संदीप सृजन
भारतीय लोक परंपरा के जनकवियों में संत कबीर का नाम सबसे अग्रणी है । कबीर गृहस्थ संत थे, भक्त थे ,कवि थे जीवन चर्या के लिए जुलाहे थे । पर इन सबसे अलग वे चिंतक थे, स्पस्टवादी थे ,युग दृष्टा थे और तर्क की कसौटी पर हर बात को कसने वाले थे । शिक्षा और भाषा के स्तर पर उनका कोई सामंजस्य नहीं था । जहॉ के वे थे वहीं की उनकी भाषा रही और सारे संसार से उन्होने शिक्षा ली और फिर सारे संसार को अपनी ही मातृ भाषा शिक्षा भी दी । कबीर उस युग के ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने व्यवहारिक शिक्षा नहीं ली लेकिन जो भी कहा वह विश्व के श्रेष्ठ दर्शन का हिस्सा बन गया । उन्होने कहा भी है-
मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।
कबीर भक्ति काल में हुए थे। उस काल को पद्य और छंद का युग माना जाता है। कबीर ने अपने अनुभवों को समाज तक पहुंचाने के लिए पद्य को ही चुना क्योंकि पद्य में कही गई बात सरलता से जन मानस तक पहुंच जाती है और श्रुत परम्परा के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी सहज रूप से आगे बढ़ती रहती है । कबीर के दोहे लोक में इतने प्रसिद्ध हुए कि मुहावरों और लोकोक्ति के रूप में इनका प्रसार श्रुत परम्परा से होता जा रहा है । कबीर रामानंदी सम्प्रदाय में दीक्षित थे लेकिन वे आडंबर विरोधी थे तभी तो वे कहते थे –
काँकर पाथर जोरि के, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, बहरा हुआ खुदाय॥
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजुँ पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥
कबीर फक्कड़ स्वभाव के थे, संसार में रहते हुए भी सांसारिक क्रिया कलापों पर वे आसक्त नहीं रहे, लेकिन संसार के प्रति उनकी दृष्टि “सर्वे भवंतु सुखिन:” की थी यही वजह रही के कहते थे-
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोसती ,ना काहू से बैर ।।
किंतु इसके साथ वे मुक्ति मार्ग के भी पथिक थे, संसार की असारता का ज्ञान उन्हें था, संसार की वृत्ति से निवृत्त थे और आव्हान कर कहते थे-
कबीर खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ।
जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।।
कबीर ने न कोई पंथ नहीं चलाया, न कोई रास्ता बनाया, केवल सुझाया अपने प्राणों में बसे राम को जानने के लिए “तू अपने राममय दुनियां से प्यार कर और एक दर्दीला दिल लिए सब में समा जा।” तेरे जागतिक जीवन का यही आधार है।
पंथों से सत्य की प्रतीती नहीं होती। सत्य आत्मस्थ विवेक है। व्यक्ति को स्वयं उसे पाना पड़ता है –
राह बिचारी क्या करै, जो पंथी न चलै विचारि।
आपन मारग छोड़ि के, फिरे उजारि उजारि।।
यहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप।।
जीवन में कुछ प्राप्त करना हो तो इसका सर्वश्रेष्ठ सूत्र कबीर ने बताया है, जो सर्वकालिक सत्य है, पात्र बनना ही सफलता की शुरुआत है, संसार में प्राप्ति अहंकार से नहीं होती, लघुता से होती है।
सब ही ते लघुता भली, लघुता ते सब होय।
जस द्वितीया कौ चन्द्रमा, शीश नावै सब कोय।।’
सार भौमिक भारतीय मीमांसा का दिव्य उद्घोष “वसुधैव कुटुम्बकम् ” कबीर ने सरल भाषा में समझा दिया की कुछ भी शेष नहीं रह जाता ।
जाति हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।
आत्मा और परमात्मा के स्वरूप पर हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा है । आत्मा को परमात्मा बनाने की सरल विधि कबीर ने अपने एक दोहे में बता दी । स्व और पर से परे है वहीं स्वरूप पमात्मा का है –
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाहि॥
कबीर दुनिया के श्रेष्ठतम चिंतक थे, कुशल प्रेरक उद्घोषक थे, समाज के दिशादर्शक थे, लेकिन समझाते -समझाते एक समय में कह देते है –
कबीरा तेरी झोंपडी, गल कटियां के पास।
जैसी करे वैसा भरे, तू क्यू भया उदास ।।
समय सबका एक जैसा नहीं रहता इस बात पर हजारों पृष्ठ लिखे जा चुके है लेकिन कबीर का यह दोहा उन हजारों पृष्ठों का सार स्वरूप है –
माटी कहे कुम्हार को तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूंगी तोय ||
कबीर की भक्ति का मार्ग अनूठा है। यहां जितनी सहजता है, उतनी सघनता भी है। कबीर भक्ति के साथ नैतिकता भी सिखाते हैं और समाज की बेहतरी के लिए उच्चतम जीवन-मूल्यों की हिमायत करते हैं । जीवन की व्याख्या समग्रता में करते हैं और अध्यात्म का दर्शन-मंथन पूरी पारदर्शिता के साथ । यहां बह्य जीवन-जगत के दृष्टिगत तथ्य ही नहीं, अंतर्जगत के दुर्लभ अनुभूति-कथ्य तक, सब में पारदर्शिता है । वे जो बात कहते हैं, वह लोगों पर सीधे असर करती है. वे विभिन्न धर्मो में उपजे पाखंड के विरुद्ध खड़े होते हैं और समाधान भी सुझाते हैं । वे आचार-विचार के जरिये अंतस की ऊर्जा ग्रहण करने की बात कहते हैं । कबीर को यदी शब्दों में व्यक्त करने की कोशिश भी की जाए तो वर्तमान में किसी दुस्साहस से कम नही होगी । क्योंकि कबीर शरीरी होकर भी अशरीरी थे, फूल पर मिले थे और अंत में फूल ही बन गये ।
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