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पेशावर से शुरू हो सकता है नया दौर

पेशावर में हुए हत्याकांड ने पाकिस्तान को हिलाकर रख दिया है। अब तक पाकिस्तान में हजारों लोग आतंकवाद के शिकार हुए हैं लेकिन डेढ़ सौ बच्चों और अध्यापकों की निर्मम हत्या ने पाकिस्तान के हुक्मरानों को भी जगा दिया है। पाकिस्तान के किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार बोला है कि आतंकवादी अच्छे और बुरे नहीं होते। वे सब बुरे ही होते हैं। सभी प्रकार के आतंकवादियों का जब तक उन्मूलन नहीं हो जाएगा, हम चैन से नहीं बैठेंगे।

पेशावर में मासूम बच्चों की हत्या के पहले तक पाकिस्तान की फौज और नेता भी यह मानते थे कि कुछ तालिबान अच्छे होते हैं और कुछ बुरे! अच्छे कौन होते हैं? अच्छे वे होते हैं, जिन्हें खुद सरकार ने खड़ा किया है। वे सरकार की विदेश नीति की सशस्त्र भुजा होते हैं। वे पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की बिल्कुल नहीं सुनते हैं। उनकी असली मालिक होती है, पाकिस्तान की फौज और इन्टर सर्विसेस इंटेलिजेंस (आईएसआई)। इन दोनों संगठनों ने पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को खड़ा किया। इन्हें खड़ा करने के पीछे पाकिस्तानी फौज के दो लक्ष्य थे। एक तो अफगानिस्तान और दूसरा कश्मीर! कश्मीर को झपटने के लिए पाकिस्तान ने सारे हथकंडे अपना लिये लेकिन उसके हाथ कुछ न लगा। वह संयुक्तराष्ट्र की शरण में गया, वह सेंटो जैसे सैन्य गिरोह का सदस्य बन गया, उसने तीन−तीन युद्ध लड़ लिए, उसने अमेरिका और चीन के आगे साष्टांग दंडवत कर लिए। अब उसने आतंकवाद का हथकंडा अपनाया है। वह आतंकवाद के जरिए कश्मीर को भारत से छीनना चाहता है। इसीलिए उसने आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण शिविर खोल रखे हैं। इन आतंकवादियों को इस्लाम और जिहाद के नाम पर बहकाकर भारत भेजा जाता है। यह ठीक है कि भारत में घुसकर वे जान और माल का काफी नुकसान करते हैं लेकिन भारत की सशक्त फौज और पुलिस उनका भुर्ता बनाए बिना नहीं छोड़ती। भारत में जो लोग कश्मीरियों के साथ सहानुभूति रखते हैं, वे भी नाराज हो जाते हैं। ये आतंकवादी कश्मीर के ही दुश्मन सिद्ध होते हैं। कश्मीर जहां है, वहीं खड़ा रहता है।

इसी प्रकार पाकिस्तानी फौज ने जिन तालिबान को अफगानिस्तान के पीछे लगा रखा है, उनका मकसद क्या है? बेनज़ीर भुट्टो के गृहमंत्री जनरल नसीरुल्लाह बाबड़ ने मुझे एक बार कहा कि वे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का पांचवा प्रांत मानते हैं। उन्हें अफगानिस्तान जाने के लिए किसी पासपोर्ट और वीज़ा की क्या जरुरत है? इसी मंतव्य का फौजी नाम है− सामरिक गहराई! पाकिस्तानी फौज चाहती है कि अगर भारतीय हमले का मुकाबला करते−करते उसे पीछे हटना पड़े तो वह अफगानिस्तान में जाकर वहां से भारत पर वार करे। जनरल मुशर्रफ और जनरल कयानी इस सिद्धांत का कई बार प्रतिपादन कर चुके हैं। इसीलिए पाकिस्तान ने काबुल की सरकारों पर बहुत डोरे डाले लेकिन मज़ा देखिए कि मुजाहिदीन ही नहीं, जब तालिबान की सरकार भी काबुल में बनी तो उसके साथ इस्लामाबाद के संबंध तनावपूर्ण रहे। तालिबान−शासन के दौरान ही काबुल में पाकिस्तानी राजदूतावास में आग लगा दी गई। एक अफगान राष्ट्रपति ने मुझे यहां तक कहा कि अगर भारत हमारी फौजी मदद को तैयार हो तो हम पाकिस्तान के सारे पख्तून इलाके पर कब्जा कर लें और पेशावर को भी आजाद करा लें। जाहिर है कि भारत ऐसा कभी नहीं करेगा लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों को अब एक सबक अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए कि काबुल पर कब्जा करने के चक्कर में कहीं पेशावर उनके हाथ से न निकल जाए। पाकिस्तानी फौज ने काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमले करवाए, कंधार, जलालाबाद और हेरात के दूतावासों को भी नहीं छोड़ा। उसने जरंज−दिलाराम सड़क बनानेवाले इंजीनियरों और मजदूरों की हत्या करवाई। नतीजा क्या निकला? पाकिस्तान की बदनामी बढ़ी और भारतीयों के बलिदान के प्रति अफगान लोगों की सहानुभूति! अफगानिस्तान और कश्मीर, दोनों पर छोड़े गए आतंकवादियों ने पाकिस्तान को सारी दुनिया में बदनाम कर दिया और बदले में उसे कुछ भी हाथ नहीं लगा।

 हां, इतना जरुर हुआ कि इन्हीं आतंकवादियों के कई गुट पाकिस्तान के अंदर ही सक्रिय हो गए। उन्होंने जितने लोग भारत और अफगानिस्तान में मारे, उनसे कई गुना ज्यादा पाकिस्तान में मार दिए। इन्हीं बेलगाम आतंकवादियों को पाकिस्तान के नेता बुरे आतंकवादी कहते थे। इन बुरे आतंकवादियों के खिलाफ ही पाकिस्तान की फौज को उत्तरी वजीरिस्तान में बाकायदा युद्ध छेड़ना पड़ा। लगभग 10 लाख लोग विस्थापित हुए। सैकड़ों आतंकवादी मारे गए। आतंकवादी कहते हैं कि इसी का बदला उन्होंने पेशावर में लिया है। फौजियों के बच्चों को मारकर इन आतंकवादियों ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। इन आतंकवादियों और अफगान आतंकवादियों की मिली−भगत मानी जा रही है। इसीलिए सेनापति राहील शरीफ को काबुल जाना पड़ा है। जिन पर तकिया थे, वही पत्ते हवा देने लगे! कोई आश्चर्य नहीं कि जो आतंकवादी भारतीय कश्मीर के लिए नियुक्त किए गए हैं, वे भी पाकिस्तानी कश्मीर के लोगों से हाथ मिला लें और पाकिस्तानी फौज को अपने कब्जाए हुए कश्मीर में ही लेने के देने पड़ जाए।

 कितनी हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण बात है कि जनरल मुशर्रफ और हाफिज सईद जैसे लोगों ने पेशावर हत्याकांड का दोषी भारत को बताया है। उनका कहना है कि अफगान आतंकवादियों ने भारत के इशारे पर पाकिस्तानी बच्चों को मारा है। यह पाकिस्तानी जनता को बेवकूफ बनाने की घिनौनी हरकत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शोक−संवेदना ने पाकिस्तानी लोगों के दिलों को पिघला दिया है। क्या आज तक किसी देश के पड़ौसी देश ने अपने करोड़ों बच्चों से ऐसी शोक−संवेदना व्यक्त करवाई, जैसे भारत ने पाकिस्तानी बच्चों के लिए करवाई है? हम दोनों देशों के बीच विदेश सचिवों की वार्ता टूटने का रोना क्यों रोए? पेशावर ने दोनों नेताओं के बीच सीधी वार्ता शुरु करवा दी है। पाकिस्तान के (विदेश मंत्री) राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज ने मुझे फोन पर बताया कि ‘मोदीजी की सहानुभूति का हमारे देश में जबर्दस्त असर हुआ है।’ इसी का नतीजा है कि मुबई हमले के सरगना जकीउर्रहमान लखवी को अदालत ने छोड़ा तो सरकार ने दुबारा पकड़कर जेल में डाल दिया। दक्षेस ने 2008 में आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया था लेकिन भारत और पाकिस्तान जब तक एक मन होकर परस्पर सहयोग नहीं करेंगे, हमारे मासूम बच्चे इसी तरह मारे जाते रहेंगे। मियां नवाज़ शरीफ ने अफगानिस्तान का नाम तो लिया लेकिन भारत का नाम नहीं लिया। उन्होंने कहा कि ‘अफगानिस्तान और सारे दक्षिण एशिया’ से आतंकवाद को खत्म करेंगे। ‘भारत’ से क्यो नहीं? अब जरुरी यही है कि पाकिस्तान की फौज और सभी नेता आतंकवाद के समूलनाश के लिए एकजुट हो जाएं। यदि भारत−पाक−अफगान संयुक्त मोर्चा बन जाए तो आतंकवाद का नामो−निशान तक नहीं बचा रहेगा। यदि पाकिस्तान में एक—दूसरे के कट्टर विरोधी नेताओं को पेशावर हत्याकांड ने एक कर दिया तो कोई वजह नहीं है कि इस मुद्दे पर भारत—पाक और अफगानिस्तान भी एक न हों।

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