श्रीराम का औदार्य
जिस समय भरत और शत्रुघ्न अपनी ननिहाल से अयोध्या पहुंचकर वहां अपनी अनुपस्थिति में घटी सारी घटनाओं से परिचित होते हैं तो रामचंद्र जी की उदारता का उल्लेख करते हुए भरत अपने भाई शत्रुघ्न से कहते हैं कि -” स्त्रियां अवध्य होती हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मैं पापी दुष्टाचारिणी माता कैकेयी को मार देता । यदि मुझे धार्मिक राम निन्दित ना करें । पर राम यदि इस कुब्जा के भी मारने को सुन लेंगे तो निश्चय मुझसे वह बोलेंगे नहीं।”
भरत के इन शब्दों में श्रीराम का औदार्य प्रकट होता है। भरत उस समय कोई भी निर्णय ले सकते थे, परंतु उनके प्रत्येक निर्णय पर उस समय भी श्रीराम की मर्यादा की तलवार लटक रही थी ।यदि भरत की अपनी चलती तो वह अपनी माता के साथ कुछ भी कर सकते थे । कुब्जा का भी अंत कर सकते थे, परंतु उन्होंने उदारमना श्रीराम के भय के कारण ऐसा कुछ भी नहीं किया जो अनुचित और अमर्यादित कहा जा सके।
वास्तव में बड़ा वह नहीं होता जो आयुवृद्ध होता हो, बड़ा वही होता है जिसके उपस्थित या कई बार अनुपस्थित होने पर भी लोग उसे अपने सम्मुख खड़ा मानकर किसी भी गलत व निन्दित कार्य को करने से भय खाते हैं। उसका आभामंडल इतना विस्तृत होता है कि पापी से पापी व्यक्ति भी उस आभामंडल में प्रवेश कर अपने निजी स्वभाव को भूल जाता है। उस आभामंडल में प्रवेश करते ही वह उस आभामंडल के स्वामी या धनी व्यक्ति के अनुसार अपने कार्य करने लगता है। ऐसे आभामंडल के धनी व्यक्ति ही परिवार, गांव, समाज, क्षेत्र राष्ट्र और कभी-कभी संपूर्ण भूमंडल का नेतृत्व करते हैं। वे अपने संकेत से या आत्मबल से बने आभामंडल के आधार पर संपूर्ण भूमंडलवासियों को जैसे चाहे वैसे नचा देते हैं। यद्यपि इस अवस्था तक पहुंचने के लिए उन्हें कई परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ता है। श्रीराम ने अपने जीवन काल में ऐसी अनेकों परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं, जिनसे उनका आभामंडल इतना प्रबल बना कि संपूर्ण भूमंडलवासी उनके संकेत पर नृत्य करने लगे।
जब भरत श्रीराम को वन से पुनः अयोध्या लाने के लिए चित्रकूट पहुंचे तो राम भरत मिलाप के उन क्षणों का वर्णन किसी कथाकार ने बड़े सुंदर शब्दों में किया है । वह कहता है कि राजकुमार भरत अपने बड़े भाई राम से मिलने को आतुर हैं और इसी कारण वे अपनी सेना में सबसे आगे चल रहे हैं और उनके साथ तीनों माताएँ, कुल गुरु, महाराज जनक और अन्य श्रेष्ठी जन भी हैं। ये सभी मिलकर प्रभु श्री राम को वापस अयोध्या ले जाने के लिए आये हैं। जैसे ही राजकुमार भरत अपने बड़े भाई श्री राम को देखते हैं, वे उनके पैरों में गिर जाते हैं और उन्हें दण्डवत प्रणाम करते हैं, साथ ही साथ उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती हैं।
भगवान राम भी दौड़ कर उन्हें ऊपर उठाते हैं और अपने गले से लगा लेते हैं, दोनों ही भाई आपस में मिलकर भाव विव्हल हो उठते हैं। अश्रुधारा रुकने का नाम ही नहीं लेती और ये दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग भी भावुक हो जाते हैं। तब राजकुमार भरत पिता महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार बड़े भाई श्री राम को देते हैं और इस कारण श्री राम, माता सीता और छोटा भाई लक्ष्मण बहुत दुखी होते हैं।”
भाव-विवह्ल दोउ भये बह चली अश्रुधार।
छुप-छुप आंसू पोंछते प्रजा के नर नार।।
संसार में बड़े-बड़े क्रूर बादशाह, शासक और सम्राट हुए हैं जिन्होंने अपने संकेत पर संसार को नचाने का हर संभव प्रयास किया, परंतु संसार ने उनके संकेत पर नृत्य किया नहीं । यहां पर नृत्य से हमारा अभिप्राय है – आह्लाद और आनंद का वह शंखनाद जो सर्व-मंगल- कामना के गीत गा रहा हो और जिसमें सबके मन का मोर स्वाभाविक रूप से नाच रहा हो। याद रहे कि मन का मोर तभी नाचता है जब आंतरिक जगत में स्वाभाविक आनंद का स्रोत फूटता हो। आनंद का यह स्त्रोत तभी फूटता है जब शासक लोग अपनी प्रजा पर वात्सल्य भाव रखते हैं। राम राज्य में प्रजा आनंदित और आह्लादित रहती थी । इसका कारण केवल एक ही था कि रामचंद्र जी ने उनके आह्लाद और आनंद में वृद्धि करने का हर संभव प्रयास किया।
तुलसीदासजी राम राज्य का सार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि :-
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहि भय सोक न रोग
जब प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण एवं आश्रम के धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करता है अथवा जब प्रत्येक व्यक्ति जीवन के विभिन्न वर्णों के अनुसार अपने निहित कार्य अर्थात अपने अपने कर्तव्य धर्म का उसी प्रकार पालन करता है जैसा कि वेदों में परिभाषित है, जब कहीं भी किसी भी प्रकार का भय ना हो, दुख ना हो तथा रोग ना हो – वही राम राज्य है।
श्रीराम ने अपने सबसे बड़े शत्रु रावण को भी उसकी मृत्यु के पश्चात महात्मा कहकर सम्मानित किया था । वास्तव में यह श्रीराम की उदारता का ही प्रमाण है कि उन्होंने शत्रु के साथ भी उस समय शत्रुता विस्मृत कर दी जब वह संसार में नहीं रहा।
देश के इतिहास में सल्तनत काल, मुगल काल और ब्रिटिश काल में हमने ऐसे अनेकों उदाहरण देखे हैं जब शासकों ने अपने प्रतिद्वंद्वी या शत्रु के अंत पर उसकी मिट्टी को भी अपमानित करने का कार्य किया। वास्तव में जो लोग किसी की मृत देह को भी अपमानित करते हैं वह बहुत ही पतित होते हैं ।
भारत की यह परंपरा अभी कुछ समय पहले तक गांव देहात में भी बनी रही कि किसी भी शत्रु या प्रतिद्वंद्वी की मृत्यु के बाद लोग उससे अपनी शत्रुता भूल जाया करते थे। भारत की यह परंपरा निसंदेह रामचंद्र जी और उनके भी पूर्वजों के काल से चली आ रही थी। लोगों के द्वारा इस परंपरा के पालन करने से पता चलता है कि भारत के लोग कितने युगों के बाद भी अपने पूर्वजों की डाली गई परंपराओं का पालन करने में कुशल रहे हैं?
यदि आज की राजनीति की बात करें तो वर्तमान में ऐसे कई राजनीतिक दल और उनके कई नेता हैं जो अपने सिद्धांतों और नीतियों में विश्वास न रखने वाले लोगों को उनकी मृत्यु के दशकों बाद भी घृणा की दृष्टि से देखते हैं। क्रांतिवीर सावरकर जी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री जी इसके सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस प्रकार की सोच आज के राजनीतिक लोगों की घटिया मानसिकता को प्रदर्शित करती है। इसे भारत की राजनीति का मूल्य नहीं कहा जा सकता और ना ही लोकतंत्र का मूल्य कहा जा सकता है। भारत की राजनीति और लोकतंत्र का मूल्य तो वही है जो श्री राम अपने आचरण और व्यवहार से प्रकट कर रहे हैं। अपने प्रतिद्वंद्वी या शत्रु के भी बड़ों का सम्मान करना राजनीति का ही नहीं सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का भी गुण होना चाहिए।
हनुमान सीता जी से ( वा0 रा0 सुंदरकांड ) कहते हैं कि हे माता ! राम संपूर्ण लोक के और चारों वर्णों के रक्षक हैं । लोक की मर्यादाओं का स्वयं आचरण करने वाले श्री राम दूसरों से भी ऐसा ही आचरण करवाने वाले हैं।” श्रीराम की महानता रावण के वध करने में उतनी नहीं है जितनी उनकी उस शिष्ट भाषा से प्रकट होती है जिसमें वह रावण को महात्मा कहकर संबोधित करते हैं।
संपूर्ण लोक और वर्णों के रक्षक श्रीराम हुए।
उनकी मर्यादा के कारण पवित्र सारे धाम हुए।।
नीच – अधर्मी – पापी के संहारक श्रीराम हुए।
धर्मशील मानवजन के उद्धारक भी श्रीराम हुए।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत