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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

वीर हरपाल देव का स्वतंत्रता आंदोलन एवं खुसरू खां की ‘हिन्दू क्रान्ति’

veer harpal devएक का उठना एक का गिरना
ये खेल निरंतर चलता है।
नीति पथ के अनुयायी को जग में मिलती सच्ची सफलता है।।
पथ अनीति का अपनाये जो,
वह कागज के सम गलता है।
कालचक्र जब घूमकर आये,
तब चलती नही चपलता है।।
अलाउद्दीन खिलजी ने निश्चित रूप से दिल्ली की सल्तनत को विस्तार दिया था। पर उसने दिल्ली सल्तनत को फैलाने में हिन्दू द्वेष की नीति पर कार्य किया था, और उसके लिए क्रूरता को एक हथियार भी बनाया था। निस्संदेह विद्वेष भाव, और क्रूरता का मार्ग अनीति का मार्ग होता है, और अनीति कभी भी व्यक्ति को स्थायी सफलता प्रदान नही करा सकती।
ये मेला है बस दो दिन का
कुछ ले चलिये कुछ दे चलिये।
यहां दिल की हुकूमत रहती है,
सुल्तान बदलते रहते हैं।।
संसार प्रेम से, प्रेम के द्वारा, प्रेम के लिए बना है, यह प्रेम लोक से, लोक के द्वारा, लोक के लिए मिलता है। प्रेम और लोक जहां मिलकर नई सृजना करते हैं वहीं लोकतंत्र होता है। जहां प्रेम के स्थान पर घृणा और लोक के स्थान पर सम्प्रदाय आ जाते हैं, वहां  उग्रवाद आ जाता है, जिससे सृजना न होकर केवल विध्वंस होता है। इसलिए भारतीय ऋषियों ने सृजना के लिए प्रेम और लोक का समन्वय स्थापित किया और लोकतंत्र को वैश्विक व्यवस्था का मूल आधार स्वीकार किया। यही कारण रहा कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था युग-युगों तक  प्रेमपूर्वक  विश्व पर शासन करती  रही।
हिन्दू वीर रामदेव राय और अलाउद्दीन खिलजी
बड़ा परिश्रम  करके अलाउद्दीन ने अपना साम्राज्य देवगिरि तक फैलाया था।  देवगिरि के राजा देव राय ने अलाउद्दीन की सेना को भारी क्षति पहुंचाई  थी, परंतु वह हिन्दू वीर  अलाउद्दीन की सेना का  अधिक देर तक सामना नही कर पाया था। फलस्वरूप युद्घ में रामदेव राय की पराजय हो गयी।
रामदेव राय को पराजय के उपरांत आत्मग्लानि और लज्जा भरी पीड़ा ने आ घेरा था, और वह हिंदू देशभक्त राजा स्वतंत्रता को खो देने के शोक को झेल नही पाया, फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी।
…स्वतंत्रता संघर्ष जारी रहा
उसकी मृत्यु के उपरांत देवगिरि की देशभक्त जनता ने स्वतंत्रता का युद्घ जारी रखा। लोग राजा रामदेव राय के जामाता के नेतृत्व में एक होते गये और खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए सभी सामूहिक रूप से प्रयासरत रहे। राजा के जामाता हरपाल देव ने देवगिरि को प्राप्त करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया और राज्य की प्रजा ने उसकी क्षमताओं पर विश्वास करते हुए उसे अपना ‘नायक’ स्वीकार किया।
हरपाल देव ने दिखाई अपनी वीरता
ऐसी परिस्थितियों में हरपाल देव ने देवगिरि पर साहसिक आक्रमण कर दिया। अलाउद्दीन  के द्वारा जिस मुस्लिम को दुर्गपति नियुक्त किया गया था, उसने ऐसे प्रबल आक्रमण की आशा कभी भी रामदेवराय के किसी नाती संबंधी से नही की थी। इसलिए वह विलासिता पूर्ण जीवन जी रहा था, और उसे कोई खटका भी नही था कि हिंदू देशभक्त अपनी स्वतंत्रता के लिए इतने प्रबल आवेग के साथ आक्रमण कर सकते हैं।
देवगिरि रंग गया हिन्दुत्व के रंग में
जब मुस्लिम दुर्गपति ने अचानक हरपालदेव राय के आक्रमण का सामना किया तो उसके युद्घ में शीघ्र ही पांव उखड़ गये, वह कुछ देकर के संघर्ष के पश्चात ही युद्घ भूमि से भाग लिया उसका साहस टूट गया और अपने प्राणों की भीख मांगता हुआ वह गद्दी छोड़कर भाग गया। फलस्वरूप देवगिरि पर पुन: हिंदू केसरिया ध्वज लहरा उठा। सारा देवगिरि हिन्दुत्व के रंग में रंग गया।
हरपाल देव ने सारे धर्म स्थलों को पवित्र कर उनमें पुन:  प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। अलाउद्दीन को जब यह सूचना मिली कि देवगिरि पर पुन: हिंदुओं का अधिकार हो गया है, तो वह गिरते स्वास्थ्य के कारण केवल हाथ मलकर रह गया।
नये मुसलमानों का स्वतंत्रता संग्राम
अलाउद्दीन  के समय में जो हिंदू मुसलमान बन गये थे, उन्हें नया मुसलमान कहा जाता था। इन नये मुसलमानों के साथ एक समस्या थी कि उन्हें मुस्लिम लोग इनके मुस्लिम बन जाने पर भी घृणा की दृष्टि से देखते थे, जिससे  उन्हें इस स्थिति में अपमान सा अनुभव होता था। वैसे भी मुस्लिम समाज के रीति रिवाज उन्हें रास नही आ रहे थे। यद्यपि हिंदू समाज की पाचन शक्ति (अर्थात नव मुसलमानों को अपने साथ सहजता से मिला लेने की क्षमता) भी अच्छी नही थी। परंतु इसके उपरांत भी इन नव मुसलमानों को अपना धर्म ही अच्छा लगता था। इसलिए दिल्ली के मुगलपुरा क्षेत्र के नये मुसलमानों ने सुल्तान के विरूद्घ स्वतंत्रता का बिगुल फूंक दिया। जब अलाउद्दीन को इन नव मुसलमानों के इस प्रकार के आचरण की जानकारी मिली तो उसने इन नव मुसलमानों का क्रूरता से दमन आरंभ कर दिया। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी मृतकों की संख्या 30-40 हजार बतायी है।
यह मानवता की हत्या थी, क्योंकि इतिहास में जब व्यक्ति संवदेना शून्य होकर कार्य करता है, तो वह कार्य मानवता के विरूद्घ अपराध की श्रेणी में आता है। नये मुसलमानों के इस नरसंहार पर सुल्तान ही नही, अपितु उसके मजहबी भाई भी पूर्णत: संवेदनशून्य हो गये थे, कदाचित ये लोग हिन्दुओं की भी घृणा के पात्र थे। इसलिए जब चालीस हजार लोगों की लाशें गली मौहल्लों में कागज के पत्तों की भांति बिखरी पड़ी थीं, तो हिंदू या मुसलमान कोई भी उन्हें उठाने वाला नही बन रहा था। हिंदू उन्हें इसलिए नही अपनाना चाहते थे, कि वे इस्लाम ग्रहण कर चुके थे और मुसलमान उन्हें इसलिए नही उठा रहे थे कि वे इस्लाम भक्त नही रह गये थे। यह घटना 1303 ई. की है। अलाउद्दीन ने दिल्ली की उपनगरी मुगलपुरा केे दुर्ग में मुस्लिम सैनिक रखकर झालोर राज्य परिवार के मालदेव को गद्दी पर बैठा दिया।
स्वतंत्रता चाहते थे नव मुसलमान
वैसे नव मुसलमानों का विद्रोह अपने लिए स्वतंत्रता का मार्ग अपनाना था जो कि व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। परंतु सुल्तान की दृष्टि में स्वतंत्रता का मार्ग अपनाना एक अपराध था। हिंदू दृष्टिकोण और विदेशियों के दृष्टिकोण में ये ही अंतर है कि हिंदू व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का समर्थक है, जबकि विदेशी इन अधिकारों को सदा ही निहित स्वार्थों से देखते और व्याख्यायित करते रहे हैं।
कैसे कुचला गया आंदोलन
इन नव मुसलमानों के साथ स्वतंत्रता संग्राम को किस निर्ममता और निर्दयता से अलाउद्दीन ने कुचला, इसकी जानकारी हमें तारीखे फिरोजशाही से मिलती है। वहां लिखा है कि सुल्तान ने आदेश दिया कि राज्य के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जिस-जिस स्थान पर नव मुसलमान हों, उनकी एक ही दिन इस प्रकार हत्या कर दी जाए कि इसके उपरांत एक भी नव मुसलमान पृथ्वी पर जीवित न बच पाये। उसके आदेशानुसार जो कि निंकुशता तथा अत्याचार से भरा था, 20-30 हजार नव मुसलमानों की, जिनमें से अधिकांश को किसी बात की सूचना तक न थी, हत्या कर दी गयी। उनके घर बार विध्ंवस कर दिये गये, उनके स्त्री बच्चों का विनाश कर दिया गया।”
नव मुसलमानों के साथ इतनी क्रूरता केवल इसलिए अपनायी गयी कि वे मूलरूप में हिंदू थे। यदि इन नव मुसलमानों ने अपनी स्वतंत्रता की योजना भारतमाता को गुलामी के बंधनों से मुक्त कराने के लिए बनायी थी, तो ये सारे के सारे भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मध्यकालीन सैनिक ही हैं, जिन्हें तत्कालीन ‘डायर’ ने अपने एक आदेश से समाप्त करा दिया। हम उनका वंदन करते हैं।
अलाउद्दीन की क्रूरता भरी अन्याय परक नीतियों से उपजे ‘हिन्दू संग्राम’ में आयी तेजी के परिणामों की ओर संकेत करते हुए डा. के. एस लाल ने लिखा है-”राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही देश, प्रेम और सम्मान के लिए मर मिटने वाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नही किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी प्रकार जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने-अपने परिवार को मुक्त कराना चाहिए। जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता, वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर चित्तौड़ उसके जीवनकाल में आधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र पश्चात ही स्वतंत्र हो गया।  कारण स्पष्ट था कि यहां (स्वतंत्रता प्रेमी) जन्मजात योद्घाओं की इस वीर-भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध सदा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वमान्य सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा और अनवरत संघर्ष किया था।”
अलाउद्दीन हिंदू विद्वेष की नीति पर चलकर विश्व विजेता सिकंदर बनना चाहता था, पर वह हिंदू प्रतिरोध के चलते ‘भारत विजेता’ भी नही बनने पाया। इसे आप उसकी सफलता कहेंगे या असफलता?
कितने आतंकित थे हिंदू
अपने धर्म, स्वतंत्रता और स्वदेश के  प्रति पूर्णत: समर्पित हिन्ंदुओं को अलाद्दीन के कितने अत्याचारों का सामना करना पड़ा? इसके लिए हम यहां कुछ समकालीन इतिहास लेखकों को उद्र्घत कर रहे हैं, जिन्हें पढ़कर आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि इतने अत्याचारों को सहन करने वाली आर्य हिन्दू-जाति कितनी सहनशील और धर्मपे्रमी रही है, उसकी वीरता अनुपम और अद्वितीय है, क्योंकि इतने अत्याचारों का प्रतिकार करते-करते वह थकी नही और प्रतिकार उपचार ही ढूंढ़ती रही।
प्रसिद्घ मुस्लिम लेखक अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे इलाही’ में लिखा है-”हमारे पवित्र सैनिकों की तलवारों केे कारण सारा देश ही एक दावा अग्नि के कारण कांटों रहित जंगल जैसा हो गया है। हमारे सैनिकों की तलवारों के तीरों के कारण हिंदू अविश्वासी भाप की तरह समाप्त कर दिये गये हैं, हिन्दुओं में शक्तिशाली लोगों को पांवों तले रौंद दिया गया है। इस्लाम जीत गया है, मूत्र्ति पूजा हार गयी है, दबा दी गयी है।”
हिन्दू पुरूष मुसलमानों के लिए क्रय विक्रय की वस्तु बन कर रह गयी थी। अमीर खुसरो ही लिखता है-”तुर्क जब चाहते थे, हिंदुओं को पकड़ लेते क्रय कर लेते या बेच देते थे।”
जिस आर्य-हिन्दू ने ऐसी अमानवीय दासता का नाम तक न सुना हो उसे वह कैसे सहन कर सकता था?
काजी ने बताया हिंदू के लिए कानून
‘तारीखे फिरोजशाही’ का लेखक बरनी हमें बताता है कि-”एक सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने काजी से पूछा कि इस्लामी कानून में हिंदुओं की क्या स्थिति है? काजी ने उत्तर दिया-”ये भेंट कर देने वाले लोग हैं और जब आप अधिकारी इनसे चांदी मांगे तो इन्हें बिना किसी, कैसे भी प्रश्न के, पूर्ण विनम्रता व आदर से सोना देना चाहिए।  यदि अधिकारी इनके मुंह में धूल फेंके तो इन्हें उसे लेने केे लिए मुंह खोल देना चाहिए। इस्लाम की महिमा गाना इनका कत्र्तव्य है….अल्लाह इन पर घृणा करता है, इसीलिए वह कहता है, ”इन्हें दास बनाकर रखो।” हिन्दुओं को नीचा दिखाकर रखना एक धार्मिक कत्र्तव्य है, क्योंकि हिन्दू पैगंबर के सबसे बड़े शत्रु है, (कु. 8:55) और चूंकि पैगंबर ने हमें आदेश दिया है कि हम इनका वध करें, इनको लूट लें, इनको बंदी बना लें, इस्लाम में धर्मान्तरित कर लें या हत्या कर दें, (कु. 9:5) इस पर अलाउद्दीन ने उस काजी से कहा-”अरे काजी! तुम तो बड़े विद्वान आदमी हो कि यह पूरी तरह इस्लामी कानून के अनुसार ही है कि हिंदुओं को निकृष्टतम दासता और आज्ञाकारिता के लिए विवश किया जाए….हिंदू तब तक विनम्र और दास नही बनेंगे जब तक इन्हें अधिकतम निर्धन न बना दिया जाए।” (संदर्भ : तारीखे फिरोजशाही-बरनी अनु. इलियट एण्ड डाउसन, खण्ड तृतीय पृष्ठ 184-85)बरनी हमें बताता है कि सुल्तान अलाउद्दीन की क्रूरता और कठोरता के कारण हिंदू महिलाएं और बच्चे मुसलमानों के घर भीख मांगने के लिए विवश थे। (संदर्भ : ‘तारीखे फिरोजशाही’ और ‘फतवा ए-जहांदारी’ इलियट, एण्ड डाउसन खण्ड तृतीय)
बरनी से ही हमें पता चलता है कि-”घर में काम आने वाली वस्तुएं जैसे गेंहूं, चावल, घोड़ा और पशु आदि के मूल्य जिस प्रकार निश्चित किये जाते हैं, अलाउद्दीन ने बाजार में ऐसे ही दासों के मूल्य भी निश्चित कर दिये थे। एक लड़के का मूल्य 20-30 तन्काह तय कर दिया गया था, किंतु उनमें से अभागों को मात्र 7-8 तन्काह में ही खरीदा जा सकता था। दास लड़कों का उनके सौंदर्य और कार्यक्षमता के आधार पर वर्गीकरण किया जाता था, काम करने वाली लड़कियों का मानक मूल्य 5-12 तन्काह, और सुंदर उच्च परिवार की लड़की का मूल्य 20-40 तन्काह और सुंदर उच्च परिवार की लड़की का मूल्य एक हजार से लेकर दो हजार तन्काह होता था। (हिस्ट्री ऑफ खिलजी: के.एस. लाल)
समकालीन और इतिहास लेखकों के इस वर्णन से स्पष्ट है कि हिंदुओं के लिए दासता का अर्थ क्या था? ऐसे अमानवीय अत्याचारों को देखकर कठोर हृदय भी पिघल जाएगा, परंतु  हमारे पूर्वजों ने उस समय इन्हें झेला था, और अपना धर्म बचाया था। इन कष्टों के बीच रहकर भी स्वतंत्रता संघर्ष को चलाना कितना साहसिक कार्य था-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
हमारा कत्र्तव्य है कि-…..
ऐसी परिस्थितियों में हमारा कत्र्तव्य है कि हम अपने महान पूर्वजों के बलिदान की प्रशस्ति लिखने वाला इतिहास पढ़ें, लिखें और सुनें। प्रशस्ति योग्य लोगों की निंदा बहुत हो चुकी, अब तो प्रशस्ति लेखन की बेला है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-
”जो कुछ भी हो उन्होंने (विदेशी इतिहासकारों ने भारत का इतिहास लिखकर) हमारा मार्गदर्शन किया है किहमारे प्राचीन इतिहास के शोध के लिए किस प्रकार अग्रसर हुआ जाए? अब यह हमारे लिए है कि हम अपने  लिए ऐतिहासिक शोध का अपना स्वतंत्र मार्ग निकाल लें। हम वेदों, पुराणों और अन्य भारत के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें, और उनमें से जीवन की साधना कर, उचित, सही हृदय प्रेरक देश का इतिहास निर्माण करें। यह भारतीयों का ही कत्र्तव्य है कि वे अपना इतिहास स्वयं लिखें।”
इसी संदर्भ में योगी अरविंद कहते हैं-
”हमें अपने बच्चों के कानों में उनके बचपन से ही देश के भाव भर देने हैं, और हर बार उनके संपूर्ण युवक जीवन को, गुणों के अभ्यास का एक पाठ बना देना है, जिससे कि वे भविष्य में देशभक्त और अच्छे नागरिक बन जाएं। यदि हम ऐसा प्रयास नही करते तो हमें भारतीय राष्ट्र के निर्माण के  विचार को ही पूर्णत: त्याग देना चाहिए। क्योंकि ऐसे अनुशासन के अभाव में राष्ट्रवाद देशभक्ति पुनर्निमाण केवल शब्द मात्र ही रह जाएंगे।”
योगी अरविंद अन्यत्र कहते हैं-”आध्यात्मिक विकास (विस्तार) की इच्छा से ही शारीरिक विकास एवं विस्तार प्रारंभ होता है, और इतिहास इस आग्रह का साक्षी है। तब भारत ही विश्व की ऐसी महान शक्ति क्यों बने? विश्व के ऊपर आध्यात्मिक विजय को विस्तीर्ण करने का भारत के अतिरिक्त किसे विरोध रहित अधिकार है?….अपनी आध्यात्मिकता की महानता की सर्वशक्तिशाली भावना के द्वारा  भारत को अपनी महानता का पुन: ज्ञान कराया जा सकता है। यह महानता की भावना ही संपूर्ण देशभक्ति का प्रमुख पोषक है।”
धर्मांतरित हिन्दू उच्च पदाधिकारियों का विद्रोह
हमने पूर्व में नव मुस्लिमों के स्वतंत्रता संघर्ष की बात कही है, कि किस प्रकार उन लोगों ने मुस्लिम सुल्तानों के विरूद्घ जिस विद्रोह का झण्डा उठा लिया था? अब अलाउद्दीन की मृत्यु (1306 ई.) के पश्चात कुछ उच्च पदाधिकारी धर्मांतरित मुस्लिमों ने भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। इनमें प्रमुख था गुजरात प्रांत का शासक हिसामुद्दीन। कुुतुबुद्दीन खिलजी के शासनकाल में उसने मुस्लिम क्रूरता से दुखी होकर स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया। वह एक अपहृत हिंदू लड़का था, जिसे कितनी ही बार बेंतों से बड़ी निर्ममता से पीटा गया था। उसने गुजरात में अपने हिंदू समर्थकों को साथ मिलाकर स्वतंत्रता  की घोषणा कर दी। परंतु उसकी योजना फलीभूत नही हो सकी और उसे गिरफ्तार करके मुस्लिमों ने दिल्ली भेज दिया।
इसी प्रकार धर्मांतरित खुसरू खां सदा हिंदुस्तान के मुस्लिम अपहरण एवं विध्वंस का प्रतिशोध लेने का अवसर खोजता रहता था।
इसलिए उसने दिल्ली से दूर (मालाबार प्रदेश) होने का लाभ उठाना चाहा। उसने कुछ अन्य धर्मांतरित सरदारों से जिन्हें दमन, पीड़ा और यंत्रणा ने मुसलमान बनाया था, तथा कुछ मुसलमानों से जो अपनी कुछ मांगों के कारण सुल्तान से नाराज थे, बातचीत करनी आरंभ कर दी। इन लोगों में से चंदेरी के मलिक तमार मलिक तलबाधा याघद तथा मलिक अफगान के पास यथेष्ट सेना थी।
इन तीनों ने (स्वतंत्रता के लिए किये जाने वाले विद्रोह से पूर्व ही) खुसरू खां से जलकर सुल्तान का कृपापात्र बनने के लिए सुल्तान के कान भरने आरंभ कर दिये।”
सुल्तान ने इन तीनों की ही बात पर विश्वास नही किया और उन्हें दंडित और कर दिया। अत: खुसरू खां के प्रयास धीरे-धीरे निरंतर जारी रहे। उसने कितने ही गुजरातियों को महत्वपूर्ण पद प्रदान कर दिये।
खुसरू खान की योजना रंग दिखाने लगी
इन लोगों की संख्या वृद्घि होने पर शक्ति में भी वृद्घि होने लगी। ये लोग रात्रि में महल में प्रवेश करते और खुसरू खां से मिलते तब इन्हें एक दिन काजी जियाद्दीन ने देख लिया और सुल्तान से इनकी शिकायत करनी चाही तो हिंदू देशभक्तों ने कई मुस्लिमों को रात्रि में मार डाला।
उस समय कहते हैं, खुसरू खां सुल्तान के पास था, सुल्तान ने काजी की चीख सुनी तो पूछा कि क्या हो गया है? जब खुसरू ने कह दिया कि कुछ घोड़े रस्सा तुड़ाकर भाग रहे थे, उन्हें पकड़कर बांधा जा रहा है।
हिंदू वीर जाहरिया इसी समय अपने सैकड़ों गुजराती हिंदूवीरों के साथ सुल्तान के महल में आ धमका। सुल्तान भयभीत हो गया। वह अपने हरम की ओर भागने को ही था कि खुसरू ने उसे बालों से पकड़ा और धरती पर पटक मारा। जाहरिया ने नीचे पड़े सुल्तान का सिर अपने भाले से उतार दिया।
पी.एन. ओक महोदय लिखते हैं-”इसके पश्चात वीर हिंदू महल और झरोखें से सभी कांटों को, जिन्होंने चुभने का दुस्साहस किया, उखाड़ फेंका और सफाई अभियान में लग गये। मशालें जला लीं, और सुल्तान के सिर विहीन शरीर को गैलरी के बाहर नीचे प्रांगण में फेंक दिया, सुल्तान के अंगरक्षक भयभीत होकर अपने-अपने घर अपनी-अपनी पत्नियों के बुरकों में छिप गये। अनेक हिन्दू नारियों को सुल्तान और अन्य  मुसलमानों ने शीलहीन कर अपने-अपने शयनागारों में सजा रखा था, उन्हें एक बार फिर स्वतंत्रता की मुक्त सांस लेने केे लिए मुक्त कर दिया गया था।
दिल्ली को करा लिया स्वतंत्र
अपहृत और असहाय ंिहन्दू नारियों पर अत्याचार करने वाली अलाउद्दीन की एक कुख्यात विधवा भागना चाह रही थी, तो उसे पकड़कर उसका सिर कलम कर दिया गया। यह घटना 1320 ई. की है। जब एक हिन्ंदू वीर ने अपनी योजना के अंतर्गत दिल्ली से सल्तनत को समाप्त कर देने में सफलता प्राप्त की। खुसरू खां के साथी सभी हिंदू थे, और वह हिंदू स्वतंत्रता के लिए कार्य भी कर रहा था, जब वह सुल्तान बना तो गुजरात की राजकुमारी देवल देवी उसकी रानी बनी।
खुसरू की अगली योजना अपने देश को मुस्लिम शासन से मुक्त कराने की थी। ऊपर से उसने नासिरूद्दीन की उपाधि ग्रहण कर ली थी। परंतु उसका ध्येय कुछ और भी था। जिसे यह सुल्तान सिरे नही चढ़ा पाया, क्योंकि वह एक युद्घ में सेना के हाथों शीघ्र ही वीरगित प्राप्त हो गया था।
बरनी ने इस सुल्तान के विषय में लिखा है-‘अपने सिंहासनारोहण के पांच ही दिन के भीतर उस तुच्छ तथा पतित ने महल में मूर्ति पूजा आरंभ करा दी।
हिंदुओं ने अपने अधिकार के नशे में कुरान का कुर्सी के स्थान पर प्रयोग करना आरंभ कर दिया। मस्जिद की ताकों में मूर्तियां रख दी गयीं, और मूर्ति पूजा होने लगी।…हिंदू समस्त इस्लामी राज्य में उत्पात मचा रहे थे। देहली में पुन: हिंदुओं का राज्य स्थापित हो गया। इस्लामी राज्य का हो गया अंत।”
इस हिंदू क्रांति को इतिहास से कितनी सावधानी से निकाल दिया गया है, यह देखकर दु:ख होता है।
इस खुसरू की हत्या करके ही गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।

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