श्रीराम का औदार्य
धर्म भारतीय जन गण में आज भी बहुत सम्मान प्राप्त करता है। जब कोई व्यक्ति किसी गलत कार्य में फँसता या फँसाया जाता है तो लोग उसको धर्म की सौगंध उठाकर अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए कहते हैं । यदि ऐसा व्यक्ति धर्म की सौगंध उठाकर अपनी बात कह देता है तो लोग उसे क्षमा कर देते हैं। भारत की इस परंपरा को समझने से पता चलता है कि भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में धर्म की उपस्थिति बहुत ही अनिवार्य और महत्वपूर्ण है।उसके बिना भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कल्पना तक नहीं की जा सकती। श्री राम ने धर्म के इसी अनिवार्य और महत्वपूर्ण भाव को अपने जीवन में उतारकर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नींव को मजबूत किया।
हनुमान जी सीता जी से कहते हैं कि :- “जिस राम में धर्म चलायमान नहीं होता ,जो धर्म का अतिक्रमण नहीं करता ,वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ है, वह ब्रह्म अस्त्र को जानता है।”
राम धर्म की मूर्ति थे। उनसे धर्म के अतिक्रमण की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। क्योंकि वह तो स्वयं धर्म बनकर लोगों को धर्म मार्ग पर चलाने की प्रेरणा देने वाले प्रेरणा पुंज थे। उन्होंने ब्रह्मास्त्र जैसे अस्त्रों को अपने पास रखा या विशेष विद्या प्राप्त कर उनका ज्ञान प्राप्त किया तो उन्होंने ऐसा सृष्टि के कल्याण के लिए ही किया था। कोई भी निरपराध व्यक्ति उन्होंने कभी सताया नहीं । निरपराध और शांतिप्रिय लोगों की रक्षा के लिए शस्त्र की रक्षा होती है। उसी दृष्टिकोण से उन्होंने अपने पास ब्रह्मास्त्र भी रखा। वैसे भी उस समय जिस प्रकार राक्षस शक्ति का प्राबल्य हो रहा था उसके विनाश के लिए ऐसे अस्त्रों की ही आवश्यकता थी। अपने जीवन में पूर्णतया आस्तिक ,धार्मिक और निश्चयात्मक रहे श्रीराम मर्यादावान हो सकते थे, उससे अलग ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते थे जिससे लोक का अकल्याण होता।
लोकहित को त्याग कर और नहीं स्वीकार।
मर्यादा चलती रहे चले पुण्यों का व्यापार ।।
राम हमारे राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक थे, प्रतीक हैं और प्रत्येक रहेंगे । अपने समय में उन्होंने जो कुछ भी किया वह निहित स्वार्थ के लिए नहीं किया, वरन एक सच्चे राष्ट्र पुरुष के रूप में राष्ट्र गौरव की वृद्धि के लिए किया। उन्होंने जितने भी राक्षसों का संहार किया वह अपने लिए न करके ऋषि समाज के कल्याण के लिए किया। ऐसा करके उन्होंने संसार को मर्यादा का पाठ पढ़ाया और यह संदेश दिया कि जो लोग संसार में आकर विघ्न पैदा करने का काम करते हैं, उन्हें जीवन जीने का अधिकार नहीं। क्योंकि वह दूसरों के जीवन को बाधित और व्यथित करके अपने जीवन के जीने का अधिकार खो चुके होते हैं।
उन्होंने रावण के साथ सीता जी को लेकर युद्ध किया, इसे केवल यहीं तक सोचना व समझना रामचंद्र जी के व्यक्तित्व के साथ अन्याय करना होगा। क्योंकि सीता जी तो उस युद्ध की केवल निमित्त मात्र थीं। सच्चाई यह थी कि रामचंद्र जी को रावण जैसे आततायी और दुष्ट शासक का अंत करना ही था। क्योंकि वह संपूर्ण वसुधा को निशाचरों से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा बहुत पहले ले चुके थे। एक प्रकार से उन्होंने अपना जीवन इसी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए समर्पित कर दिया था। यदि वह अपने सुख की चाहत करते हुए जीवन जीते तो जिस समय उन्होंने निशाचरों के विनाश का संकल्प लिया था उस समय वे ऐसा संकल्प न लेकर उनके साथ मित्रता कर लेते । वनों में रहकर ऋषि -मनीषियों को उसी प्रकार उत्पीड़ित करने लगते जिस प्रकार निशाचर जाति के लोग कर रहे थे । तब उनका शूर्पणखा से विवाह भी हो गया होता और वह रावण के साथ मित्रता भी कर चुके होते। यदि श्रीराम ऐसा कर गए होते तो तब वह हमारे लिए मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बन पाते। मर्यादा पुरुषोत्तम बनने के लिए तो शिवसंकल्प लेकर शिवव्रती होना बहुत आवश्यक होता है।
यदि राम धर्म से गिर जाते तो समझो फिर क्या होता ?
धरा पर त्राहिमाम मची होती और सर्वत्र अंधेरा होता।।
राक्षसों की प्रबलता से सज्जन शक्ति धरा से मिट जाती।
शिवसंकल्पी राम नहीं होते तो जीवन से मर्यादा हट जाती।।
राम शिव संकल्प शक्ति के धनी थे। क्योंकि उन्होंने नकारात्मक संकल्प शक्ति का प्रयोग न करके सकारात्मक संकल्प शक्ति का प्रयोग किया अर्थात लोक कल्याण के लिए व्रत धारण किए और उन्हें निभाने का प्राणपण से कार्य किया। अपने व्यक्तित्व की इसी विशेषता के कारण श्री राम राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक बने।
यह एक बहुत ही आश्चर्यजनक सत्य है कि श्री राम अब से लाखों वर्ष पहले स्वदेशी और स्वराज्य के संस्थापक बने । उन्होंने प्रत्येक ऐसी विचारधारा का विरोध किया जो वैदिक संस्कृति के प्रतिकूल थी।
वास्तव में श्रीराम ने अपने काल में एक महान क्रांति को जन्म दिया, जिसमें राक्षस लोगों का विनाश करके उन्होंने विजयश्री प्राप्त की। स्वदेशी, स्वभाषा ,स्वराज्य, स्वसंस्कृति का पाठ यदि किसी एक व्यक्तित्व से हमें पढ़ने की इच्छा हो तो उसे पढ़ाने वाले सृष्टि के सबसे पहले महान व्यक्तित्व श्रीराम हैं।
स्वदेशी , स्वसंस्कृति, स्वभाषा का बोध कराया था।
स्वराष्ट्र बने सामर्थ्यवान हमसे ऐसा शोध कराया था।।
स्वराज्य और सुराज्य का मंत्र महान दिया हमको।
स्वसंस्कृति का सूर्योदय कर दूर किया था तम को।।
आज श्रीराम को हमें इसी प्रकार के क्रांतिकारी श्री राम के रूप में समझने की आवश्यकता है। क्योंकि आज भी हमारे लिए स्वदेशी, स्वभाषा, स्वराज्य, स्वसंस्कृति और स्वधर्म पर चारों ओर से खतरे मंडरा रहे हैं। बहुत बड़ी संख्या में देश के भीतर ऐसे झाड़ झंखाड़ पैदा हो गए हैं जो हमारी निजता को, हमारे देश की संप्रभुता को और राष्ट्र की एकता व अखंडता को तार-तार करने की गतिविधियों में लगे हुए हैं। ये वही लोग हैं जो भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को क्षत-विक्षत कर देना चाहते हैं। जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पवित्र भावना को भारत ने युग युगों से सहेज कर रखा है और जिसकी रक्षा के लिए अनेकों बलिदान दिए गए हैं, उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए इस समय अभूतपूर्व संकट की स्थिति पैदा हो चुकी है। इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्री राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले लोग बड़ी तेजी से बढ़ते जा रहे हैं जो राम की वैदिक संस्कृति का विनाश करना अपना सर्वोपरि कर्तव्य घोषित कर चुके हैं।
आज हमें उन सबको राष्ट्र का, हमारी निजता का और स्वसंस्कृति का शत्रु मानकर उनके साथ युद्ध करने के लिए तैयार होना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी निजता और राष्ट्रीय संप्रभुता के शत्रु बने ये लोग हमारे विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर चुके हैं । कहने का अभिप्राय है कि देशविरोधी शक्तियां एकपक्षीय युद्ध आरंभ कर चुकी हैं। हमारी ओर से उनके विरुद्ध औपचारिक युद्ध की घोषणा करना शेष है। जिसके लिए हमें कमर कस लेनी चाहिए। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देश की आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने से पहले ही देश फिर एक गृहयुद्ध की ओर धकेला जा रहा है। स्वाधीनता के पश्चात की कई सरकारें जाने अनजाने में देश विरोधी शक्तियों के सामने घुटने टेकती रहे हैं। उनकी ‘घुटने टेक नीति’ को देखकर देश विरोधी शक्तियां और भी तेजी से अपना विस्तार करने लगीं।
फलस्वरूप चुनौतियों के बादल गहरा से चले गए और आज हम देख रहे हैं कि बहुत बड़ा संकट हमारे सामने आ खड़ा हुआ है।
इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए हमें रामचंद्र जी की नीतियों का पालन करना होगा। बहुत ही गहराई से परिस्थितियों , तथ्यों और देशविरोधी शक्तियों की शक्ति का अनुमान लगाकर उनके विरुद्ध युद्ध में उतरना होगा । देश के कथित राष्ट्रपिता की ‘चरखा नीति’ को त्यागकर देश के वास्तविक राष्ट्रपिता की ‘बरखा (बाण वर्षा) नीति’ ही काम करेगी। देश की एकता और अखंडता के लिए चरखा नीति ना तो किसी देश ने अपनायी है और ना ही इस प्रकार की नीति को अपनाकर वे अपना अस्तित्व बचा पाए हैं।
देश विरोधी शक्तियों का संहार युद्ध के मैदान में होता है । जो शासक देश विरोधी शक्तियों के सामने घुटने टेक जाते हैं या उन्हें बढ़ने का अवसर प्रदान करते रहते हैं उनकी पुचकारने की ऐसी नीति कभी सफल नहीं हो पाती है। क्योंकि देश विरोधी शक्तियों को पुचकारने की नहीं दुत्कारने की आवश्यकता होती है। मजबूत इच्छाशक्ति के साथ ब्रह्मास्त्र लेकर राम की भांति शत्रु संहार को निज धर्म जानकर जब कोई शासक सत्ता संभाल लेता है तभी देश विरोधी शक्तियों का सफाया हो पाता है।
कथित राष्ट्रपिता की पार्टी ने भी 1984 में जब देखा कि देश अब टूटने वाला है और खालिस्तान अस्तित्व में आने वाला है तो उसने भी अपने आदर्श नायक की ‘चरखा नीति’ को त्यागकर रामचंद्र जी की ‘बरखा नीति’ को अपनाया और देश को टूटने से बचाया। वैसे तो सही ढंग से यदि देखा जाए तो 1962 में जब नेहरू की ‘चरखा नीति’ के कारण देश चीन के हाथों पराजित हुआ तो उसके पश्चात शास्त्री जी ने ‘चरखा नीति’ के स्थान पर ‘बरखा नीति’ को अपनाकर पाकिस्तान के विरुद्ध भारत को विजय श्री दिलाई। इसके पश्चात इंदिरा गांधी ने भी ‘चरखा नीति’ को ही अपनाना उचित नहीं माना । श्रीमती गांधी ने इसको मजबूती के साथ आगे बढ़ाने के लिए ‘बरखा नीति’ का अनुसरण किया और 1971 में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटने में सफलता प्राप्त की। इस सबके उपरांत भी कॉन्ग्रेस औपचारिक रूप से कभी यह नहीं कर पाई कि अब हम ‘चरखा नीति’ को त्यागकर ‘बरखा नीति’ को अपना रहे हैं। वह गांधी की तथाकथित अहिंसा के गीत गाती रही और देश को मजबूत इच्छाशक्ति देने में पूर्णतया असफल रही।
‘चरखा नीति’ देश का कर न सकी उपकार।
‘बरखा नीति’ अपनाइए जो चाहो उद्धार ।।
इस्लाम ने यदि संसार के 57 देशों पर अपना झंडा फहराने में सफलता प्राप्त की है तो समझ लीजिए कि या तो उन देशों के मूलनिवासी ‘चरखा नीति’ को अपनाने का प्रमाद करते रहे या किसी भी कारण से असावधान होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर गये । भारत को इन सभी देशों से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए श्री राम की नीति का पालन कर राक्षसों का संहार करने के लिए कमर कसनी चाहिए।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र रक्षा राष्ट्रपुरुष महात्मा जनों के जीवन चरित्र को पढ़ने और उनकी कार्य नीति को अपनाने से होती है। जिन लोगों ने राष्ट्र का विरोध किया और राष्ट्र की हत्या के लिए देश पर जबरन शासन किया, उन लोगों के जीवनचरित पढ़ने से राष्ट्र के प्रति प्रमाद और अकर्मण्यता का भाव पैदा होता है। अतः हमें अपने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन का ही अनुकरण , अनुशीलन और अध्ययन करना चाहिए । जिन्होंने अब से लाखों वर्ष पहले स्वदेशी और स्वराज्य का उद्घोष किया था। संसार में मनोरथ उन्हीं के सफल होते हैं जो कथनी और करनी में समन्वय स्थापित कर लेते हैं। जो देश अपने आदर्शों का गुणगान और सम्मान नहीं कर पाते, वे संसार की प्रतियोगिता में अपना अस्तित्व बचाने में भी असफल हो जाते हैं।
जो देश अपने आदर्श का कभी गुणगान भी ना कर सकें।
जीवन उनका व्यर्थ है जो आदर्श का मान भी ना कर सकें ।।
सफलता संदिग्ध सदा उनकी रही जो करने की डींग हांकते।
मनोरथ व्यर्थ उनके रहें और वही धूल जंगलों की फांकते।।
श्री राम के आदर्श जीवन चरित्र पर विचार प्रकट करते हुए प्रेमभिक्षु जी लिखते हैं :- “सीता हरण के महाशोक के क्षणों में भी वे अपने संतुलन को नहीं खोते । श्रीराम की दूरदर्शिता और उद्भट राजनीतिमत्ता का परिचय सुग्रीव की मित्रता और बाली वध के प्रसंग में मिलता है। विभीषण शरणागति के प्रसंग में श्रीराम की राजनीति और क्षात्र तेज दोनों देखे जा सकते हैं। आगे लंका युद्ध में तो मानो मूर्तिमान काल बनकर ही राक्षस सेना का संहार करते हैं और अंत में दुर्धर्ष रावण को मारकर ‘क्षत्रिय शिरोमणि’ के पद को पा लेते हैं। जुल्मों से सहमी धरती माता चैन की सांस लेती है और धर्मराज राम राज्य अथवा ‘सांस्कृतिक आर्य साम्राज्य’ की शुभ चांदनी सब ओर फैल कर अपूर्व सुख शांति का विस्तार करती है। वर्णाश्रम धर्म या वैदिक धर्म की शीतल छांव में एकत्रित विश्व भर के नर नारी एक स्वर से पुकार उठते हैं – ‘वैदिक धर्म (वर्णाश्रम धर्म ) की जय, राजा रामचंद्र की जय।”
वास्तव में रामचंद्र जी का यह सांस्कृतिक आर्य साम्राज्य ही भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। जिसमें राक्षसों, अनार्यों या मानव जाति के शत्रु बने लोगों के अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं है। जिसमें सर्वत्र शांति ही शांति हो ,शांति के लिए ही क्रांति हो उसे ही सांस्कृतिक आर्य राष्ट्रवाद कहते हैं और उसी को भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जा सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत