नेहरू और कांग्रेस ने महाराजा हरि सिंह की सुनी होती, तो अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का कभी हिस्सा न बनता
उगता भारत ब्यूरो
जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरु की जुगलबंदी ने जम्मू कश्मीर को एक ऐसी अंधी खाई में धकेल दिया, जिसका परिणाम हम आज अलगाववाद और आतंकवाद के रूप में देखते है. 1947 में जब देश आजाद हुआ तो देसी रियासतों के सामने दो विकल्प थे, या तो वो पाकिस्तानी डोमिनियन का हिस्सा बन सकते थे या भारतीय डोमिनियन का. विकल्प चुनंने का अधिकार कानूनन केवल रियासत के महाराजा के पास था. जम्मू कश्मीर के महाराजा ने अपने इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए जम्मू कश्मीर का अधिमिलन भारत में स्वीकार किया. यह रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया का पहला कदम था. इसी प्रक्रिया का दूसरा कदम था देश के संविधान का निर्माण. इसके लिए संघीय संविधान सभा बनायीं गयी थी. इस संविधान सभा में सभी रियासतों ने अपने-अपने प्रतिनिधि भेजे थे. जम्मू कश्मीर से भी प्रतिनिधियों को भेजा जाना था. जनसँख्या के हिसाब से जम्मू कश्मीर से चार प्रतिनिधियों को संघीय संविधान सभा में जाना था. इन चारों में से दो सदस्यों को चयन महाराजा हरी सिंह को करना था और दो सदस्यों का चुनाव होना था. शेख अब्दुल्ला को यह बात बहुत अखर रही थी. इसलिए शेख के बहकावे में आकर कांग्रेस ने संविधान सभा में प्रतिनिधियों से सम्बंधित नियम 27 मई 1949 को नियम ही बदल डाला. इस नियम के तहत अब जम्मू कश्मीर के चारो प्रतिनिधियों का मनोनयन महाराजा को शेख अब्दुल्ला की सहमति से करेंगे. इस प्रकार महाराजा हरी सिंह से प्रतिनिधियों के मनोनयन की शक्तियां ही छीन ली गयी.
अब बदली हुई परिस्थियों में शेख अब्दुल्ला के कहने पर महाराजा हरी सिंह को शेख अब्दुल्ला , मिर्ज़ा बेग , मौलाना मोहम्मद सैय्यद मसूदी और मोती लाल बैगरा को मनोनीत करना पड़ा. 6 जून 1949 के दिन इन चारो को संघीय संविधान सभा का सदस्य बनाया गया. इसके बाद महाराजा हरी सिंह को राज्य से बाहर निकालने का षड्यंत्र रचा गया और जून 1949 में महाराजा को अपना राज्य छोड़ कर मुंबई जाना पड़ा . इसके बाद उनकी अस्थियाँ ही वापस जम्मू कश्मीर में वापिस आई. उनके जम्मू कश्मीर से जुड़े मामलों से दूर होने के कारण शेख ने अपनी मनमानी की और राज्य में अलगाववाद के बीज बोये जो आज भी नासूर बने हुए है.
अनुच्छेद 370 और हरि सिंह की अवहेलना —- अकसर लोग अपनी सुविधानुसार बोल देते है कि जम्मू कश्मीर अनुच्छेद 370 वो शर्त थी जिसके कारण महाराजा हरी सिंह ने राज्य का अधिमिलन भारत में किया था. यह बात पूर्णतया निराधार है. जम्मू कश्मीर का अधिमिलन भारत में 26 अक्टूबर 1947 को हुआ जबकि अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान में चर्चा ही 17 अक्तूबर 1949 में हुआ.
जिस समय अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान में आया उस समय महाराजा हरी सिंह शेख अब्दुल्ला और नेहरु के षड्यंत्रों के चलते जम्मू कश्मीर से जुड़े मामलों से पूरी तरह दूर हो चुके थे। नेहरु-शेख़ की जोड़ी ने महाराजा हरि सिंह की गैरहाजिरी में अब अपना अगला मोर्चा संभाला। संघीय सांविधानिक व्यवस्था में जो दूसरी साढ़े पाँच सौ से भी ज़्यादा रियासतें शामिल हुई थीं, उन्होंने शुरु में चाहे केवल तीन विषयों के लिये ही संघीय संवैधानिक व्यवस्था स्वीकार की थी, लेकिन धीरे धीरे उन्होंने सभी राज्यों के लिये बनाये गये प्रावधानों को स्वीकार कर लिया । लेकिन शेख़ चाहते थे कि जम्मू कश्मीर में संघीय संविधान के सभी प्रावधान लागू न किये जायें । संचार , सुरक्षा व विदेशी मामलों के विषयों को छोड़ कर अन्य सभी प्रावधानों के बारे में निर्णय , महाराजा हरि सिंह की 5 मार्च 1948 की अधिसूचना से गठित सरकार की सहमति से ही लिये जायें । इतना ही नहीं वे इस व्यवस्था को संघीय संविधान में भी शामिल करवाना चाहते थे ।
अनुच्छेद 370 को लेकर दोनों पक्षों का रवैया अलग अलग था । शेख़ अब्दुल्ला का तो स्पष्ट मत था जम्मू कश्मीर ने एक मुस्लिम बहुल राज्य होने के बाबजूद भारत में शामिल होने का निर्णय किया है। इसलिये उसे विशेषाधिकार मिलने चाहिए और उसका विशेष दर्जा सुरक्षित रखा जाना चाहिए। राज्य ने तीन विषयों पर विधि निर्माण का कार्य संघीय संसद को दिया है। इस संविदा से ही राज्य और संघ का संवैधानिक रिश्ता पारिभाषित होता है। अनुच्छेद 370 इसकी गारंटी है। शेख अब्दुल्ला के तर्क पूरी तरह से गलत थे। देसी रियासतों के अधिमिलन में धर्म की कोई भूमिका नहीं थी। जम्मू कश्मीर चाहे मुस्लिम बहुल राज्य था लेकिन इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण थे जिसमे हिन्दू बहुल राज्य भी मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में गए थे। अमरगढ़ रियासत इसका एक जीवंत उदाहरण है. लेकिन शेख अब्दुल्ला अपनी मनमानी करने पर उतारू थे, क्योंकि उन्हें रोकने वाले एक मात्र व्यक्ति महाराजा हरी सिंह को उसने पहले ही अपने रास्ते से हटा दिया था।
उस समय भी भारत सरकार (आयंगर) यह मानते थे कि यह अनुच्छेद कोई विशेषाधिकार नहीं है बल्कि राज्य में विशेष परिस्थितियों के कारण कुछ समय के लिये एक अस्थायी व्यवस्था है । भारत सरकार को आशा थी कि जैसे ही राज्य में ये विशेष परिस्थितियाँ समाप्त हो जायेंगी तो जम्मू कश्मीर के लिये अनुच्छेद 370 की व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी । उस समय जैसे अन्य रियासतों के लिये संघीय संविधान में व्यवस्था की गई है वैसे ही कश्मीर के लिये भी की जायेगी । लेकिन दुर्भाग्य से इसके लिये भारत सरकार ने महाराजा हरि सिंह को विश्वास में लेना उचित नहीं समझा । नेहरु उसके स्थान पर हर पग पर शेख़ अब्दुल्ला को ही विश्वास में लेते रहे और दुर्भाग्य से शेख़ अब्दुल्ला बाद में कश्मीर को लेकर नेहरु के विश्वास के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बन गये । इसे अजीब विरोधाभास ही कहना चाहिये कि इस बाधा को सफल बनाने के लिये उसने महाराजा हरि सिंह द्वारा निष्पादित विलय पत्र का ही प्रयोग किया । उससे भी बड़ा विरोधाभास तो यह है की यह विलय पत्र भारत सरकार के रियासती मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया था महाराजा हरि सिंह द्वारा नहीं । हरि सिंह ने तो अन्य रियासतों के शासकों की तरह मात्र इस पर हस्ताक्षर ही किये थे । इस विलय पत्र के भीतरी गुण दोष से महाराजा हरि सिंह का कोई ताल्लुक़ नहीं था । इस प्रकार महाराजा हरि सिंह को किनारे कर शेख़ अब्दुल्ला ने पहली सफलता 17 अक्तूबर 1949 को प्राप्त की जब अनुच्छेद 370 को संघीय संविधान में शामिल कर लिया गया । दिल्ली में जम्मू कश्मीर को लेकर यह जो नाटक चल रहा था , उसमें हरि सिंह मुम्बई में बैठकर केवल एक दृष्टान्त की भूमिका निभा सकते थे।
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