद्वितीय है। विदेशी विधर्मियों ने हमें मिटाने का हर संभव प्रयास किया, परंतु हमारी जिजीविषा सदा प्रबल रही। राष्ट्रीय लोकजीवन में हमने कभी भी विदेशी विधर्मियों की विधर्मिता और नीचता से समझौता नहीं किया। जितना ही उन्होंने हमें कुचलने और दलने का प्रयास किया उतना ही हमने अपने राष्ट्रीय संकल्प अर्थात प्रतिशोधात्मक पराक्रम का परिचय दिया।
     यदि बात अंग्रेजों की करें तो उन्होंने अपनी न्यायिक प्रक्रिया को अन्यायपूर्ण सिद्ध करते हुए अनेकों बार हमारे निर्दोष और राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों को फांसी के फंदे पर लटकाया। उन्होंने चाहे अपने इस नीच कर्म को कितना ही पवित्र सिद्ध करते हुए उसके कानूनी होने का प्रचार प्रसार क्यों नहीं किया हो परंतु वास्तविकता तो यही थी कि उनकी यह कार्यशैली पूर्णतया अन्याय पूर्ण थी। इस अन्याय का प्रतिशोध लेने के लिए हमारा पराक्रम बार-बार मचलता रहा। कई अवसरों पर चाहे गांधी जी और उनकी कांग्रेस ने भी मौन रहकर इस अन्याय को क्यों न सहन कर लिया हो पर हमारे यौवन ने अंग्रेजों के प्रत्येक अन्याय पूर्ण कार्य का प्रत्युत्तर अपनी ही शैली में दिया।

    बात 14 दिसम्बर 1931 की है। यह वही वर्ष था जब हमारे महान क्रांतिकारी भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी पर लटकाया गया था। अंग्रेजों के इस क्रूरतापूर्ण और अन्यायपरक कार्य का मौन विरोध तक भी गांधीजी नहीं कर पाए थे। तब ऐसा नहीं था कि हमारा यौवन शांत बैठा था, अंग्रेजों की क्रूरता पूर्ण कार्यवाही का प्रतिशोध लेने के लिए हमारे देश के युवक ही नहीं किशोर भी मचल रहे थे। उनके तन-बदन में आग लग रही थी। उनका हर संभव प्रयास था कि जैसे भी हो अंग्रेजों से शहीदे आजम भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का प्रतिशोध लिया जाए । हम सभी जानते हैं कि सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी।
   तब 14 वर्ष की 2 बच्चियों ने भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का प्रतिशोध लेने का संकल्प लिया। 14 दिसंबर 1931 को अर्थात 1931 के वर्ष को समाप्त होने से पहले ही इन दोनों वीरांगना बेटियों ने भारत के सम्मान की रक्षा करते हुए भगत सिंह की फांसी का प्रतिशोध लेने में सफलता प्राप्त की, जब उन्होंने क्रूर स्टीवन को मार डाला था। इन दोनों वीरांगना बेटियों का नाम था शांति घोष और सुनीति चौधरी।
       जब केवल खेलने कूदने की अवस्था होती है उस अवस्था में इन दोनों वीरांगना बेटियों ने भारत के सम्मान की रक्षा कर भारत के क्रांतिकारी इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। जिससे अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि कांग्रेस और उसके नेता चाहे उनकी कितनी चाटुकारिता कर लें, पर भारत की आत्मा का प्रतिनिधि क्रांतिकारी आंदोलन उन्हें भारतवर्ष में चैन से नहीं रहने देगा। इन दोनों वीरांगना बेटियों ने यह सिद्ध किया कि भारत अपनी आजादी के लिए खड़ग और ढाल लेकर लड़ना जानता है और एक दिन उसी के आधार पर स्वाधीनता प्राप्त करके रहेगा।
     अमर बलिदानी भगत सिंह की फांसी का अपने पराक्रम के आधार पर प्रतिशोध लेने के लिए कृत संकल्प हो उठीं। इन वीरबालाओं ने 14 दिसम्बर 1931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट सी0जी0बी0 स्टीवन को गोली मार दी थी। यह एक अद्भुत संयोग ही था कि 14 वर्ष की इन वीरबालाओं ने अमर बलिदानी भगतसिंह की फांसी का प्रतिशोध लेने के लिए भी 14 के अंक की तिथि को ही चुना था। जब उनके इस पराक्रमी कार्य की जानकारी लोगों को हुई तो सभी आश्चर्यचकित रह गए थे। अंग्रेजों ने चाहे उस समय कुछ भी किया हो और चाहे जैसी भी कठोरता दिखाते हुए अपने मजबूत इरादों को प्रकट किया हो, पर सच यह था कि भीतर से वह कांप उठे थे। अभी तक उन्होंने भारत के 20 -30 वर्ष के युवाओं की गोलियों को चलते हुए देखा था, आज पहली बार उन्होंने देश की दो वीरबालों की रिवाल्वर से निकलने वाली गोलियों को भी देख लिया। जिससे उन्हें अब पता चल गया कि अब भारत में उनका रहना कठिन ही नहीं, असंभव हो चुका है।
       यह दोनों वीर बालाएं बहुत सुनियोजित ढंग से बुद्धिपूर्वक विचार करते हुए स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब के लिए प्रार्थना पत्र लेकर गईं। किसी को उन पर कोई सन्देह ना हो, इसलिए उन्होंने ऐसा किया। जैसे ही स्टीवन उनके सामने आया तो उनका क्रोध संभाले नहीं सम्भला। वह इसी राक्षस की प्रतीक्षा में थीं। अब सामने आए शिकार को वह अधिक अवसर देना उचित नहीं मान रही थीं। स्टीवन को अपने सामने आया देख वह चंडी बन चुकी थीं। दोनों ने पहले से ही निश्चित किए गए अपने कार्यक्रम के अनुसार अपनी जेब से रिवाल्वर निकाली और अपने शिकार पर ताबड़तोड़ हमला कर दिया। छोटी सी अवस्था में उनके द्वारा किया गया यह हमला इतना विचारपूर्वक किया गया था कि उनके शिकार को भागने का या बचने का तनिक भी अवसर उपलब्ध नहीं हुआ। ना ही यह दोनों वीर बालाएं तनिक भी घबराईं। उन्हें अपना शिकार शांत करना था और अब वह अपने उद्देश्य में सफल हो चुकी थीं। जब उनकी वीरता का यह समाचार ब्रिटेन पहुंचा तो अपने आपको ‘ग्रेट’ कहने चलाने वाला ब्रिटेन भीतर ही भीतर यह समझ गया था कि उसकी ‘ग्रेटनेस’ की सीमाएं कितनी हैं? और यह भी कि उसकी ‘ग्रेटनेस’ की सीमाओं को नापने वाले भारत में अनेकों वीर – वीरांगनाएं हैं।

शांति घोष के विषय में

       अपनी वीरता और शौर्य का परचम लहराने वाली शांति घोष का जन्म 22 नवम्बर 1916 को कलकत्ता में हुआ था।  उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष थे जो कि मूल रूप से बारीसाल जिले के थे और कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। श्री घोष बहुत ही राष्ट्रवादी विचारों के देशभक्त प्रोफ़ेसर थे। उनके संस्कार बेटी शांति घोष के भीतर भी प्रविष्ट हो चुके थे। यही कारण था कि बेटी ने बहुत छोटी अवस्था में वह बड़ा कार्य कर दिखाया जिसे करने के लिए कई बार लोगों के जीवन के बहुत से वर्ष व्यतीत हो जाते हैं।
      शांति की हस्ताक्षरित पुस्तक पर प्रसिद्द क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देवी ने लिखा “बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना”.. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा,” नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ..” इन सबके आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस उद्देश्य के लिए समर्पित किया। महापुरुषों की संगत जीवन को सुधारने और संवारने में बहुत अधिक सहायक हुआ करती है। शांति घोष को जिन महापुरुषों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ उन्होंने उसके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। आग के संपर्क में आकर लोहा भी आग ही बन जाता है। यद्यपि इसके लिए उसे पहले तपना पड़ता है । उसकी कठोर साधना उसे अग्नि के समान बना देती है और तब उसको छूना तक किसी के लिए असंभव हो जाता है । यही बात शांति घोष के विषय में कही जा सकती है।
    शांति घोष के भीतर देशभक्ति के उठते प्रवाह ने उसे देश भक्तों की संगति करने और देशभक्त संगठनों से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी प्रतिभा उन्हें शांत नहीं बैठने दे रही थी। तभी उन्हें सूचना प्राप्त हुई कि क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक सरदार भगतसिंह और उनके साथी सुखदेव व राजगुरु को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया है और कांग्रेस व कांग्रेस के नेता गांधी जी उस पर मौन साध गए हैं । देश के उन महान क्रांतिकारियों के बलिदान की सूचना ने शांति घोष को  भी बलिदान के लिए प्रेरित किया।  साथ ही उन्होंने उन महान नायकों की फांसी का प्रतिशोध लेने का संकल्प ले लिया।
       अभी वह फज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल की छात्रा ही थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से ‘युगांतर पार्टी’ में सम्मिलित हो गई जिससे कि उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता प्राप्त हो सके और क्रांतिकारियों का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध हो सके। क्रांतिकारी संगठन से जुड़ने के उपरांत शांति घोष ने क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लेना आरंभ किया। शांति घोष को अपना जीवन बलिवेदी पर निछावर करना था। समय बहुत तेजी से व्यतीत हो रहा था और वह भी अपने लक्ष्य को बहुत तेजी के साथ प्राप्त करना चाहती थी। इसी प्रकार उनके अमर बलिदान की कहानी में भी तेजी से पूर्ण हो जाना चाहती थी। कहने का अभिप्राय है कि सब कुछ बहुत जल्दी घटित हो जाना चाहता था।
   ऐसी ही देशभक्ति पूर्ण सोच और तैयारी के बीच अंत में वह दिन आ ही गया जिसकी शांति घोष को प्रतीक्षा थी।14 दिसम्बर 1931 को शांति घोष ने अपने साहस और शौर्य का परिचय देते हुए अपनी सहपाठी सुनीति चौधरी के साथ कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन को गोली मार दी। इसके पश्चात अंग्रेजों ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। जेल के दौरान उन्होंने अनेकों अमानवीय यातनाओं को सहा, परंतु अपनी देशभक्ति की भावना से तनिक भी इधर उधर नहीं हुई।
    इन दोनों वीरांगना बालाओं को उत्पीड़ित करते हुए ब्रिटिश सरकार ने जेल में भी अलग-अलग रखने का निर्णय लिया। इसके पीछे केवल एक ही उद्देश्य था कि इन दोनों को मानसिक आधार पर उत्पीड़न दिया जा सके और दु:खी होकर ये अपने मार्ग को परिवर्तित कर लें, परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने अपने पूरे कारावास में कहीं पर भी ऐसा आभास नहीं होने दिया कि वे जिस क्रांति मार्ग पर बढ़ रही थीं, वह उनके लिए अनुचित था। 28 मार्च 1989 को श्रीमती शांति घोष (दास) का स्वर्गवास हुआ। उस समय तक केंद्र में अधिकांश समय कांग्रेस का शासन रहा था इसलिए इस क्रांति पुत्री की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।

सुनीति चौधरी

   क्रांतिकारी विचारधारा में विश्वास रखने वाली दूसरी वीरांगना बाला सुनीति चौधरी के विषय में भी कुछ जानना आवश्यक है।  सुनीति चौधरी का जन्म 22 मई1917 को पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गाँव में एक साधारण हिंदू मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। असाधारण साहस और शौर्य की प्रतीक सुनीति चौधरी ने बचपन से ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया था। उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और माँ सुरससुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली महिला थी। माता और पिता दोनों ही पवित्र संस्कारों से ओतप्रोत थे। जिन्होंने अपनी बेटी सुनीति को भी बचपन से ही देशभक्ति के पवित्र संस्कार दिए। जिनका प्रभाव बालिका सुनीति पर पड़ा।
    सुनीति चौधरी के परिवार में देशभक्ति का परिवेश था । उनके दो भाई क्रांतिकारी विचारधारा के माध्यम से देश की अप्रतिम सेवा कर रहे थे। वह स्वयं स्कूल की छोटी कक्षाओं में जाकर जब क, ख,ग सीख रही थी, तब बड़ी कक्षाओं में कॉलेज के छात्र के रूप में उनके भाई क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे।  सुनीति को युगांतर पार्टी में उनकी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती कराया गया था। वास्तव में सुनीति के अपने संस्कार उन्हें यहां तक ले आए थे। क्योंकि वह स्वयं देशभक्ति की एक ज्वाला बन चुकी थी । भीतर के विचार ही बाहर की दुनिया का निर्माण करते हैं। कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयंसेवी कोर की कप्तान थी। उनके भीतर नेतृत्व की गजब की प्रतिभा थी जिसे देखकर उनसे आयु में बड़े लोग भी दंग रह जाते थे।
   छोटी सी अवस्था में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिली जब उनको गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया। उनके भीतर छुपी हुई प्रतिभा को पहचान कर उन्हें शांति घोष के साथ एक विशेष जिम्मेदारी देकर एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित किया गया। वास्तव में ऐसी जिम्मेदारी हर किसी को नहीं दी जाती। अवस्था चाहे उनकी छोटी थी पर बड़ी जिम्मेदारी दिए जाने से पता चलता है कि उनके भीतर निर्णय लेने और चुनौतियों से खेलने की अप्रतिम प्रतिभा थी।
उनके क्रांतिकारी संगठन के लोगों ने बहुत सोच समझकर यह निर्णय लिया था कि इन दोनों क्रांति बालिकाओं को अब देश के सामने प्रस्तुत कर देना चाहिए। क्योंकि ये जिस काम के लिए संसार में आई हैं उसे पूरा करने का समय आ गया है।
अपने उसी महान उत्तरदायित्व और जीवन के सबसे महत्वपूर्ण कार्य के संपादन के लिए इन दोनों वीर बालिकाओं ने भी मन बना लिया था। मिली हुई जिम्मेदारी की गंभीरता को वे भली प्रकार जानती थीं। इसलिए बहुत सुनियोजित ढंग से उन्होंने अपने लक्ष्य की साधना करनी आरंभ की । अन्त में 14 दिसंबर 1931 को वह घड़ी आ ही गई जब इन्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा देनी थी। छोटी अवस्था में इतनी बड़ी परीक्षा ? …. सचमुच यह उनके शौर्य और साहस को उनके संगठन का सबसे बड़ा उपहार था। कार्य के संपादन के पश्चात यह संगठन का उपहार न होकर राष्ट्र का उपहार बन गया। क्योंकि भारत माता ने अपने महान सपूतों भगतसिंह और उनके साथियों के बलिदान का प्रतिशोध लेने वाली इन दोनों वीर बालिकाओं पर पुष्प वर्षा कर सारे राष्ट्र की ओर से उनका सम्मान किया ।
  ये दोनों वीर बालिकाएं कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट सी0जी0बी0 स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब की अनुमति की याचिका लेकर गईं और जैसे ही स्टीवन सम्मुख आया उस पर अपनी रिवाल्वर से गोलियां बरसा दीं।
सुनीति की रिवाल्वर से निकली पहली गोली से ही वह मर गया। इसके बाद घटनास्थल पर अफरा-तफरी मच गई। यह दोनों वीर बालिकाएं घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर ली गईं। इनके चेहरे पर तनिक भी प्रायश्चित का भाव नहीं था। उनका मस्तक तेज से चमक रहा था और यह स्पष्ट संदेश दे रहा था कि मां भारती के किसी सपूत के साथ यदि अंग्रेजों ने भविष्य में भी कुछ गलत करने का साहस किया तो उसका भी परिणाम वही होगा जो आज स्टीवन का हुआ है। कांग्रेस की नपुंसकता और दोगला चरित्र अंग्रेजों की जिस काली करतूत की दो शब्दों में भी निंदा नहीं कर सका उसका प्रतिशोध इन दोनों बालिकाओं ने ले लिया। संपूर्ण देश में जिस किसी ने भी वीरता और शौर्य से भरी उनकी इस घटना के विषय में सुना उसने ही उनके साहसिक सौंदर्य को नमन किया।
गिरफ्तारी के पश्चात उन दोनों वीर बालिकाओं को अंग्रेजों ने बड़ी निर्दयता से पीटा। परंतु उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी। सारे दर्द को उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से सहा, क्योंकि उन्हें इस बात में बहुत ही अधिक आत्मसंतोष की अनुभूति हो रही थी कि उन्होंने सरदार भगतसिंह व उनके साथियों की फांसी का प्रतिशोध सफलतापूर्वक ले लिया था। वह एक संदेश देना चाहती थीं कि मां भारती की रगों में दौड़ रहा क्रांति का रक्त कभी ठंडा नहीं पड़ सकता। यहां यदि तीन क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी जाएगी तो अंग्रेज यह ना समझें कि उन्होंने क्रांति का अंत कर दिया है, क्योंकि तीन क्रांतिकारियों के बलिदान के पश्चात बलिदान देने वाले सैकड़ों – हजारों क्रांतिकारी निकलकर बाहर आएंगे। इस संदेश को देने में यह दोनों क्रांति बालिकाएं सफल हुईं। यही कारण था कि इस घटना के पश्चात वे चाहे जेल में रहीं या फिर न्यायालय में हाजिर की गईं हर स्थान पर उन्होंने अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति दी। बताया जाता है कि जेल में रहकर वह प्रसन्नता की अभिव्यक्ति देते हुए कुछ न कुछ गाती रहती थीं, हंसती रहती थीं।
   उन दोनों का सपना विवाह करने के पश्चात गृहस्थ की मौज मस्ती लेने का नहीं था। वह चाहती थीं कि देश सेवा करते हुए वह अमर बलिदानी की मृत्यु का वरण करें। पर समय और परिस्थितियों ने उनसे पहले ही वह कार्य करा दिया जिसके करने के पश्चात वह अमरता को प्राप्त हो गईं। कांग्रेस और कांग्रेसी नेताओं की दृष्टि में वे उस समय एक आतंकवादी थीं। क्योंकि उन्होंने आतंकवादियों की फांसी का प्रतिशोध लेने का कार्य करके एक बड़ा अपराध किया था। कांग्रेसियों की दृष्टि में उससे भी बड़ा अपराध उन्होंने एक अंग्रेज को मारकर किया। यही कारण रहा कि कांग्रेस के शासनकाल में उन्हें वह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका , जिसकी वह पात्र थीं।
  जब सुनीति चौधरी का अंतिम समय आया तो उस समय भी देशभक्ति का भाव उनके भीतर उसी प्रकार बना हुआ था जैसा उन्होंने अंग्रेज अधिकारी को मारते समय प्रकट किया था। स्वाधीनता के साथ उन्होंने जो गठबंधन किया था अपने उस गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए उन्होंने अंतिम सांस ली थी। कवि नाज़ुरल के प्रसिद्ध गीत “ओह, इन लोहे की सलाखों को तोड़ दो, इन कारागारों को जला दो..” को गाते हुए.. 1994 में सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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