श्रीराम का औदार्य
किसी भी शासक की महानता और उसके शासन की उत्तमता की कसौटी केवल यह मानी गई है कि उसके राज्य में प्रजा सुखी रहे। यदि प्रजा किसी शासक के शासन में दु:खी है तो उसके शासन को उत्तम नहीं माना जा सकता। प्रजा शांतिपूर्वक सुखानुभूति करते हुए अपना जीवन यापन करे और परस्पर सभी प्रजाजन प्रेमपूर्ण व्यवहार करें – ऐसी सुव्यवस्था देना ही उत्तम शासक का धर्म होता है।
मैक्यावाली के अनुसार आदर्श शासक वह है जो किन्ही भी उपायों से राज्य की शक्ति , सम्मान और गौरव को बढाता है , जो राज्य का विस्तार कर उसे सम्मान के शिखर तक पहुँचाता है ! उसका मानना है कि मनुष्य मानवता और पशुता के अंशों से मिलकर बनता है , अतः राजा को इन दोनों के समान कार्य करना चाहिए । लोमड़ी की चालाकी और शेर की शूरता रखते हुए राजा को अपने उद्देश्यों पर बढ़ते जाना चाहिए ! उसे देश हित में कुछ भी करना चाहिए ! दूसरी शिक्षा के तौर पर मैक्यवाली कहता है कि शासक को दयालु होते हुए भी इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि कोई उसकी क्षमाशीलता का अनुचित लाभ न उठाये ! आवश्यकता पड़ने पर उसे क्रूर होने में संकोच नही करना चाहिए ! अतः उसका कर्तव्य है कि वह छल , कपट , हिंसा आदि का प्रयोग करते हुए भी ऐसे कार्य करे जिनसे उसकी महानता , उत्साह , गंभीरता और सहनशीलता प्रकाश में आये तथा वह एक सज्जन और धर्मपरायण व्यक्ति की ख्याति अर्जित करे!
भीष्म जी ने महाभारत में शासक के प्रमुख कर्तव्यों को निरूपित करते हुए कहा है कि प्रजा की सम्पन्नता , सुख शांति और समृद्धि ही राजा का एक मात्र लक्ष्य है ! शासक का प्रत्येक कार्य प्रजा की प्रसन्नता और उसके कल्याणार्थ ही होना चाहिए ! उस राजा को सर्वश्रेष्ठ कहना चाहिए जिसके राज्य में प्रजा पिता के घर पुत्र की भाँति निर्भय विचरती है ! भीष्म जी ने ये भी प्रतिपादन किया है कि योग्य और अत्याचारी राजा का जनता विरोध व सशस्त्र विरोध भी कर सकती है !
चालाकी में हो लोमड़ी सा और शूरता में हो शेर सा ।
सही अर्थों में राजा है वही अनोखी जिसकी वीरता।।
शक्ति का प्रतीक बन जो निज देश का सम्मान हो।
गौरव बढ़ाएं राज्य का और राष्ट्र का अभिमान हो।।
राजा के इन्हीं आदर्शों का ध्यान रखते हुए श्रीराम अपनी प्रजा को पुत्र से भी अधिक प्रेम करते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि “आयसु मांगि करहिं पुर काजा। ” श्रीराम ने जीवन भर अपने इसी भाव और भावना के वशीभूत होकर प्रजाहित में कार्य किया। बचपन से ही रामचंद्र जी के भीतर प्रजा के प्रति अच्छे भाव थे। यही कारण था कि जब राजा दशरथ ने अपना उत्तराधिकारी बनाने के संबंध में प्रजा का मत लेना चाहा तो सभी लोगों ने सर्वसम्मति से श्रीराम को ही अपना राजा स्वीकार किया। जब रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास हो जाता है तो उस समय प्रजाजनों में गहरी निराशा छा जाती है। क्योंकि रामचंद्र जी को वनवास के लिए भेजना लोकमत की अवहेलना थी ।
लोकमत का स्वागत और सम्मान करते हुए ही महात्मा भरत ने सभी प्रजाजनों को यह विश्वास दिलाया था कि आप निश्चिंत रहें ,आपको मैं उसी राजा को देना चाहूंगा जिसे आप अपना राजा स्वीकार कर चुके हैं। क्योंकि मैं स्वयं भी इसी मत का हूं कि अयोध्या के राजा श्री राम ही बनें।
जब रामचंद्र जी वनवास के लिए जा रहे होते हैं तो वह इस बात का हर संभव प्रयास करते हैं कि अयोध्या में किसी भी प्रकार का विवाद या वैमनस्य पैदा ना हो। अपने घर में जो भी कुछ घटित हो चुका था उसे भी वह किसी को सुनाना तक नहीं चाहते थे । जो कुछ भी हुआ था या हो रहा था, उसे वह नियति का परिणाम मानते थे । इसके लिए उन्होंने किसी को भी दोषी नहीं माना। वन जाते हुए उन्होंने अपने प्रजाजनों को अयोध्या के होने वाले राजा भारत के प्रति भी वैसा ही प्रेम और समर्पण दिखाने का आग्रह किया जैसा उन लोगों ने स्वयं उनके प्रति दिखाया था। श्री राम का आदर्श कुछ इस प्रकार था :-
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
श्रीराम के इस प्रकार के आचरण में उनकी उदारता दिखायी देती है। साथ ही उनका दूरदर्शी स्वभाव भी स्पष्ट झलकता है। उन्होंने अपने वनगमन की घटना को बहुत छोटी सी घटना के रूप में चित्रित किया और अपने भाई भरत के प्रति जनता के मन में अच्छे भाव पैदा करने का भी हरसंभव प्रयास किया।
श्रीराम के मन में उस समय किसी भी प्रकार की चिंता दुश्चिंता या बौखलाहट का भाव नहीं था। वह बहुत ही शांतमन से वन गमन करते हैं। इस समय उन्हें यह भी पूर्ण विश्वास था कि यदि अयोध्या के राजा भरत भी बनते हैं तो वह भी प्रजा पालन में किसी प्रकार का प्रमा नहीं करेंगे। श्रीराम को वनगमन के समय इस बात का कोई दु:ख नहीं था कि उन्हें वन क्यों भेजा जा रहा है ? इसके विपरीत उन्हें इस बात की प्रसन्नता है कि अयोध्या का भावी राजा भाई भरत भी प्रजावत्सलता के भावों से भरा हुआ है। ऐसे में यदि उन्हें वनवास हो भी रहा है तो इससे किसी भी प्रजाजन का अहित होने वाला नहीं है। जिस समय श्रीराम वन को चले ,उस समय उनकी स्थिति कुछ इस प्रकार थी :-
नैराश्य भाव था नहीं, जब राम वन को थे चले।
सहजता से छोड़ दिए जिनकी गोदियों में थे पले।।
निज आत्मा की मूर्ति घोषित किया अनुज भरत को।
प्रजाजनों से कह दिया पूरा सम्मान देना भरत को।।
तुलसीदास जी ने कहा है कि – “कोऊ नृप होई हमें का हानि” – अर्थात राजा कोई भी हो हमें कोई हानि होने वाली नहीं है। तुलसीदास कृत रामचरितमानस की इस सूक्ति का लोगों ने गलत अर्थ निकाल लिया। इसका अर्थ कुछ इस प्रकार किया गया जैसे कि लोग राजा और राजकीय व्यवस्था के प्रति उस समय पूर्णतया उदासीन रहते थे । जबकि सच यह है कि प्रजाजन भी इस बात को लेकर आश्वस्त रहते थे कि राजा चाहे कोई भी हो जाए, उन्हें वह किसी भी प्रकार से हानि करने वाला नहीं होगा।
इस प्रकार का भाव उस समय की भारतीय लोकतंत्रिक व्यवस्था की उत्कृष्टता को प्रतिबिंबित करता है। रामचंद्र जी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रतीक पुरुष हैं । उनकी उदारता और प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव आज के शासकों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है।
- डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत