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मुद्दा

प्रायोजित सम्मान और हमारा जीवन

डॉ.चन्द्रकुमार जैन

विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग और कई परिवार बहुत समय तक लोकप्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं, बहुत से व्यापारी पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचार-धारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्त्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है।
स्मरण रहे कि अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति ईमानदारी और सहयोग की रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं, और उन्नति करते जाते हैं। पर उनकी विचारधारा में गैर-ईमानदारी, शोषण, गबन, बदनीयती और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उनकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती है। परिवार की नयी पीढ़ी आदर्शहीन या दिशाहीन होकर रह जाती है। प्रायोजित शानशौकत और झूठी इज्जत का दिखावा अब लोगों को रास नहीं आता है। ये बात और है की लोक व्यवहार में आमतौर पर लोग खामोश ही रहते हैं लेकिन उस खामोशी में छुपे इंकार से भला ऐतराज़ कैसे किया जा सकता है ?
भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत गरिमामय सूत्र है – सत्यम, शिवम्, सुंदरम। विचारों की शुद्धता के लिए इस सूत्र को अपनाना चाहिए। पैसा, प्रतिष्ठा और काम ये हमारे विचारों के स्वार्थ केंद्र हैं। सत्य, शिव और सैंदर्य, ये परमार्थ के केंद्र हैं। एक में स्वहित तो दूसे में सर्वहित समाहित है। यदि हम सत्य का चिंतन निरंतर करेंगे तो सत्य जीवन में अवतरित होने लगेगा। अगर हम शिव अर्थात कल्याण का चिंतन करेंगे तो स्वयं शिवत्व के अधिकारी बन जाएंगे। इसी तरह यदि हम सैंदर्य की उपासना करेंगे तो हमंरी चेतना भी सुन्दर होने लगेगी। बात साफ़ है कि जिसके विषय में हम सोचते हैं, उसके हम स्वामी बनते जाते हैं।
विचारों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। शरीर का प्रभाव व्यवहार पर पड़ता है। हम स्मरण रखें कि सत्य सृष्टि का महानतम तत्त्व है। सत्य अमृत है, शास्वत है। सत्य स्वयं प्रकाश है। जो अपने चिंतन और आचरण में सत्य को आत्मसात कर लेता है, सत्य उसके जीवन रथ का सारथी बन जाता है। जिससे भीतर की रौशनी प्रकट हो जाए वह शिव है। वही कल्याणप्रद है। और जिसमें कल्याण हो सबका वही सत्य है। इसलिए कहा गया है सत्य ही शिव और शिव ही सुन्दर है। शिवत्व का सम्बन्ध हमारे जीवन से है, मन से है। शिवम् को जीवन में उतारने के लिए हम वहीं काम करें जिसमें मंगल हो, कल्याण हो, मानवता का हित हो, भलाई हो। तीसरी बात है – सुंदरम। हम याद रखें कि सौंदर्य का सम्बन्ध सूरत भर से नहीं, ह्रदय से है। सौंदर्य जीवन की परिपूर्णता और उदारता का दूसरा नाम है। वह अंतरतम की सुंदरता ही है जो मनुष्य और शेष संसार के बीच समझ, सहकार, सहयोग और समन्वय का सम्बन्ध जोड़ती है। सुन्दर विचार और भाव के साथ नज़रिया भी सुन्दर हो तो सत्यम, शिवम् की साधना सफल हो जाएगी।
हम गहराई में उतर कर देखें तो विचारों की सुंदरता व्यक्ति को सर्वांग सुन्दर बना देती है, क्योंकि तब भीतर का सौंदर्य प्रकट होता है। मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी को ही ले लीजिए। वृद्धावस्था में भी उनमें न जाने ऐसा क्या आकर्षण था कि असंख्य लोग बरबस उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। पता है वह क्या था ? उनकी बड़ी सोच, महान दृष्टि और उनका सुन्दर अंतस्तल। हमारे विचार हमें महान बनाते हैं। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने विचारों पर भी नज़र रहें कि वे भटक न जाएँ। कितना अच्छा हो कि हम सही सोचें, सुन्दर सोचें। सही जानें, सुन्दर जानें। सही देखें, सुन्दर देखें। सही बोलेन, सुन्दर बोलेन और सही कैन, सुन्दर करें। सही विचार तो आईने के समान होते हैं।
मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। व्यापारिक सफलता, असफलता, संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती, जीवन-तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ मिल कर उसके मानस में जगह बना लेते हैं। यही कारन है कि मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर।
विचार-सूत्र से ही सम्पूर्ण जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने स्पष्ट, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल और आलोकित होग। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनाएँ जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी। यही बात एक सामने मनुष्य के जीवन पर भी लागू होती है।
चिकित्सक अब धीरे-धीरे चिकित्सा में विचारों और मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। लोग अब यह बात मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के अधिकांश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदल दिया जाये तो वे रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए हैं।
बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है और उसे खूब अच्छी तरह देख-भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता। तब भी रोगी अपने को दिन भर भला-चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन-तत्व को प्रोत्साहित करता और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।
जिस प्रकार उपयोगी, स्वस्थ और सात्विक विचार जीवन की सुखी व संतुष्ट बना देते हैं। उसी प्रकार क्रोध, काम और ईर्ष्या-द्वेष के विषय से भरे विचार जीवन को जीता जागता नरक बना देते हैं। स्वर्ग-नरक का निवास अन्यत्र कहीं नहीं मनुष्य की विचार-धारा में रहता है। देवताओं जैसे शुभ उपकारी विचार वाला मन की स्वर्गीय स्थिति और आसुरी विचारों वाला व्यक्ति नरक जैसी स्थिति में निवास करता है। दुःख अथवा सुख की अधिकांश परिस्थितियाँ मनुष्य की अपनी विचार-धारा पर बहुत कुछ निर्भर रहती हैं। इसलिये मनुष्य को अपनी विचार-धारा के प्रति सदा सावधान रह कर उन्हें श्रेष्ठ दिशाओं में ही प्रेरित करते रहना चाहिये।

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