देश के वैभव के लिए अपने वैभव को तिलांजलि देने वाले क्रांतिकारियों को नेहरू जी जैसे लोग ‘विकृत मानसिकता’ वाला कहते रहे, और उन्हें इतिहास में समुचित स्थान नही दिया गया। नेहरू जी की इस मानसिकता पर सावरकर जी ने उन्हें कहा था-”जब हम प्रधानमंत्री श्री नेहरू जी के मुख से सुनते हैं कि खुदीराम बोस प्रभृति सशस्त्र क्रांतिकारियों की मनोवृत्ति विकृत थी, और इसलिए उनका कृत्य अप्रशंसनीय है, तब हमें यह कहना पड़ता है कि यदि किसी की देशभक्ति सर्वाधिक गौरवपूर्ण है तो वह फांसी पर लटके या सशस्त्र संग्राम में वीरगति को प्राप्त हुए क्रांतिकारियों की ही है, चापेकर, ढींगरा या ऊधम सिंह का या जलते विमान में भस्म हुए स्व. नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नामोल्लेख करते हुए आपको (नेहरू जी को) अपना त्याग मन में गौण और बेकार ही लगने लगता है। इसलिए उनके नाम पर गर्व करने से आप हिचकते हैं। आपकी यह द्वेषपूर्ण तथा अभागी महत्वाकांक्षा ही विकृत मनोवृत्ति का प्रतीक है।”
(संदर्भ विनायक दामोदर सावरकर पृ. 232)
हमने यह उद्घरण यहां इसलिए प्रस्तुत किया है कि इतिहास का लेखन यदि वास्तविक इतिहास पुरूषों की अपेक्षा उनसे विपरीत मत रखने वाले लोगों के पास चला जाता है, तो वे किस प्रकार इतिहास पुरूषों को अपशब्द बोला करते हैं, और उन्हें किस प्रकार इतिहास के पृष्ठों से ओझल करा दिया करते हैं।
यही सल्तनत काल में हुआ
जब बात सल्तनत काल की हो तो उस काल के उन इतिहासकारों से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है, जो मुस्लिम सुल्तानों के दरबारी लेखक थे और जिन्हें इसी बात का वेतन और पुरस्कार मिला करता था कि वे अपने स्वामी की प्रशंसा करें और भारतीय हिंदू-वीरों का अपमान करें, उन्हें कहीं पर भी सम्मानित स्थान न दें, पर इसके उपरांत भी उन इतिहासकारों ने सच कहीं न कहीं लिख दिया है। हमें उसी सच के आधार पर अपने राष्ट्रीय इतिहास का लेखन करना अपेक्षित है।
इतिहास की एक सुंदर झांकी
अपनी ‘हिन्दुत्व’ नामक पुस्तक में वीर सावरकर ने ही अपने प्रचलित इतिहास पर क्षोभ और प्राचीन गौरवमयी इतिहास पर गौरवानुभूति व्यक्त करते हुए लिखा है-”जिस प्रकार जो खेत उत्तम उपज देता है, वह उत्तम माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उत्तम स्त्री पुरूषों (भारत के वैभव के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले हिंदू वीरों) को जन्म देने वाला देश भी श्रेष्ठ होता है। इस दृष्टिकोण से यदि हम भारत की श्रेष्ठता का अवलोकन करें, तो हमें क्या दीखेगा?
अंगिरस, गर्ग, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, जनक इत्यादि महान तत्ववेत्ता। कणाद, कपिल, भाष्कर, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भट्ट, पाणिनी, बाणभट्ट, चरक इत्यादि कविता देवी के लाल। गौतम बुद्घ, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, गुरू नानक आदि धर्म संस्थापक। श्री रामचंद्र, नल, युधिष्ठर सदृश प्रजा रंजक राजा। अर्जुन, कृष्ण, कर्ण आदि अतिरथी-महारथी। चंद्रगुप्त, शालिवाहन, अशोक, विक्रमादित्य इत्यादि साम्राज्य संस्थापक। शुक्राचार्य और हरीशचंद्र सदृश मूर्तिमंद सद्गुणी। गार्गेयी, लोपामुद्रा, अहिल्या, तारा मंदोदरी, सावित्री तथा सीता इत्यादि नारियां। बताओ दुनिया वाले! अपने इस महाभाग्य की गणना हम कैसे करें? यह कार्य बहुत कठिन है।
इन महान विभूतियों का नामोच्चार तो केवल एक झांकी मात्र है। यदि भारत का संपूर्ण इतिहास उपलब्ध होता तो क्या होता? जो है, वह व्यवस्थित संकलित नही है। अभी तो भारत महोदधि के अथाह जलराशि में से यह टिटहरी केवल चोंच भर पानी ही लायी है। यह वर्णन तो हमारे इतिहास का पूर्वाद्र्घ मात्र है। आधुनिक काल के रत्नों की सूची तो अभी अलग है। चित्तौड़ के महाराणा प्रताप, बुंदेलखण्ड के छत्रसाल, बंगाल के प्रतापादित्य, रामगढ़ के हिंदू पद पातशाह छत्रपति शिवाजी, पूना के शनिवार वाड़ा के मालिक पेशवा, ग्वालियर के महादजी, पानीपत का रणमैदान, सिंहगढ़ की खड़ी चट्टान, ज्ञानेश्वर की लेखनी, विठोवा के भक्त, समर्थ गुरू रामदास के दास कितनों को गिनें गिनाएं और कहां तक वर्णन करें।”
कितना गर्व होता है, अपनी वैभव पूर्ण और गौरवपूर्ण अतीत की झांकी की झलक पाकर? जब यह अनुभूति होती है कि भारत के इस वैभव और गौरवपूर्ण अतीत के उत्तराधिकारी हम स्वयं हैं, तो हृदय और प्रफुल्लित और उत्साहित होकर गर्व से छाती चौड़ जाती है।
खिलजी के काल में भी हिंदू वीर रचते रहे इतिहास
तथ्यों एवं साक्ष्यों ने स्पष्ट किया कि अलाउद्दीन खिलजी के काल में भी हिंदू वीरों की वीरता भारत के वैभव के लिए अपने स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखे रही। दोष इतना था कि राष्ट्रीय स्तर पर संगठन बना कर विदेशी आक्रांताओं को भगाने का प्रयास नही किया जा रहा था। यह हमारी फूट और निजी महत्वाकांक्षाओं के कारण हुआ था, परंतु इस सबके उपरांत भी हमारी वीरता कहीं प्रभावित हुई हो, ऐसा तो यह नही कहा जा सकता।
इतिहास ही केवल आर्यों (हिन्दुओं) का है
इतिहास यदि किसी जाति के केवल मानवीय आचरण, वैज्ञानिक उन्नति और सैन्य संगठन या वीरता, धार्मिक उच्चादर्शों और नैतिक व्यवस्था के विधि विधान का उल्लेख करने वाला ग्रंथ है तो उसके विषय में यही कहा जा सकता है कि तब तो वह केवल भारतीय आर्यों (हिन्दुओं) के पास ही उपलब्ध है। क्योंकि इन सभी क्षेत्रों में हमने जितने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। उन्हें लांघने की बात तो छोडिय़े, उनकी ऊंचाई की ओर दृष्टि भरकर देखने का भी साहस कोई देश आज तक नही कर पाया।
हृदय नारायण दीक्षित (दैनिक जागरण 22-9-2006) ने लिखा है-”भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। सनातन हिंदू संस्कृति इसका प्राण है। हिन्दू धर्म किसी संगठित सत्ता से संचालित नही होता। भारत के प्रत्येक जन का निज धर्म है। सब की अपनी प्रतीति अनुभूति है। पराभौतिक आस्थाएं विविध आयामी हैं। ढेर सारे देवता हंै, ढेर सारे धर्मग्रंथ। हिंदू विश्व की सभी आस्थाओं का आदर करते हैं, सर्वपंथ आदर भाव इसी सनातन संस्कृति का हिस्सा है।….हिन्दुत्व भारत की प्रकृति है। जैसे अग्नि में सदा से ऊष्मा है, ऊष्मा अग्नि-धर्म है, रस जलधर्म है, वैसे ही हिन्दुस्तान में हिन्दुत्व है।”
वास्तव में हिंदुत्व आर्यत्व का स्थानापन्न शब्द है। जो भारत का एक राष्ट्रीय संस्कार है, और इसकी धमनियों में जो रक्त प्रवाहित होता है, वह हिन्दुत्व से ही ऊष्मा धारण करता है। इसी ऊष्मा ने सदियों से नहीं युग-युगों से इस देश को, इस हिंदू जाति को विश्व में सर्वश्रेष्ठ (आर्य) होने की अनुभूति-प्रतीति करायी है। विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष कर उन्हें देश से बाहर खदेडऩे का सदियों का संघर्ष इसी ऊष्मा से उपजे सर्वश्रेष्ठ होने के भाव को गौरवमयी ढंग से जीवित किये रखने का संघर्ष था। इस संघर्ष में एक संस्कार बोल रहा था, एक विचार बोल रहा था और एक भाव बोल रहा था कि हमें अपने गौरव और वैभव की रक्षा करनी है।
इस गौरव की ओर संकेत करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा है-”यहां वैज्ञानिक उन्नति उन दिनों भी विद्यमान थी जब यूनान का इतिहास ही नही था, जब रोम के विषय में कोई सोचता ही नही था, जब आधुनिक यूरोप के पूर्वज जंगलों में रहते थे और शरीर को नीला पोत लेते थे। इससे भी पहले जब इतिहास का कोई लिखा वृत्त नही था और अंधेरे में झांकने का दुस्साहस परंपरा में नही था। तब हमारे यहां से एक से विचार प्रचलन करते हुए बाहर निकलते थे। परंतु प्रत्येक बोले गये वाक्य के आगे शांति तथा पीछे आशीर्वाद रहता था।”
इस्लामिक आक्रामकों के काल में भारत की इसी परंपरा पर कुठाराघात होने लगा था, इसलिए संघर्ष अनिवार्य था। जिसे हमारे पूर्वजों ने लंबे काल तक लड़ा।
टॉयनबी ने हमारा सच बताया है
टॉयनबी जैसा विदेशी विद्वान कहता है-”सभ्यताएं आंतरिक दुर्बलताओं तथा फूट के कारण समाप्त होती हैं न कि बाह्य आक्रमणों के कारण, और ऐसी सभ्यताएं जहां एक सृजनात्मक अल्पसंख्यक वर्ग उस सभ्यता में सामाजिक अखण्डता और मूल्यों को बनाये रखने को समर्पित रहता है और पीढ़ी दर पीढ़ी तैयार होता रहता है-वे नष्ट नही होती।”
(‘वयम् हिन्दव:’ के पृष्ठ 143 पर)
टॉयनबी महोदय के इस कथन को यदि भारत के अतीत पर ले जाकर कसा जाए तो हम क्यों नही मिटे, या हमारा अस्तित्व उन विषमतम् परिस्थितियों में भी क्यों बना रहा? इस रहस्य से पर्दा उठ जाएगा। हममें फूट थी-परंतु यह फूट राजनीतिक अधिक थी। सामाजिक स्तर पर हमारा सारा राष्ट्र एक राष्ट्र के सूत्र में आबद्घ रहा। धर्म हमें संचालित करता रहा और हममें (धर्म की पतन की अवस्था के उपरांत भी) राष्ट्रीय एकता के बीज आरोपित किये रहा। इसीलिए राजनीतिक स्तर पर चाहे भारत के राजनीतिज्ञों ने एक दूसरे से कहीं मुंह फेर लिया हो। परंतु सामाजिक स्तर पर भारत के करोड़ों लोगों ने मानो श्रंखलाबद्घ खड़े होकर विदेशी आक्रामकों का प्रतिरोध किया। इस प्रतिरोध की तीव्रतम् भावना ने हमारी राजशक्ति को भी प्रभावित किया और यदि कहीं उसने धर्मविमुख होने का मन भी बनाया तो अधिकांश अवसरों पर वह संभल गयी। समाज के सृजनशील लोग इस राष्ट्रीय एकता की भावना को बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहे और हममें प्राण ऊर्जा का संचार करते रहे।
भारत में सदा से राष्ट्र रहा है
जिन लोगों को भारत को एक राष्ट्र मानने पर आपत्ति रही है, उनके लिए गांधीजी ने 1909 ई. में ‘हिन्दू स्वराज’ में लिखा था-”आपको अंग्रेजों ने बताया कि भारत एक राष्ट्र नही था, और अंग्रेजों ने ही इसे राष्ट्र बनाया है, लेकिन यह सरासर झूठ है, अंग्रेजों के यहां आने से पहले भी भारत एक राष्ट्र था।”
भारत के विषय में इसी तथ्य को माक्र्सवादी चिंतक डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय नव जागरण और यूरोप’ (पृष्ठ 87-88) पर कहा है-”जिस देश में ऋग्वेद की सात नदियां बहती हैं, (सप्तसिन्धु की ओर लेखक का संकेत है) वह लगभग वही देश है जिसमें जल प्रलय के पश्चात, भारत जन के विस्थापित होने के पश्चात हड़प्पा की सभ्यता का विकास हुआ। यह देश ऋग्वेद तथा हड़प्पा के काल का, उससे भी बहुत पुराना, संसार का सबसे पुराना राष्ट्र था। हिंदू राष्ट्र विश्व में प्राचीनतम राष्ट्र है।”
धारणा में परिवर्तन आवश्यक है
ऐसी परिस्थितियों में अपने ही विषय में कल्पित भ्रांत धारणाओं का निवारण/परिवर्तन किया जाना आवश्यक है। इनमें सर्वप्रमुख है कि-हम विदेशियों के आने के समय सर्वथा असभ्य और जंगली रूप में निवास करते थे। हमें सभ्यता सिखायी तो विदेशियों ने सिखायी। यह धारणा भीतर दृढ़ता से बैठायी गयी है, जिससे कि हमें अपने अतीत से घृणा हो और हम अपने ही विषय में गौरवानुभूति न कर सकें। दूसरी धारणा बनायी गयी कि-हमारे पूर्वज ग्वाले थे, पशु चराने का काम करते थे और पशुओं के साथ रहकर हम उन्हीं जैसी बुद्घि धर्म वाले थे। तीसरे-हमें शिक्षित और संस्कारित भी विदेशियों ने किया और जब हमारे यहां कुछ भी नही था तो पूरा देश आवारा अशिक्षित लोगों से भरा पड़ा था। जिनके सामने जैसे ही विदेशी तलवार हवा में लहराई उन्होंने तुरन्त समर्पण कर दिया। जबकि ऐसा नही था। हृदय नारायण दीक्षित ने लिखा है-”भारतीय राष्ट्रवाद किसी संविधान राज्य अथवा सरकार का राज्यादेश नही है। इसका प्राण तत्व ऋग्वेद तथा उससे पूर्व चली आ रही जिज्ञासा वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा दर्शन आधारित विकासमान संस्कृति है। इस संस्कृति में समूची मानवता के प्रति लोकमंगल की दृष्टि है…विश्व में यही एक राष्ट्र भाव है, जिसकी दृष्टि वैश्विक है।”
वास्तव में संघर्ष हमारे वैश्विक और उनके (विदेशी आक्रांताओं के) पाशविक दृष्टिकोण के मध्य था। यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि हमारे वैश्विक दृष्टिकोण को जहां विश्व के विद्वानों ने मानवता के लिए अत्यंत उपयोगी माना है, वहीं हमने मुस्लिम इतिहासकारों के उन मध्यकालीन तर्कों को मानकर अपने वैश्विक संस्कृति के संवाहक लोगों के वीरोचित कृत्यों को उन्हीं इतिहासकारों की दृष्टि से देखा और माना जो उन्हें हर दृष्टि से हेय बनाकर प्रस्तुत कर रहे थे। विशेषत: तब जबकि संसार के लिए सदा ही वैश्विक दृष्टिकोण अपनाकर चलना उत्तम होता है, और पाशविक दृष्टिकोण अपनाकर चलना हेय होता है।
अत: हमें अपने ही विषय में भ्रांत धारणाओं को धूलि धूसरित कर देना चाहिए और सत्य का तथ्यों के आधार पर महिमामंडन करना चाहिए।
खिलजी-काल में जिन लोगों ने जहां भी और जैसे भी अपने प्राणोत्सर्ग कर स्वतंत्रता की ज्योति को जलाये रखने का कार्य किया। उनके बलिदानों को भी विदेशी आक्रांताओं के दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता नही है। बलिदानों को बलिदानों जैसा सम्मान ही मिलना चाहिए। ‘सार्थक इतिहास बोध’ की यह पहली शर्त है।
पूर्णत: विद्याविहीन था अलाउद्दीन
तारीखे फीरोजशाही का लेखक हमें बताता है-”सुल्तान अलाउद्दीन ऐसा बादशाह था जिसे किसी विद्या की जानकारी नही थी। वह कभी आलिमों के साथ उठता बैठता भी नही था। तब वह सिंहासनरूढ़ हुआ तो उसके हृदय में यह बैठ गया कि राज्य-व्यवस्था तथा शासन प्रबंध एवं शरीअत के आदेश और बातें एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। बादशाही की बातें बादशाह से संबंधित हैं और शरीअत के आदेश काजियों तथा मुफ्तियों के सुपुर्द हैं। उपरोक्त विश्वास के अनुसार राज्य-व्यवस्था में वह जो कुछ उचित समझता चाहे वह शरा के अनुसार हो चाहे शरा के विरूद्घ कर डालता था। राज्य व्यवस्था के विषय में किसी मसले अथवा खयात के विषय में जानकारी प्राप्त न करता था। बुद्घिमान लोग उसके पास बहुत कम आया जाया करते थे।”
अलाउद्दीन ने एक बार अपने काजी मुगज से कहा भी था-”काजी मुगज मैंने कोई किताब नही पढ़ी और न पढ़ा लिखा हूं, किंतु कई पुश्त से मुसलमान हूं तथा मुसलमान का पुत्र हूं। विद्रोह को रोकने के लिए जो कुछ भी राज्य के हित में अच्छा समझता हूं, वही आदेश लोगों को देता हूं। लोग (विशेषत: हिंदू) विरोध तथा षडय़ंत्र करते हैं, मेरी आज्ञाओं का पालन नही करते तो मुझे इस बात की आवश्यकता होती है कि उनके विषय में कड़े से कड़े दण्ड दिये जाने का आदेश दूं, जिससे वे लोग मेरे आज्ञाकारी बन जावें।”
इस कथन से सिद्घ होता है कि केवल तलवार के बल से ही अलाउद्दीन सल्तनत चला रहा था, और वह भारत के स्वतंत्रता सैनानियों को कड़े से कड़ा दण्ड देकर उन्हें अपने अधीन रखने को ही बादशाहत को चिरायुष्य प्रदान करने का एकमात्र कारण मानता था। जो बादशाह स्वयं को जाहिल तथा अनपढ़ घोषित करता है और तलवार को ही सारी समस्याओं का एक मात्र समाधान मानता है, वह कभी इतिहास का नायक नही हो सकता। इतिहास नायक वही बना करता है जो अपनी प्रजा के लिए चौबीसों घंटे उसका सेवक बनकर प्रस्तुत रहता है। जिससे दुष्ट आतंकित हो और सज्जनों को आनंद मिले वह शासक ही वास्तविक शासक होता है।
……तो दिल्ली हाथ से निकल जाती
अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मिनी के बौद्घिक चातुर्य से एक बार चित्तौड़ से पराजित होकर लौटा था पर दूसरी बार जब उसने चित्तौड़ को परास्त कर दिया तो विजयोत्सवों में आनंदित होकर अभी अपनी पीठ को थपथपा ही रहा था कि देश पर मुगलों के आक्रमण की सूचना उसे मिली।
‘तारीखे फीरोजशाही’ से हमें ज्ञात होता है कि मुगलों का नेता ”दुष्ट तुरंगी 30-40 हजार सवार लेकर धावे मारता हुआ पहुंच गया और (राजधानी दिल्ली में) यमुना तट पर डेरे डाल दिये। प्रजा का शहर से आना-जाना भी रूक गया। मुगलों ने दिल्ली को इस प्रकार चारों ओर से घेरा कि उसके लिए खाद्य सामग्री का आना-जाना तो बाधित हो ही गया, साथ ही किसी भी प्रकार की बाहरी सैन्य सहायता का पहुंच पाना भी असंभव हो गया। ‘तारीखे फीरोजशाही’ के अनुसार मुगलों के अत्यधिक होने तथा उनके टूट पडऩे के भय से सुल्तान को अपनी सेना के चारों ओर खाई खुदवानी पड़ी। मुगलों के आक्रमण का भय तथा मुगलों के प्रति दिल्ली सल्तनत के मन में चिंता जितनी उस वर्ष देहली में देखी गयी उतनी किसी वर्ष तथा किसी युग में भी न देखी गयी। यदि फिरंगी यमुना तट पर एक मास और रूक जाता तो देहली में हाहाकार मच जाता, और देहली हाथ से निकल जाती।
उस समय लोग इस्लामी सेना को मुगलों से क्षति न पहुंचने और शहर दिल्ली के सुरक्षित रह जाने को ही अपने युग की एक अद्भुत उपलब्धि समझते थे, कारण कि मुगलों ने उस समय अत्यधिक सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया था। सुल्तान के सौभाग्य से मुगल सेना पर्याप्त संख्या में होकर भी सुल्तानी सेना से युद्घ न कर सकी।
मुगल सेना अपने वर्चस्व की लड़ाई तो जीत गयी थी, पर अलाउद्दीन घबरा भी गया, उसकी सेना भी पानी-पानी हो गयी। इस पर भी मुगलों को सम्भवत: ऐसा लगा कि सुल्तानी सेना के द्वारा घुटने न टेकने के पीछे कोई दूसरा कारण है और वह यही हो सकता है कि सुल्तान को किसी अन्य क्षेत्र से प्रबल सहायता मिलने वाली है। इस मनोवैज्ञानिक प्रभाव के पीछे एक कारण सुल्तान की चित्तौड़ विजय भी थी। मुगलों को लगा कि जो सुल्तान अभी-अभी चित्तौड़ को जीतकर लौटा है उसे यदि हिंदू सहायता मिल गयी तो क्या होगा? हमने यह प्रसंग यहां इसलिए उल्लेखित किया है कि अलाउद्दीन क्रूर तो था परंतु वीर नही था, मुगलों से वह कांप रहा था, यदि भारतीय राज्य शक्ति भी इसी प्रकार उसकी राजधानी पर एक बार मिलकर आक्रमण कर देती तो दिल्ली को मुगल तो नही ले सके थे, पर भारत के लोग ले सकते थे। ऐसी स्थिति में सुल्तान के लिए मरने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नही रह पाता।
जनता को अलाउद्दीन की मृत्यु पर प्रसन्नता हुई
अपनी क्रूरता और दमनपूर्ण नीतियों के कारण अलाउद्दीन खिलजी एक लोकप्रिय शासक नही बन पाया था। उसकी कठोरता ने खिलजी वंश का कोई योग्य उत्तराधिकारी भी तैयार नही किया।
वह हिंदू प्रतिरोध से सदा सशंकित रहा और इसीलिए जनता पर भांति-भांति के अत्याचारों को कर करके उसे आतंकित करता रहा। इसलिए जब 1316 ई. में वह मरा तो लोगों ने प्रसन्नता की अभिव्यक्ति की। ‘इलियट एण्ड डाउसन’ के अनुसार (अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु पर) प्रत्येक घर में ढोल एवं नगाड़े बजाये गये, क्योंकि बाजार के लोगों ने अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु पर खूब खुशियां मनाईं थीं।’
समकालीन इतिहास लेखकों की साक्षी है कि अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात कुतुबुद्दीन खिलजी के शासनकाल में मुसलमान व्यापारी जनता की चमड़ी तक उधेड़ लेते थे, ….कर वसूली के अफसरों के लिए सुनहरी अवसर आया हुआ था, मुसलमानों में व्यभिचार फैल गया था और हिंदुओं ने विद्रोह (स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल) कर दिया था।
अत: हिंदुओं का सल्तनत के विरूद्घ प्रबल प्रतिरोध मुस्लिम शासकों द्वारा प्रायोजित व्यापक नरसंहारों और अलाउद्दीन खिलजी के घृणित अत्याचारों के मध्य भी बना रहा। हिंदुओं की इस प्रतिरोध की भावना की निरंतरता ने भारतीय राष्ट्र को संजीवनी देने का काम किया। देश की जीवन्तता और धर्म की प्रवाहमानता बनी रही जिससे हम और भी अधिक संघर्षशील होकर निकले। हमारे इन्हीं दिव्यतम देशभक्ति के अभिनंदनीय गुणों को देखकर ही अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’ के तृतीय भाग के पृष्ठ 1 पर सावरकर लिखते हैं कि-”हिंदू राष्ट्र के हमारे पूर्वज देव सम्राट योद्घा, वैदिक ऋषि या पौराणिक महाकाव्यवाद जिन्हें दैत्य, दानव, राक्षस आदि अंधेरी, मायावी, क्रूर किंबहुना, नरभक्षी शत्रुओं से मोर्चा लेना पड़ा अपने प्रतिस्पद्र्घियों से कहीं अधिक अंधेरी, मायावी, क्रूर और सवाए राक्षस बने। उन्होंने अपने शत्रु के अनुरूप ही अपनी युद्घ नीति को मोड़ दिया, और जैसे को तैसा वाला आचरण किया। यही कारण है कि उस युग में हमारे पूर्वज सफल रहे, फलस्वरूप हमारा राष्ट्र प्रबल से प्रबलतर और विस्तृत होता गया।”
वीर सावरकर जी के इस कथन को यदि मध्यकालीन भारत के हिंदू प्रतिरोध से जोड़कर देखा जाए तो उस समय राष्ट्र वासियों में देशधर्म के प्रति मरने-मारने की भावना के विद्यमान रहने के कारण ही हिंदू और हिन्दुत्व की रक्षा हो सकी। इस काल में राष्ट्र का प्रबल तर होते जाने या विस्तृत होते जाने का यही अर्थ था कि जैसे भी हो स्वयं को बचाओ, अपनी संस्कृति को बचाओ, अपने धर्म को बचाओ। …महा अत्याचारों के उस काल में ऐसी भावना का मिलना बहुत बड़ी बात थी। इसी के कारण अलाउद्दीन खिलजी जीतकर भी हार गया और हिंदू हारकर भी जीत गये। इतिहास का यह कौतूहल है, जिसके रहस्य से अब पर्दा उठना ही चाहिए। उद्यम और पुरूषार्थ की आवश्यकता है, इतिहास के इस अंधकार से बाहर निकलने के लिए। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत