गुरु तेग बहादुर के साथ ही बलिदान देने वाले भाई मतिदास, जिन्हें मुस्लिम ना बनने पर औरंगजेब के आदेश से आरे से बीच से चीर दिया गया था और जिनके बलिदान से भाव विह्वल हो गुरु ने उन्हें भाई की उपाधि से विभूषित किया था, के वंश में जन्मे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भाई परमानन्द एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही महान इतिहासकार, समाज सुधारक, आर्य समाज और वैदिक धर्म के सच्चे प्रचारक, करतार सिंह सराबा, भगत सिंह, सुखदेव, बिस्मिल आदि अनेक क्रांतिकारियों के प्रेरणाश्रोत, विचारक और दृष्टा भी थे|
उनके विचारों से प्रभावित होकर लाला हरदयाल सहित हजारों भारतीय अमेरिका और कनाडा से ग़दर हेतु भारत पहुंचे थे| उनके तर्क अकाट्य होते थे, जो व्यक्ति के हृदय की तह में जाकर उसके विचारों को बदल देते थे| हिंदी में भारत का गौरवशाली इतिहास लिखने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे। इतिहास-लेखन में वे राजाओं, युद्धों तथा महापुरुषों के जीवनवृत्तों को ही प्रधानता देने के पक्ष में न थे। उनका स्पष्ट मत था कि इतिहास में जाति की भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति एवं सभ्यता को भी महत्व दिया जाना चाहिए।
भाई परमानन्द का जन्म 4 नवम्बर 1876 ई. को पंजाब के झेलम ज़िले में करियाला ग्राम (अब पाकिस्तान में स्थित) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम भाई ताराचन्द्र था। सन् 1902 में पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बाद वे लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए। वे आरम्भ में ही आर्य समाज के नेता लाला लाजपत राय और महात्मा हंसराज के प्रभाव में आ गये थे। अत: डी.ए.वी. कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के साथ ही वे आर्य समाज का प्रचार भी करते रहे। भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में उनकी रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने उन्हें भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अक्टूबर 1905 में दक्षिण अफ़्रीका भेजा, जहाँ उन्होंने अथक प्रयत्नों से आर्य समाज की शाखा स्थापित की।
दक्षिण अफ़्रीका से वे इतिहास का अध्ययन पूरा करने के लिए लंदन गए, जहाँ वे श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर जैसे क्रान्तिधर्माओं के सम्पर्क में आये। 1908 में भारत आकर वे डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर में फिर से अध्यापन करने लगे। पढ़ाने के साथ-साथ वे युवकों को क्रान्ति के लिए प्रेरित करने के कार्य में भी सक्रिय रहे। सरदार अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय से उनका निकट का सम्पर्क था। इसी दौरान लाहौर पुलिस उनके पीछे पड़ गयी। सन् 1910 में भाई जी को लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया।
उन्होंने बर्मा की और फिर दोबारा दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा की। इस बीच उन्होंने उर्दू में ‘तवारिखे उर्दू’ नामक ‘भारत के इतिहास’ की पुस्तक लिखी, जिसे सरकार ने जब्त कर लिया। यह पुस्तक ‘तवारीख-ए-हिन्द’ तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करते थे। उनके घर की तलाशी हुई और तीन वर्ष तक अच्छा चाल-चलन रखने के लिए उनसे जमानत देने को कहा गया। इस पर भाई परमानन्द ने भारत छोड़ दिया और ब्रिटेन, गायना और ट्रिनिडाड होते हुए कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका जा पहुँचे। वहाँ परमानन्द के बचपन के मित्र लाला हरदयाल ग़दर पार्टी का काम कर रहे थे।
भारत में क्रांति करने के उद्देश्य (तथाकथित ‘गदर षडयन्त्र’) से वे भारत लौट आये। उनको पेशावर में क्रान्ति का नेतृत्व करने का जिम्मा दिया गया था। 25 फ़रवरी 1915 को लाहौर में भाई परमानन्द को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा इंग्लैंड में अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध षड़यंत्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य युवकों को क्रांति के लिए प्रेरित करने और आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगाकर ‘प्रथम लाहौर षड़यंत्र केस’ के अंतर्गत फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इसका समाचार मिलते ही सारे देश के लोग भड़क उठे। इस स्थिति में सरकार ने भाई परमानन्द की फाँसी की सज़ा को रद्द कर दिया और उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर 1915 में अंडमान ‘कालापानी’ भेज दिया गया।
उन्हें 5 वर्षों तक अंडमान की काल कोठरी में कैद रहना पड़ा और भीषण यातनाओं को सहना पड़ा| वहां पर उनके और अन्य कैदियों के साथ किस तरह का कठोरातापूर्ण एवं पाशविक व्यवहार किया जाता था, किस प्रकार से उस नरक में अपार कष्टों को सहना पड़ा, इन सबका वर्णन उनकी पुस्तक ‘ कालेपानी की कारावास कहानी: आपबीती’ में देखने को मिलता है| इस पुस्तक में भाई परमानन्द द्वारा यातना के उन विकट क्षणों के वर्णन के साथ साथ उन परिस्थितियों पर उनका गहन चिंतन भी पढने को मिलता है, जिससे पाठकों को भारत के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के अध्ययन में सहायता और प्रेरणा मिलती है|
अंडमान की काल कोठरी में गीता के उपदेशों ने सदैव परमानन्द को कर्मठ बनाए रखा। जेल में ‘श्रीमद्भगवद गीता’ सम्बंधी लिखे गए अंशों के आधार पर उन्होंने बाद में ‘मेरे अन्त समय का आश्रय- गीता’ नामक ग्रंथ की रचना की। गांधी जी को जब कालापानी में परमानन्द को अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19 नवम्बर, 1919 के ‘यंग इंडिया’ में एक लेख लिखकर यातनाओं की कठोर भर्त्सना की। 1920 में सी.एफ़. एन्ड्रूज की मध्यस्थता से उन्हें रिहा कर दिया गया था।
काले पानी से मुक्ति के बाद वे ‘नेशनल कॉलेज, लाहौर’ के कुलपति बने और कुछ समय तक असहयोग आन्दोलन में भी भाग लिया। किन्तु आन्दोलन बन्द होने के बाद देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुए, उन्हें देखकर भाई परमानन्द के विचार बदल गए। उन्होंने कांग्रेस पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगाकर हिन्दुओं से ‘हिन्दू महासभा’ के झंडे के नीचे संगठित होने का आह्वान किया। उन्होंने राजनीतिक रूप से सक्रिय रहते हुए हिन्दू महासभा में कई दायित्वों को निभाया एवं इस बात पर बल दिया कि हिन्दुओ को अपने अस्तित्व को बचाए रखने का प्रयास करना चाहिए वरना उनका नाम केवल इतिहास की पुस्तकों में होगा|
उनके शब्दों में, ” मैं चाहता हूँ कि हिन्दू जाति के लोग मुसलमानों और अन्यों के साथ अपने से बढ़कर प्रेम रखें;किन्तु साथ यह भी आवश्यक है कि वे अपने अस्तित्व को बनाये रखें| स्वयं को नष्ट करके या कमजोर बनकर हम दूसरों से क्या प्यार करेंगे और उनके लिए या देश के लिए क्या कर पाएंगे”| इस सम्बन्ध में आर्य समाज की महत्ता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, “मैं समझता हूँ कि हिन्दू जाति की सभ्यता और धर्म, जो कि उसकी आत्मा है, आर्यसमाज ने ही जीवित की है और वही उसकी रक्षा कर सकता है।” हिन्दुओं का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए 1933 में वे इंग्लैंड गए और उसी वर्ष महासभा के अजमेर अधिवेशन की अध्यक्षता की।
भाई परमानन्द ने कई रचनाएँ भी की हैं। इनके द्वारा लिखित हिन्दू संगठन, भारत का इतिहास, दो लहरों की टक्कर, मेरे अंत समय का आश्रय- गीता, पंजाब का इतिहास, वीर बन्दा वैरागी, मेरी आपबीती,. हमारे राष्ट्र पुरुष आदि साहित्य की कृतियाँ आज भी इस महान विभूति की पावन स्मृति को अमिट बनाये हुए हैं। इनके द्वारा रचित कृति ‘भारत का इतिहास’ को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था।
दरअसल भाई परमानंद की पुस्तकें वर्तमान पीढ़ी के लिए पूर्णत: मौजूं हैं। इन पुस्तकों ने स्वतन्त्रता के छह दशक बाद भी उन्हीं सवालों को फिर से प्रासंगिक बना दिया है।
ये पुस्तकें अपने पाठकों को एक तरफ गुलामी के दिनों और उन भयावह त्रासदियों को याद कराती हैं, वहीं आजादी के औचित्य ढूँढने को भी विवश करती हैं। क्यों आजादी के पहले के गरीब आज भी गरीब हैं, क्यों तब के दलित आज आज भी दलित हैं? आखिर क्यों एक बड़ा बौद्धिक तबका जो यूरोपीय अधिनायकवाद का गौरवगान करता था आज भी भारत की बुद्धि पर सवार है! वह आज भी यूरोप की जी-हुजूरी में लगा है। भाई जी की पुस्तकें इन सवालों को कुरेदने मदद करती हैं।
ब्रिटिश सरकार ने 3 जून, 1947 को एक घोषणा की कि भारत को दो भागों में विभाजित कर दिया जाएगा तथा ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तान्तरित कर देगी। भाई जी ने अपनी पूरी सामर्थ्य से इस स्थिति को टालने का प्रयास किया। मगर यह देश का दुर्भाग्य ही रहा कि वे इस आत्मघाती स्थिति को रोक नहीं सके। भारत विभाजन से भाई जी जैसे सच्चे राष्ट्रभक्त को इतना अधिक आघात पहुंचा कि वे अत्यधिक अस्वस्थ हो गए। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया तथा 8 दिसम्बर, 1947 को सदा-सदा के लिए अपनी आंखें बन्द कर लीं।