डॉ0 वेद प्रताप वैदिक
नरेंद्र मोदी सरकार की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं। संसद का यह सत्र भी फिजूल की बहसों पर बलि चढ़ रहा है। पहले रामजादा और इस शब्द में ‘ह’ उपसर्ग जोड़कर बने शब्द की बहस चली, फिर ‘घर वापसी’ का तूफान उठा और फिर नाथूराम गोडसे गूंजने लगा। संसद का काम क्या इन्हीं मुद्दों पर मुठभेड़ करते रहना है? या फिर देश के महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर नीति निर्धारण करना व कानून बनाना है?
जाहिर है कि ये मुद्दे मोदी की सरकार ने नहीं उठाए और न ही उसने इनका समर्थन किया है, लेकिन क्योंकि ये मुद्दे भाजपा के सांसदों व पार्टी से जुड़े संगठनों ने उठाए हैं, इसीलिए विपक्ष सरकार पर प्रहार कर रहा है। उसका काम ही प्रहार करना है, इसलिए विपक्ष को दोष क्यों दिया जाए? यह कहने का कोई अर्थ नहीं कि विपक्ष के पास न तो कोई दमदार नेता हैं और न ही जानदार मुद्दे! इसीलिए वह सरकार की टांग-खिचाई करता रहता है।
जिन मुद्दों पर आजकल हंगामा मचा हुआ है, उन पर सरकार के पास कहने के लिए कुछ नहीं है। वह कहना चाहे तो भी क्या कह सकती है? यदि सरकार साध्वी को बर्खास्त कर देती, आगरा के धर्म-परिवर्तन को अनैतिक बता देती और गोडसे के प्रशंसक सांसद की स्पष्ट भर्त्सना कर देती तो उसे डर लगा रहता कि उसके कट्टर समर्थक नाराज हो जाएंगे, इसीलिए प्रधानमंत्री हों या मंत्री हों, वे अपना बचाव करते समय तुतलाते हुए दिखाई पड़ते हैं। 56 इंच के सीने वाली सरकार का आए दिन इस तरह तुतलाते रहना उसकी छवि को फीका कर रहा है। पिछले छह माह में उसने जो कई रचनात्मक और साहसिक पहल की हैं, वे सब हाशिये में खिसकती जा रही हैं।
हमारे टीवी चैनल तथा अखबार दर्शक और पाठक संख्या बढ़ाने के लिए ऐसी खबरों को जरूरत से ज्यादा उछालते हैं। समाजशास्त्र, इतिहास और राजनीति के गंभीर और जटिल मुद्दों पर भी वे अनपढ़ नेताओं की ऊटपटांग राय को टीवी पर दिनभर फेंटते रहते हैं। परस्पर-विरोधी पार्टियों के प्रवक्ता (भोंपू) एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछालते हैं। तिल का ताड़ बनाने में वे माहिर हैं। टीवी स्टूडियो आजकल तीतर-बटेर की लड़ाइयों के अखाड़े बन गए हैं। आम आदमी कोे किसी भी समस्या के गंभीर पहलुओं को समझने की सुविधा ही उपलब्ध नहीं हैं।
यदि खबरपालिका और विधानपालिका (संसद) चाहे तो इन्हीं सतही मुद्दों में से कुछ बुनियादी और दूरगामी नुक्ते निकालकर ऐसे कानून बनवा सकती हैं, जिनसे हमारा लोकतंत्र पटरी से उतरने से बच जाए। हमारे साधु-साध्वियों को आए दिन संसद में माफियां न मांगनी पड़ें। जहां तक धर्म-परिवर्तन का सवाल है, मोदी सरकार को एकदम स्पष्ट और दृढ़ रवैया अपनाना चाहिए। आगरा में किए गए धर्म-परिवर्तन से न तो हिंदुत्व की कोई सेवा होती है, न संघ की प्रतिष्ठा बढ़ती है और न ही राष्ट्रवाद प्रबल होता है। संसदीय कार्यमंत्री वैंकया नायडू ने धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध कठोर कानून बनाने की बात कही है।
सो ठीक है, लेकिन आगरा के जिन 57 मुसलमान परिवारों का धर्म-परिवर्तन किया गया है, क्या वह सच्चा धर्म-परिवर्तन है। ये मुसलमान कौन हैं? बांग्लादेश से आए हुए बंगाली मुसलमान हैं। मजदूर हैं, गरीब हैं, अनपढ़ हैं, भूखे हैं। उन्हें आप राशन-कार्ड का लालच देकर हवन पर बिठा देते हैं और टीका काढ़ देते हैं। क्या इससे उनकी घर वापसी हो जाएगी? कई मुसलमानों को यही पता नहीं था कि उन्हें वहां इकट्ठा ही क्यों किया गया है? एक सांसद ने घोषणा की है कि वह क्रिसमस के दिन एक हजार ईसाइयों और पांच हजार मुसलमानों को ‘शुद्ध’ करेगा। किसी संस्था ने पिछले साल 40 हजार हिंदू बनाने का दावा किया है।
थोक में किया गया यह धर्म-परिवर्तन वैसा ही है, जैसा कि किसी जमाने में हिंदुओं का भी हुआ था। शताब्दियों से भारत विदेशी मजहबी शिकारियों का शिकारगाह बना हुआ है। कभी थैली, कभी दवा-दारू, कभी पद-पदवी, कभी सुरा-सुंदरी और कभी शिक्षा-चिकित्सा का लालच देकर लाखों हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन किया गया। उस धर्म-परिवर्तन का लक्ष्य लोगों को बेहतर धर्म देना नहीं था बल्कि अपनी संख्या बढ़ाना था।
क्या अब हम उसी अनैतिक प्रक्रिया को उनकी ‘घर वापसी’ का आधार बनाना चाहते हैं? ऐसे लोगों की वापसी से क्या हिंदुत्व का गौरव बढ़ेगा? यदि कोई वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता आदि पढ़े और गहरी श्रद्धा के साथ हिंदू बनना चाहे तो मैं इसे सच्चा धर्म-परिवर्तन कहूंगा। ऐसे व्यक्ति को धर्म-परिवर्तन करने से कोई संविधान नहीं रोक सकता, कोई सजा नहीं रोक सकती। वह व्यक्ति प्राण दे देगा, लेकिन वही करेगा, जो उसका दिल कहेगा। धर्म गोबर की तरह बाहर से थोपा नहीं जाता। वह कमल की तरह अंदर से खिलता है।
हिंदुत्ववादियों का तर्क यह है कि आप हम पर ही उपदेश क्यों झाड़ रहे हैं? आप ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम तब्लीगियों को कुछ क्यों नहीं कहते? वे हिंदुओं को लाखों की संख्या में हर साल अपने मजहब में मिला लेते हैं। यदि यही कुकर्म चलने दिया गया तो कुछ वर्षों में भारत मुस्लिम-बहुल राज्य बन जाएगा। यह तर्क अतिरंजित है, लेकिन सही है। इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह शुद्ध राजनीति है, लेकिन यह राजनीति देश के लिए तोड़क है, जोड़क नहीं है।
ऐसेे अनैतिक और एक हद तक अराष्ट्रीय कार्य कुछ सिरफिरे अल्पसंख्यक संप्रदाय कर रहे हैं। वे अपने धर्म की हानि तो कर ही रहे हैं, इसके साथ-साथ वे उग्र हिंदुत्ववादियों को उनके प्रति आक्रामक होने का मौका दे रहे हैं। वे अपने आपको विदेशी ताकतों का पुर्जा भी बना रहे हैं। यदि इन दोनों धाराओं को छूट मिलती रही तो भारत का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। अतः यह जरूरी है कि थोक धर्म-परिवर्तन पर संसद कड़ा प्रतिबंध लगाए। मध्यप्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल और तमिलनाडु की सरकारों ने जैसे कड़े कानून अपने यहां बनाए हैं, उनसे भी कठोर कानून सारे देश में लागू हों। यदि मोदी ऐसी पहल करेंगे तो उन्हें मिशनरियों और तब्लीगियों से ज्यादा अपने लोगों को समझाना होगा। उत्साहीलालों से उन्हें टकराना भी पड़ेगा। यदि मोदी को भारत का सफल प्रधानमंत्री बनना है तो यह साहस उन्हें दिखाना ही होगा।
भारतीयों का धर्म-परिवर्तन करवाने में कई विदेशी सरकारों की गहरी रुचि इसीलिए रहती है कि वे उन्हें अपने निहित स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करती रहती हैं। भारत के नगालैंड, मेघालय, झारखंड, बस्तर, गोवा आदि में हमने विदेशी शक्तियों का खेल कई बार देखा है। कई राष्ट्रवादी संगठनों का सोच यह है कि हम ‘जैसे को तैसा’ दें तो उस कुचाल का सही मुकाबला होगा, लेकिन यह रणनीति राष्ट्र में विग्रह उत्पन्न करेगी। इससे कहीं अच्छा यह होगा कि थोक धर्म-परिवर्तन पर कड़ा प्रतिबंध तो हो ही, साथ-साथ देश में कोई ऐसी मुहिम चले कि हर हिंदू बेहतर हिंदू बने, हर मुसलमान बेहतर मुसलमान बने और हर ईसाई बेहतर ईसाई बने ताकि आखिरकार भारत का हर नागरिक बेहतर भारतीय बने और बेहतर इंसान बने।