सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 12 (ग) संपूर्ण भारत ही बन जाए श्रीराम मंदिर

श्रीराम की शरणागत वत्सल भावना

   श्रीराम की शरणागत वत्सल भावना भी प्रशंसनीय है। उनकी शरण में जो भी आया उसी को उन्होंने गले लगाया । यद्यपि कई लोगों ने विभीषण के उनकी शरण में आने पर आपत्ति उठाई थी और यह शंका भी व्यक्त की थी कि यह व्यक्ति क्योंकि शत्रु पक्ष से आया है ,इसलिए बहुत संभव है कि छुपे हुए वेश में हमारा शत्रु हो ? इसके उपरांत भी रामचंद्र जी ने विभीषण का हार्दिक स्वागत किया और उन्हें गले लगाकर अपने शिविर में शरण दी। इसके पश्चात विभीषण के प्रति श्रीराम सदैव उदार बने रहे। इसी समय श्रीराम ने विभीषण को यह वचन भी दे दिया था कि वह रावण का अंत करके उन्हें लंका का राजा बनाएंगे। इतना ही नहीं इसके बाद श्रीराम उन्हें लंका के राजा के रूप में ही संबोधित भी करने लगे थे। जब लक्ष्मण को शक्ति लगी तो उस समय श्रीराम को जहां अन्य कई बातों की चिंता सता रही थी वहीं एक चिंता यह भी थी कि उन्होंने विभीषण को जो वचन दिया था, अब उसका पालन कैसे होगा ? शरणागत वत्सलता जहां श्री राम के भीतर कूट-कूट कर भरी थी, वहीं किसी को दिए गए वचन का पालन भी पूरा होना चाहिए – उन्हें इस बात का भी हर क्षण ध्यान रहता था। रामचंद्र जी की इस अवस्था का वर्णन करते हुए किसी कवि ने लिखा है :-

राज छुटे कर सोच नहीं, नहिं सोच पिता सुर धाम गए को।
अधि अनाथ को सोच नहीं, नहिं सोच कछु बनवास भये को।।
सीय हरे कर सोच नहीं , नहिं सोच दशानन रारि भये को।
शक्ति लगे कर सोच नहीं इक सोच विभीषन बाँह गहे को।।
तू तो चल्यो सुरधाम सहोदर ,प्रान हमार तोहि संग जहैं।
देवर कन्त की मृत्यु सुने सिय व्याकुल हुई समुंदर समैंहैं।।
धीरज धारि के धीरज धुरन्धर बानन ते सब सन बुझैहैं ।
व्याकुल होइ कहें रघुनंदन, कौन के भौन विभीषण जहैं ।।

     भारत के अनेकों राजाओं ने शरणागत को शरण देने के ऐतिहासिक कार्य किए हैं । यद्यपि कालांतर में हमारी यह महान परंपरा उस समय ‘सद्गुण विकृति’ में परिवर्तित हो गई जब हमने शत्रु को भी शरणागत होने पर शरण दी और उसने हमें धोखा दिया। विदेशी आक्रमणकारियों के मनोभावों को समझने में चूक करने के कारण और अपने परंपरागत गुणों से अंधा होकर बंधे रहने के कारण हमारे कई राजाओं ने मुसलमानों से धोखे खाए। इसके उपरांत भी इस सद्गुण को थोड़ी देर के लिए इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि हम धोखा खाने की कीमत पर भी शरणागत को शरण देना अपना धर्म समझते रहे हैं। यद्यपि श्री राम ने किसी भी शरणागत से धोखा नहीं खाया। इसका कारण यह भी था कि श्री राम की नजरें बड़ी पारखी थीं। धोखा देने वाले व्यक्ति को उनकी नजरें पहचान लेती थीं। आज के संदर्भ में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार रोहिंग्या और अन्य मुसलमान ‘शरणागत’ का रूप लेकर भारत भूमि पर अपने अपवित्र इरादों को हृदय में संजोकर आने का कुचक्र रच रहे हैं , उनसे आज का राजनीतिक नेतृत्व सजग और सावधान रहे।  श्रीराम के राज्य में आज भी ऐसी व्यवस्था की जाती कि जो सद्भाव लेकर शरणागत होना चाहता है उसे शरण दो और जो ठगी के भाव से छद्म वेश धारण कर भारत में प्रवेश करना चाहता है उसके रास्ते रोक दो।
  2019 में जब धारा 370 को हटाने का प्रस्ताव लेकर वर्तमान मोदी सरकार आई थी तो उस समय देश के गृह मंत्री अमित शाह जी ने इस विषय में बोलते हुए कहा था कि शरणार्थी और घुसपैठिए दोनों में अंतर है। जो भारत भूमि को अपनी भूमि मानकर शरण लेना चाहता है उसे शरण देना हमारा धर्म है और जो ठगी के भाव से देश को तोड़ने के इरादे लेकर भारत में प्रवेश करना चाहता है उसका रास्ता रोकना भी हमारा धर्म है।
       वास्तव में ऐसी ही पारखी नजर और राष्ट्रवादी सोच नेतृत्व की होनी चाहिए। तभी हम वास्तव में ‘रामराज्य’ स्थापित कर पाएंगे। ‘शरणागत’ और ‘घुसपैठिये’ में अंतर समझकर काम करने की आवश्यकता है। किसी भी मानवीय मूल्य की अपनी सीमा होती है उस सीमा के अंतर्गत ही उसे स्वीकार करना चाहिए।  जब वह मूल्य हमारे लिए घातक बन जाए तो उस समय उसे छोड़ना ही उचित होता है। श्रीराम ने कभी भी किसी व्यक्ति से धोखा नहीं खाया तो इसका अभिप्राय यही था कि वह पूर्ण सजग होकर निर्णय लेते थे।
   निर्णय लेते समय सरकारों का जागरूक रहना बहुत आवश्यक है। देश की आजादी के बाद की बनी सरकारें कई निर्णय सोते-सोते ले गयीं। जिनमें भारत के संविधान में अनुच्छेद 35a और धारा 370 को स्थापित कराने के निर्णय तो सम्मिलित थे ही देश को धर्मनिरपेक्ष बनाकर हिंदू विनाश की योजना पर काम करने का निर्णय भी ऐसा ही निर्णय था । जिससे देश का अहित हुआ। अब से पहली सरकारें शरणागत हिन्दू को भगाती रहीं और रोहिंग्या आदि मुस्लिम ‘घुसपैठियों’ को शरण देती रहीं। यद्यपि उन सरकारों के यह समझने के पर्याप्त कारण थे कि किसी भी देश से भारत आने वाला ‘हिंदू’ (जिनमें सिक्ख भी सम्मिलित हैं) यदि वहां की सरकारों या समाज से उत्पीड़ित होकर यहां आ रहा है तो वह भारत को अपना देश मानकर आ रहा है। जिसे शरण देना अनिवार्य है। इसके विपरीत कोई गैर हिंदू अर्थात मुसलमान यदि बाहर से शरणागत का नाटक करते हुए भारत में प्रवेश कर रहा है तो वह देश में आकर आग ही लगाता रहा है। उससे देश में अराजकता और आतंकवाद को फैलने में मदद मिली है।

यदि नींद में निर्णय लिए तो वंदना किस काम की ?
वंदना तभी सार्थक है जब प्रेरणा हो श्रीराम की ।।
स्वदेश हित शासन यदि कुछ काम कर सकता नहीं।
निजाम है किस काम का जो ‘नाम’ कर सकता नहीं ?

वास्तव में रामचंद्र जी ने ‘स्वराज्य’ के साथ-साथ ‘सुराज्य’ की भी आराधना की । उन्होंने अपने पूर्वजों के काल के अपने विशाल साम्राज्य को प्राप्त करने में तो सफलता प्राप्त की ही साथ ही सुव्यवस्थित शासन प्रणाली स्थापित करके ‘सुराज्य’ भी लोगों को प्रदान किया। आधुनिक काल में ऐसे बहुत से तथाकथित ‘राजनीतिक मनीषी’ हैं जो स्वराज्य को ही  स्वाधीनता का प्रतीक मान लेते हैं। जबकि यह आवश्यक नहीं कि स्वराज्य प्राप्त होने पर ‘सुराज्य’ भी स्थापित हो सकता है। स्वराज्य की आराधना एक अलग चीज है और ‘सुराज्य’ स्थापित करने की साधना एक अलग चीज है। यद्यपि यह भी सत्य है कि जो अपने शुद्ध अंतःकरण से स्वराज्य के लिए संघर्ष करता है वही सुराज्य स्थापित कर सकता है। जैसा कि रामचंद्र जी ने करके दिखाया। उन्होंने शुद्ध अंतःकरण से ‘स्वराज्य’ की आराधना की तो समय आने पर ‘सुराज्य’ भी स्थापित करके दिखाया । इसी सुराज्य को आज रामराज्य के नाम से जाना जाता है।
  यदि आज के भारत की बात करें तो आजादी से पहले जो लोग शुद्ध अंतःकरण से स्वराज्य की आराधना कर रहे थे वह सत्ता हस्तांतरण के समय 15 अगस्त 1947 को सत्ता से दूर कर दिये गए थे । उस समय देश का राज उन लोगों को दे दिया गया जो स्वराज्य (अर्थात स्वभाषा, स्वधर्म, स्वदेश , स्वसंस्कृति, स्वभूषा, स्वराष्ट्र आदि ) का अर्थ तक नहीं समझते थे।  अब क्योंकि उनकी सोच के मूल में स्वराज्य की आराधना नहीं थी तो यही कारण रहा कि  स्वतंत्र भारत में वे सुराज्य भी स्थापित नहीं कर पाए। उन्होंने देश में अनेकों वाद पैदा करके लोगों के बीच जातिवाद और संप्रदायवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियां बनाईं। इतना ही नहीं, देश में भाषावाद, प्रांतवाद, क्षेत्रवाद आदि को भी प्रोत्साहित कर लोगों के बीच दूरियां पैदा कर दीं।
    श्री राम यदि आज होते तो सारी समस्या की जड़ पर प्रहार करते । वे उन सारे वादों को देश से समाप्त करने का गंभीर प्रयास करते जिनके कारण हम निरंतर बंटते व टूटते चले जा रहे हैं।
श्री राम सारे भारतवर्ष को एक मंदिर बनाने का अनुकरणीय और सराहनीय कार्य करते । अपने इस मंदिर रूपी राष्ट्र में वे प्रत्येक व्यक्ति को ‘पूजा का अधिकार देते’ अर्थात लोगों को मौलिक अधिकार प्रदान कर धर्म को उनके लिए इतना पवित्र बना देते जो उनकी इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति का माध्यम बन जाता। आज की भांति मजहब को लेकर होने वाले लड़ाई झगड़े तो तब पूर्णतया समाप्त हो गए होते। श्रीराम लोगों को व्यक्तिगत पूजा के लिए भी स्वतंत्रता प्रदान करते। इसके साथ-साथ श्रीराम मौलिक कर्त्तव्यों का भी विधान – प्रावधान करते और उनको इतनी कठोरता से पालन करवाते कि व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करने की सोच भी नहीं पाता। आज इसके उलट हो रहा है। शासन स्तर पर हो या सामाजिक स्तर पर हो -लोग अधिकारों के लिए तो संघर्ष कर रहे हैं परंतु कर्तव्यों के निर्वाह के प्रति पूर्णतया उदासीन हैं।

मंदिरों को धर्म स्थल कहना नहीं तब व्यर्थ है।
जब प्रेय इनसे दूर हो और श्रेय ही अभीष्ट है।।
राष्ट्र उन्नत होता तभी जब धर्म का ही राज हो।
जब न्याय देना तोलकर – राज का ही धर्म हो।।

हमारे इस राष्ट्र रुपी मंदिर के उपासक मुसलमानों को भी बनना चाहिए।  उन्हें यह पता होना चाहिए कि भारत के इसी राष्ट्र रुपी मन्दिर में उन्हें शांति प्राप्त हो सकती है। भारत के अधिसंख्य मुसलमान आज इस षड्यंत्र में सम्मिलित हैं कि मंदिर संस्कृति समाप्त कर भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाकर शांति स्थापित की जाए । इसके संदर्भ में उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि
1946 में इस्लामी देशों की कुल संख्या 6 थी। आज यह संख्या बढ़कर 57 हो चुकी है! 6 से 57 तक का सफर तय कर लिया पर शांति प्राप्त नहीं हुई । क्योंकि प्रत्येक मुस्लिम देश में इस समय खून खराबा अपने चरम पर है। यदि यही शांति है तो फिर नरक क्या होगा ? शांति की खोज में शांति को ही खो दिया। किसी भी अनुसंधान का ,खोज का या तलाश का यदि परिणाम यही आता है कि जिस चीज को खोजने चले थे उसके उल्टे परिणाम हाथ लगे तो इससे बड़ी विडंबना कोई नहीं हो सकती।
  इस्लाम को ‘शांति का मजहब’ कहने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान में ,अफगानिस्तान में, सीरिया में, मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है ? यमन, इराक ,लीबिया, मिस्र ,सोमालिया, बलूचिस्तान आदि में भी इस्लाम के मानने वालों पर अमानवीय अत्याचार कौन कर रहा है? कौन उनका हत्यारा है ? और कौन उनका भक्षक बन चुका है? इन लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि जब इन देशों में कभी वैदिक धर्म का डंका बजा करता था तो यहां पर वास्तविक अर्थों में शांति हुआ करती थी। शांति के उपवन को आग लगाकर हाथ सेंकने वाले लोग ही झूठा भ्रम फैला रहे हैं कि देखो ! हमने शांति स्थापित कर दी। शांति रहस्यमय रूप से से गायब है….!!  अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लेबनान, यमन और मिस्र को क्या बजरंग-दल या हिन्दू-महासभा ने बर्बाद किया है ? या वहां दंगा करने के लिए आर .एस. एस. के लोग गए थे?
इस प्रश्न पर हमारे देश के उन सभी सेकुलरिस्टों को भी चिंतन करना चाहिए जो देश में दंगा – फसाद और उपद्रव के लिए केवल हिंदूवादी दलों को कोसते रहते हैं और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम दंगाइयों का समर्थन करते हैं।
  हमें साथ चलने के लिए हाथ तो मिलाना पड़ेगा पर हाथ मिलाने से पहले भी दिलों को मिलाना पड़ेगा । इसके लिए संपूर्ण राष्ट्र को शांति का प्रतीक बनाने के लिए इसे मंदिर में परिवर्तित करना ही पड़ेगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

  

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