प्रभु पालक है सृष्टि का, पर देता नही जताव
बिखरे मोती भाग-78
गतांक से आगे….
जिस प्रकार अग्नि ईंधन से तृप्त नही होती, जिना ईंधन डालते जाओगे उतनी ही बढ़ती जाती है। ठीक इसी प्रकार स्त्रियों की तृष्णा मांग, कामनाएं पुरूष जितनी पूरी करता जाता है, उतनी ही वे बढ़ती जाती हैं।
सागर में नदियां पड़ैं,
फिर भी बाढ़ न आय।
मृत्यु तृप्त होती नही,
सबै मारकै खाय ।। 832।।
नदियों के जल से कभी सागर में बाढ़ नही आती है, अर्थात वह कभी तृप्त नही होता है। ठीक इसी प्रकार मृत्यु संसार के सब प्राणियों को मारकर भी तृप्त नही होती है।
यश नष्ट करै दुष्टता,
आशा धीरज खाय।
मृत्यु इस संसार में,
सबको ग्रास बनाय ।। 833।।
कुल में कोई कुलीन हो,
तो होता रहै उपकार।
ज्ञानवृद्घ के कारनै,
खुशी रहै परिवार ।। 834।।
ध्यान रहे, कुलीनता का संबंध वैभव या संपन्न घराने से नही है, अपितु इसका संबंध अपने कुल की प्रतिष्ठा अथवा मर्यादा का ध्यान रखने से है। धनवान हो चाहे निर्धन। जिन कुलों में अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखा जाता है उस कुल के पुरूषों में अनेक गुण स्वभावत: प्रविष्ट हो जाते हैं। ऐसे कुलीन घराने के मनुष्य अपने कुल को अपयश से बचाने के लिए विविध प्रकार के कष्ट तो सह लेते हैं किंतु कुल के यशवर्धन के लिए वे उपकार करने से पीछे नही हटते हैं। वास्तव में ऐसे व्यक्ति ही कुलीन कहलाते हैं।
ज्ञान में जो श्रेष्ठ होता है उसे ज्ञानवृद्घ कहते हैं। ऐसा व्यक्ति परिवार को अनुशासन में रखता है, मार्गभ्रष्ट नही होने देता है। विविध प्रकार के कष्टों से परिवार की रक्षा करता है। जबकि कुलीन व्यक्ति अपने आश्रयदाता का अनेक प्रकार से उपकार करता है। अत: जिन परिवारों में कुलीन और ज्ञानवृद्घ व्यक्ति होते हैं वे सर्वदा खुशहाल रहते हैं।
सुख दु:ख तो रथचक्र है,
धर्म सखा परलोक।
संचय कर नित धर्म का,
कट जाएंगे शोक ।। 835।।
अर्थात इस संसार में सुख-दु:ख तो अनित्य हैं, जो रथ के चक्र के समान घूमते रहते हैं जबकि धर्म नित्य है, सदा साथ रहने वाला है।
यहां तक कि धर्म तो परलोक (स्वर्ग) का भी साथी है। इसलिए हे मनुष्य! धर्म का संचय कर। केवल धर्म ही ऐसा है जिससे सब बंधन कट जाते हैं, दुखों से मुक्ति मिलती है।
सेवा सबसे श्रेष्ठ वो,
जिसमें न बदले का भाव।
प्रभु पालक है सृष्टि का,
पर देता नही जताव ।। 836।।
ध्यान रहे यदि संसार में आपके हाथों से कोई सत्कर्म हुआ हो अथवा हो रहा हो और उसे न तो आप जताते हैं न ही अहं का भाव पालते हैं, यहां तक किसी प्रकार की बदले की अपेक्षा भी नही रखते तो ऐसी सेवा सबसे श्रेष्ठ होती है। जो लोग बदले की भावना रखकर सेवा अथवा उपकार करते हैं और उसे जताते हैं तो ऐसा सत्कर्म निरर्थक हो जाता है। यह बात हमें परमपिता परमात्मा से सीखनी चाहिए कि वह समस्त सृष्टि की पालना करता है किंंतु जताता नही है।
प्रभु महान सृष्टि का संचालन करता है। किंतु कोई अहं भाव नही और न ही ये अपेक्षा रखते हैं कि कोई उसका यशोगान करे। वह पापियों का भी भरण पोषण बदले की भावना से रहित होकर करता है। इसलिए उसको प्रेमनिधे और करूणानिधान कहते हैं।
क्रमश: