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तीतर-बटेर पत्रकारिता!

आज प्रहसन-पत्रकारिता और तीतर-बटेर पत्रकारिता का एक नया नमूना हमारे टीवी चैनलों ने दिखाया। नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी मध्यप्रदेश के अपने हैं। वे भोपाल के निकटस्थ विदिशा के निवासी हैं लेकिन उनको लेकर भोपाल में विधायकों और मंत्रियों ने अपने ज्ञान का जैसा प्रदर्शन किया है, वह हमारे राजनीतिज्ञों की बौद्धिकता की पोल खोल देता है। एक टीवी चैनल के रिपोर्टर ने एक मंत्री से पूछा कि कैलाश सत्यार्थी को मिले नोबेल पुरस्कार पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? उस मंत्री ने आनन-फानन अपने एक अन्य मंत्री साथी की प्रशंसा की झड़ी लगा दी। उनके सत्कार्यों और सफलताओं की सूची गिना दी। यही काम अन्य मंत्रियों और विधायकों ने भी किया। इन विधायकों में कांग्रेस और भाजपा के विधायक भी शामिल हैं। ऐसा इन्होंने क्यों किया, कैसे किया?

वास्तव में वे कैलाश सत्यार्थी को कैलाश विजयवर्गीय समझ बैठे। कैलाशजी को कल ओस्लो में नोबेल शांति पुरस्कार मिला और आज सारी दुनिया के अखबारों में मुखपृष्ठों पर उनके चित्र छपे हैं। भोपाल के अखबारों ने भी छापे हैं। लेकिन हमारे इन नेताओं ने ‘कैलाश’ शब्द सुनते ही कैलाश विजयवर्गीय पर प्रशंसा के तोहफे बरसाने शुरु कर दिए। इसमें शक नहीं है कि इंदौर और महू के विधायक और मंत्री कैलाश विजयवर्गीय की कहानी भी उनको मध्यप्रदेश का एक बेजोड़ नेता बनाती है और इंदौर के महापौर की तौर पर अपनी यात्रा शुरु करने वाला यह गरीब परिवार का सेवाभावी बेटा पूरे मध्यप्रदेश में काफी लोकप्रिय है लेकिन उसका नोबेल पुरस्कार से भला क्या लेना-देना है?

मजे की बात यह है कि खुद कैलाश विजयवर्गीय इस प्रसंग का मजा ले रहे हैं। टीवी चैनलों पर उन्होंने हंस कर जिस संजीदा ढंग से इस प्रहसन पर टिप्पणी की, वह उनके प्रशंसकों की प्रतिष्ठा की रक्षा तो करती ही है लेकिन यह सारा प्रसंग हमारे राजनीतिज्ञों के सतहीपन की कलई खोल देता है। कांग्रेस का विधायक तो अपना धर्म निभाने में भी नहीं चूका। उसने मंत्रीजी की प्रशंसा तो की लेकिन यह आलोचना भी कर दी कि उन्होंने नोबेल के शांति पुरस्कार के लायक कौन सा काम किया है? इस सारे प्रसंग का लाभ यह हुआ कि कैलाश सत्यार्थी को अब नेता लोग भी जानने के लिए मजबूर हो जाएंगे। टीवी चैनलों का काम अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) बढ़ाना है। सो उन्होंने खूब बढ़ाई। करोड़ों दर्शकों ने भी अपने नेताओं के ज्ञान-प्रदर्शन पर खूब ठहाके लगाए।

इसी प्रकार भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने नाथूराम गोड़से पर अपना द्राविड़ प्राणायाम दिखाया। उन्होंने बहुत जल्दी पल्टी खाई सो ठीक किया लेकिन हमारा मूल प्रश्न नेताओं से नहीं, मीडिया से है। उसे पता है कि नेता लोग कितने सतही होते हैं लेकिन फिर भी गंभीर मुद्दों पर वह उनकी राय ही उछालता रहता है। ऐसा करके वह नेताओं की छवि तो बिगाड़ता ही है, अपने कर्तव्य से भी गिरता है। हमारे टीवी चैनल अखाड़े बन गए हैं, जहां पार्टियों के भौंपू (प्रवक्ता) तीतर-बटेर की तरह एक-दूसरे पर टूट पड़ते हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक बड़ा खतरा है। यह पीत-पत्रकारिता का सूक्ष्म जहर है, जो हमारे लोकतंत्र को धीरे-धीरे तार-तार कर देगा।

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