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मोदी की मौनी-मुद्रा

संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा की बैठकें हंगामे की भेंट चढ़ गईं। कई महत्वपूर्ण विधेयक अधर में लटक गए। जिस मुद्दे को लेकर हंगामा होता रहा, उस पर भी कोई सारगर्भित बहस नहीं हुई। धर्मांतरण-जैसा गंभीर मुद्दा भी राजनीति की भेंट चढ़ गया। इसका कारण सिर्फ एक है- विपक्ष की जिद। उसकी जिद यह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही इस मुद्दे पर वक्तव्य दें। उन्होंने यह जिद क्यों पकड़ी? इसलिए कि यदि नरेंद्र मोदी धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध बोलेंगे तो उनसे ईसाई मिश्नरी और तबलीगी नाराज़ हो जाएंगे। ऐसा होने पर मोदी को घोर सांप्रदायिकता की कूची से पोत दिया जाएगा और यदि वे ‘घर वापसी’ या शुद्धि का विरोध करेंगे तो उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाएगा। विरोधियों की यह रणनीति सफल हो गई। इसीलिए 56 इंच के सीने वाले मोदी की बोलती बंद है। चुनावी सभाओं में हर मुद्दे पर दहाड़ने वाले मोदी के मुंह पर मौनी बाबा की पट्टी बांधने में विपक्ष सफल हो गया है।

लेकिन यदि शुद्ध संसदीय दृष्टि से देखा जाए तो यह विपक्ष का दुराग्रह ही है। धर्मांतरण का मुद्दा मूलतः राज्यों का विषय है। मेरी राय है कि इसे केंद्र को ही संभालना चाहिए। यदि ऐसा हो तो यह विषय गृह मंत्रालय के अन्तर्गत आएगा। अतः कायदे से गृहमंत्री को ही इस पर बोलना चाहिए। इसमें प्रधानमंत्री को घसीटने की कोई जरुरत नहीं है। सिर्फ मोदी को फंसाने के लिए राज्यसभा के समय को बर्बाद करना कैसी राजनीति है?

इस मामले में विपक्ष पटरी से नीचे उतर गया है, इसमें शक नहीं है लेकिन मोदी का मौन भी आश्चर्यजनक है। इस समय वे केवल संघ के स्वयंसेवक और भाजपा के कार्यकर्ता ही नहीं हैं। भारत के प्रधानमंत्री भी हैं। उन्हें संसद और संसद के बाहर धर्मांतरण और घर वापसी के मुद्दों पर अपनी दो टूक राय सबके सामने रखनी चाहिए। इसमें डर कैसा? संकोच कैसा? कोई बहाना क्यों? विपक्ष को यह मांग ही क्यों करनी पड़ी? इसके पहले ही मोदी हिम्मत करते तो विपक्ष को पंचर कर सकते थे। वे देश में ऐसा वातावरण पैदा कर सकते थे कि देश में सदियों से चले आ रहे अनैतिक धर्मांतरण पर कठोर प्रतिबंध लग सकता था। लेकिन अपने मानसिक अन्तर्विरोध ने उन्हें ऐसा जकड़ लिया है कि विपक्ष को अपना खोटा सिक्का चलाने का मौका मिल गया है।

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