पूर्वोत्तर भारत और महाभारत का सम्बन्ध


डॉ. सुधा कुमारी

भारत का पूर्वोत्तर हिस्सा जो सात राज्यों का समूह है, मुख्य भाग से काफी दूर माना जाता है। आज की तारीख में इस हिस्से में भेजा जानेवाला व्यक्ति थोड़ा असहज महसूस करेगा और इतनी दूर जाने से हिचकेगा। किन्तु यहाँ प्रवास करनेवाले को धीरे धीरे मालूम होता है कि यह भाग प्राचीन भारत से कितना जुड़ा हुआ था।प्राचीन कथाएँ इसका बयान करती हैं। विशेष रूप से महाभारत काल की कई यादें यहाँ से जुड़ी हुई हैं। पांडवों ने इस हिस्से में प्रवास किया था और महाबली भीम ने हिडिम्बा नामक युवती से विवाह किया था। हिडिम्बा आसाम के बोड़ो जनजाति की सुंदर लड़की थी और भीम एक वर्ष तक यहाँ वास कर पुत्र के जन्म के उपरांत वापस चले गए। यह इतिहास का दुखद हिस्सा है। ऊपर से हिडिम्बा और हिडिम्ब को राक्षस जाति का बताकर आर्यावर्त्त ने उस दुखी पत्नी के साथ कोई न्याय नहीं किया। उनका पुत्र घटोत्कच भी महाभारत युद्ध में पिता की ओर से लड़कर वीरगति को प्राप्त हो गया। इस जनजाति में कुछ समुदाय यज्ञ भी करते हैं। वे ब्रह्म में विश्वास करते है और हिडिम्बा देवी को अपने पूर्वज के रूप में पूजते हैं। बोड़ो जनजाति का यह क्षेत्र बांगलादेश से अवैध घुसपैठ के कारण उपद्रव ग्रस्त रहा है। दूसरी ओर, इस क्षेत्र में तेज बहती पहाड़ी नदियों ने मिट्टी कटाव और साथ में लाए हुए पत्थरों के जमाव के कारण काफी नुकसान पहुँचाया है।

बोड़ो जनजाति की भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इनमें कई लोग साहित्य में अत्यंत प्रतिभाशाली, हस्त शिल्पकार, कलाकार एवं खेल-कूद में अव्वल हैं। इनका क्षेत्र हस्तकला एवं कपड़े की उत्कृष्ट बुनाई के लिए प्रसिद्ध है और यहाँ की वस्त्रकला में सुंदर रंगों का प्रयोग किया जाता है। वैसे तो पूर्वोत्तर के हर राज्य में सूती वस्त्र की हथकरघा निर्मित सुन्दर कलात्मक पोशाकें बनती हैं। मगर आसामी रेशम की हथकरघा निर्मित कलात्मक पोशाकें पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा पूरे भारत में विख्यात हैं। भारत के दूसरे राज्यों में भी आसाम का बना पाट रेशम और एरी रेशम काफी प्रचलित है। एरी रेशम बनाने की विधि को अहिंसक माना जाता है क्योंकि इसमें रेशम का कीड़ा नहीं मरता। हाँ, यह रेशम थोड़ा मोटा अवश्य होता है।

आसाम में तेजपुर का नाम सभी ने सुना होगा। तेजपुर में सैनिक छावनी है। पुराने समय में यहाँ नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एरिया (नेफा) का मुख्यालय रहा है। भौगोलिक दृष्टिकोण से आसाम को अपर आसाम (अरुणाचल प्रदेश से आसाम में प्रवेश करने वाला ब्रह्मपुत्र घाटी का पहाड़ी भाग ), मिडल आसाम ( ब्रह्मपुत्र घाटी का मध्य भाग ) और लोअर आसाम ( ब्रह्मपुत्र घाटी का आसाम से बांग्लादेश जाने वाला समतल भाग ) के रूप में देखा जाता है। ब्रह्मपुत्र अपर आसाम से प्रवेश करता है और लोअर आसाम में धुबरी होते हुए बांगला देश में पदमा नदी बनकर चला जाता है।

गुवाहाटी से 2 घंटे की दूरी पर स्थित तेजपुर शोणितपुर जिले का मुख्यालय है और ब्रह्मपुत्र के मध्य भाग पर यानी मध्य आसाम में अवस्थित है। चाय के बगान मध्य आसाम से अपर आसाम तक पाए जाते हैं। तेजपुर से चाय बगान और फैक्ट्रियाँ शुरू हो जाती है।आर्य कथाओं के अनुसार, तेजपुर की जनजाति के राजा बाणकी पुत्री उषा ने स्वप्न में श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध को देखा और मोहित हुई। उसकी सहेली चित्रलेखा ने उसके वर्णन करने पर अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उसे हरण करके तेजपुर लाई जहाँ अनिरुद्ध ने भी उषा को पसंद किया। पर उनका विवाह आसान नहीं था। यहाँ श्रीकृष्ण की राजा बाण से लड़ाई हुई। इस युद्ध में श्रीशिव ने बाण राजा का साथ दिया। फिर काफी मुश्किल से युद्ध को रोका गया।उसके बाद अनिरुद्ध का विवाह उषा से हुआ। उस खूनी युद्ध की छाया शोणितपुर और तेजपुर के नाम पर पड़ी है। असमिया भाषा में ‘तेज’ का अर्थ ‘रक्त’ होता है और संस्कृत में शोणित का अर्थ भी ‘रक्त’ होता है।

उषा और चित्रलेखा की स्मृति दिलाता सुंदर उद्यान तेजपुर में चित्रलेखा पार्क कहलाता है जहाँ ऊँचे – ऊँचे तालवृक्षों की कतार है, छोटी- सी झील है और महाभारत कालीन समय का एहसास कराते पुराने चट्टानों के अवशेष हैं।यहाँ से थोड़ी दूर पर तेजपुर में ही अग्निगढ़ नामक एक सुंदर उद्यान है जो एक टीले पर स्थित है। यहाँ सीढ़ियों से ही जाया जा सकता है।यहाँ पर उषा को कैदकर रखा गया था क्योंकि आर्य जाति और जनजाति – दोनों ही उषा और अनिरुद्ध के विवाह के विरुद्ध थे।उस स्थिति को दर्शाती हुई मूर्तियाँ हर जगह लगी हुई हैं।

आसाम में गुवाहाटी शहर में जहाँ नीलाचल पर्वत पर देवी कामाख्या का निवासहै, वहाँ नरक नामक असुर का पर्वत बताया जाता है। यहाँ श्री कृष्ण ने उससे युद्ध किया और मार दिया था। कारण यह बताया जाता है कि वह एक असुर था, सोलह हजार कन्याओं को अपहरण कर बंदी बना चुका था और उनसे विवाह करनेवाला था।उन कन्याओं ने मुक्ति के बाद पिता के घर जाने से इन्कार किया क्योंकि कई वर्ष पूर्व अपहरण होने से घर का पता भूल गई थीं और नरकासुर की बंदिनी को पिता के घर सम्मान मिलना सुनिश्चित नहीं था।कृष्ण ने उन सभी कन्याओं से विवाह किया और द्वारका ले गए।आश्चर्य की बात है कि उन सोलह हजार कन्याओं में से किसी के घरवालों ने ढूँढा या नहीं, कृष्ण से विवाह के बाद भी वे कभी अपनी कन्याओं से मिलने आए या नहीं, इसका कुछ भी पता नहीं है।कृष्ण ने अपनी दैवी शक्तियों का प्रयोग किया होता तो वे सभी लड़कियाँ पिता के घर ससम्मान लौट सकती थीं।

आर्यावर्त्त की प्राचीन कथाओं में राजा बाण को असुर कहा गया है जबकि वह तेजपुर की जनजाति के राजा थे।उत्तर भारत के प्रसिद्ध हिंदी कवि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने लिखा है :

‘बानासुर की सैन को, हनन लगे भगवान।’

यह असुर शब्द का प्रयोग ठीक नहीं।राजा बाण, नरक, बोडो जनजाति के राजकुमार हिडिम्ब और हिडिम्बा- यहाँ तक कि दक्षिण भारत के दानवीर राजा बलि को भी – इन्हीं शब्दों से संबोधित किया गया है।शायद आर्यों ने अपने सभी विपक्षी समुदायों और शत्रुओं के लिए ‘अनार्य’ उपाधि के साथ – साथ ‘असुर’, ‘दैत्य’ और ‘राक्षस’ – शब्दों का अनिवार्य रूप से प्रयोग किया था और अपनी लोक कथाओं में आवश्यकता के अनुसार उनके सींग – पूँछ भी उगा दिए थे।वर्ना धरती पर डायनासोर जैसे दैत्य तो मनुष्य के जन्म से बहुत पहले ही समाप्त हो चुके थे।

कृष्ण और भीम के बाद अर्जुन का जिक्र आता है। अर्जुन शिवजी को प्रसन्न कर पाशुपत अस्त्र पाने के लिये पूर्वोत्तर के जंगलों में तपस्या करने आए थे।शिव ने किरात (भील) के रूप में उनसे युद्ध कर परीक्षा ली और फिर प्रसन्न होकर पाशुपत अस्त्र प्रदान किया।अर्जुन का संबंध मणिपुर से बताया जाता है। वहाँ की राजकुमारी चित्रांगदा से अर्जुन ने विवाह किया था और एक पुत्र को जन्म भी दिया था। पर उसे अपने साथ नहीं ले गए और उनका वह पुत्र मणिपुर में माता के साथ ही रहा। आर्यकथाओं में इससे आगे का उल्लेख नहीं किया गया हैं। किन्तु मणिपुरी नृत्य में और वहाँ के एक समुदाय ( मेईटी ) की जीवन शैली और नृत्य – कला में महाभारत काल और कृष्णभक्ति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।

महाभारत में परशुराम का भी जिक् रहुआ है। परशुराम का सम्बन्ध पूर्वी अरुणाचल प्रदेश से है। हिंदी कथाओं के अनुसार परशुराम की माता रेणुका थीं जिनका उल्लेख गन्धर्व राज चित्रग्रीव के सन्दर्भ से किया गया है। परशुराम के पिता जमदग्नि ने पत्नी से क्रोधित होकर स्वयं रेणुका की हत्या न करके अपने बेटे से मातृह्त्या का यह जघन्य कृत्य करवाया। निश्चित रूप से जमदग्नि पितृसत्तात्मक (पुरुष प्रधान) समाज का प्रतीक है और यह घटना पितृसत्ता का ही परिणाम है। सम्पूर्ण घटना पूर्वोत्तर भारत के तपोवन में घटी थी। मातृह्त्या का जघन्य पाप करने के कारण परशुराम के हाथ शक्तिहीन हो गए और दुबारा फरसा उठा नहीं पाए। वह फरसा पत्थरों में ही गड़ गया। अपने पाप के बोझ से मुक्ति पाने के लिये परशुराम को पूर्वोत्तर भारत में लोहित नदी के तट( आज अरुणाचल प्रदेश का वर्तमान इलाका ) पर प्रवास करना पड़ा।यह स्थान दुर्गम और छुपा हुआ है। कई वर्षों तक वहाँ प्रवास करने और लोहित नदी की शीतल धार में स्नान करने के बाद परशुराम को मातृहत्या के भीषण पाप से मुक्ति मिली। हमारे हिंदी या आर्य कथा- साहित्य में ये लिखा गया है कि परशुराम ने माता की हत्या के बाद पिता से वरदान में माता का जीवन मांग लिया था। मगर परशुराम के पश्चात्ताप का यह जिक्र नहीं किया गया है। शायद नारियों की पूजा करनेवाला पुरुष – प्रधान आर्य समाज मातृहत्या को भी पुण्य समझता था!

लोहित नदी पापियों को मुक्ति दे या न दे, पर पूर्वी अरुणाचल प्रदेश का यह दुर्गम स्थल है अत्यंत मनोरम। सुंदर पर्वत, हरियाली से भरी ढलान, बड़े – बड़े सफ़ेद पत्थरों से भरा तट और ढलान से गिरता बर्फ – सा स्वच्छ शुभ्र प्रपात जो नीली धारा बनकर पत्थरों के तट के बीच अविकल, कलकल बहता है।इस स्थल का नाम ‘परशुराम कुंड’ परशुराम के नाम पर पड़ा है। यहाँ प्रतिवर्ष लोग स्नान करने आते हैं। पूर्वी अरुणाचल प्रदेश में परशुराम कुंड के रास्ते में तथा अन्य जगहों पर नारंगी के कई बगान हैं जिनके बारे में अधिकांश भारतीयों को पता भी नहीं होगा। वहाँ ‘ऑरेंज फेस्टिवल’ में पारम्परिक पोशाक में सांस्कृतिक आयोजन होते है। आवश्यकता है कि अरुणाचल प्रदेश की इस वन – सम्पदा का अच्छी तरह से उपयोग किया जाय और वहाँ नारंगी से सम्बंधित उद्योग- धंधे विकसित किये जायँ।

परशुराम कुंड से थोड़ी दूर पर नामसाई नामक जगह के पास बुद्ध का’ गोल्डन पगोडा’ है जिसके विशाल हरे – भरे प्रांगण में छोटे – छोटे गेस्ट हाउस बने हैं। भोजन की व्यवस्था गेस्ट हाउस से थोड़ा हटकर एक अलग भोजनालय में की गयी है।यह स्थान अत्यंत शांत और स्वच्छ है। अरुणाचल के इस इलाके के बाद उत्तर दिशा में आगे बढ़ने पर ब्रह्मपुत्र का दुर्गम तट आता है जिसके नीचे बड़े – बड़े पत्थरों से भरी ब्रह्मपुत्र नदी की तलहटी है। ढोला सदिया सड़क पुल 2019 में बना है।इससे पहले जाड़े में यहाँ ब्रह्मपुत्र नदी की धारा सूख जाने पर गाड़ियाँ इस दुर्गम पथ पर पत्थरों से गुजरकर नाव के पास पहुँचती थीं जो अपने आप में बहुत कठिन सफर होता था। इसके बाद रोइंग का तटवर्ती इलाका आता है जहां गाड़ियों को एक अलग तरह के पुल से गुजरना होता है। रोइंग के पश्चिम में काफी आगे जाने पर सियांग नदी के किनारे बसा पासीघाट है। रंग–बिरंगे पत्थरों से भरी सियांग की खूबसूरत घाटी के ऊपर सजा हुआ पासीघाट एक हिल – स्टेशन जैसा शांत और मनोरम दिखता है।यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अरुणाचल प्रदेश का क्षेत्रफल काफी बड़ा है और इसके पूर्वी भाग से पश्चिमी भाग में जाने के लिए असम से होकर जाना पड़ता है। ये दोनों भाग पहाड़ों और नदियों से जुड़े है।पश्चिमी अरुणाचल में इसकी राजधानी ईटानगर और तावांग की खूबसूरत बर्फीली घाटी है जिसके दृश्य किसी भी सैलानी को कश्मीर की तरह मोह लेते है।

महाभारत काल के अति विशिष्ट पुरुषों का पूर्वोत्तर भारत से संपर्क और गहरा संबंध देखकर प्रतीत होता है कि हमने उन्हें समुचित आदर और महत्व नहीं दिया।इतनी सारी ऐतिहासिक बातें भारत के मुख्य भाग में ज्ञात नहीं होती हैं। इतिहास ने पूर्वोत्तर भारत और आर्य सभ्यता के इतने घनिष्ठ और आत्मीय संबंधों को तथा महत्त्वपूर्ण तथ्यों को बड़ी सावधानी से अपने पन्नों में छुपा लिया।इसके बावजूद, पूर्वोत्तर भारत जहाँ अर्जुन, भीम, अनिरुद्ध जैसे विख्यात कुमारों के दिल कभी धड़के थे और स्वयं कृष्ण ने विवाह किया था, आज भी देश की मुख्य धारा का आकर्षण केंद्र बना हुआ है।दिल्ली का राजपथ हो या कोई और जगह – असम का खूबसूरत फुलाम गामोसा (अंग वस्त्र) अक्सर मह्त्वपूर्ण कंधों को सुशोभित करता रहता है।अब समय आ गया है कि यहाँ की जनजातियों की अच्छी परंपराओं को मुख्य धारा में अपनाया जाय। पूर्वोत्तर भारत में सामाजिक विषमता और कुरीतियाँ न्यूनतम हैं।आपसी आदर और सम्मान है। सामाजिक व्यवस्था कुंठा मुक्त, सुसंस्कृत और सराहनीय है।

हिन्दी प्रधान प्रांतों में सामाजिक व्यवस्था पुरुष – प्रधान तो है ही, महिलाओं को अनावश्यक रूढ़ियों से सख्ती से जकड़कर भी रखती है। इन प्रांतों में एक भी उत्सव नहीं जिसे स्त्री- पुरुष, युवा- युवतियाँ, बालक- बालिकाएँ साथ- साथ आनन्दपूर्वक मनाएँ और संगीत पर उल्लास से थिरक सकें। केवल धार्मिक अनुष्ठान या फिर पति की पूजा वाले करवा चौथ जैसे व्रत होते हैं। होली के नाम पर हुड़दंग, कीचड़ और सामाजिक असुरक्षा अधिक दिखते हैं। होली के दिन कोई महिला सड़क पर सुरक्षित महसूस नहीं करती। दो – चार दिन पहले से ही होली का हुड़दंग शुरू हो जाता है। होलिका की जगह यदि अपनी गलत रीतियों को समाप्त कर दें तो बेहतर हो। एक दीवाली ही है जिसमें पटाखे, आतिशबाजी और दीपमाला धरा – गगन को प्रकाशमान करते हैं। पर दीपोत्सव में भी धार्मिक पुट दे दिया जाता है। हिंदी – प्रधान प्रान्तों में महिला सबसे ज्यादा असुरक्षित और हमले का शिकार होती है, राह चलते असभ्य दृष्टि और असभ्य शब्दवाणों को झेलती है। यदि पूर्वोत्तर की तरह सामूहिक उत्सव और प्रसन्नता के पर्व इन प्रांतों में भी आयोजित होते तो सामाजिक स्थिति बेहतर हो सकती थी। यह विचार हिंदीभाषी प्रान्तों को कम दिखाने के लिए नहीं है, बल्कि उन्हें शांति और उल्लास का संदेश देने के लिए है।
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