पुण्य प्रसून वाजपेयी
सपने जगाने वाली सियासत से बचायेगा कौन ?
सपने विकास के जागे रुबरु गोडसे से लेकर धर्मांतरण से होना पड़ा। सपने भ्रष्टाचार और बाप बेटे की सरकार के खिलाफ जागे रुबरु घोटले की जांच में फंसे रघुवर दास और उमर अब्दुल्ला तक से होना पड़ रहा है। सपने दामाद के खिलाफ जागे तो सरकारी फाइल ने ही धोखा दे दिया। सपने मुंबई में वसूली करने वालों के खिलाफ जागे तो रुबरु वसूली करने वालो के साथ सरकार बनाने और बचाने के खेल से होना पड़ा। अब सपने दिल्ली पर आ टिके हैं क्योंकि पाश कह गये हैं सपनों का मरना सबसे खतरनाक होता है। तो दिल्ली से दिल्ली तक के सपने का इंतजार फिर से जाग रहा है। क्योंकि बदलाव का सपना सबसे पहले दिल्ली ने ही देखा। और २०१३ में सपने को पूरा भी किया। और उसके बाद २०१४ की हवा में बदलाव का सपना कुछ इस तरह उड़ान भरने लगा कि केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर तक की तो सियासत पलट गई। हर जगह कांग्रेस सत्ता में थी और हर जगह अब बीजेपी की सत्ता है या बननी वाली है। कांग्रेस हर जगह बूरी तरह पिटी। और हर जगह भगवा खूब लहराया। अब याद कीजिये तो बदलाव की पहली नींव दिल्ली में ही पड़ी थी और वह साल २०१४ नहीं बल्कि २०१३ था। और जिस कांग्रेस का सूपड़ा साफ जनता ने किया, उसी जनता ने पहला पत्थर कांग्रेस के खिलाफ दिल्ली में ही उठाया। हैट्रिक बनाने वाली शीला दीक्षित दिल्ली में ना सिर्फ खुद हारी बल्कि दिल्ली के इतिहास में कांग्रेस की सबसे बूरी गत दिल्ली ने देखी और कांग्रेस को दिखायी। और उसके बाद का सिलसिला तो मोदी-मोदी के नारो में जिस तेजी से चुनाव में घुमा उसने अर्से बाद देश के तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि कल तक की बीजेपी के गागर में वोटो का सागर यूं ही नहीं समा रहा है। बल्कि किसी पार्टी का कोई चेहरा ऐसा बचा ही नहीं है जिसके आसरे सपने भी पाले जा सकें। तो २०१४ के बीतते ही पहला सवाल हर किसी के जहन में यही आयेगा कि जिस दिल्ली ने काग्रेस की जमी जमायी १५ बरस की सत्ता को उखाड़ फेंका, क्या वही दिल्ली एक बार फिर दिल्ली के तख्त तले दिल्ली सरीखे केन्द्र शासित राज्य के जरीये ही कोई नया सपना दिखा सकती है। या फिर मोदी मोदी की गूंज दिल्ली को भी हड़प लेगी। दिल्ली के सपनों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या साल भर के भीतर दिल्ली के नये सपने मोदी के सपनों को चुनौती दे सकते हैं। या फिर देश के साथ कदमताल करने के लिये दिल्ली तैयार है। देश के साथ कदमताल का मतलब मोदी सरकार है। और नये पैगाम का मतलब मोदी सरकार का विकल्प है।
वैसे बिहार चुनाव से पहले मोदी सरकार का चुनावी विकल्प बनने की तैयारी में जनता परिवार भी खूद को धारदार बना रहा है। लेकिन दिल्ली का सवाल चुनावी विकल्प बनना या बनाना नहीं बल्कि विकास के नाम पर धारदार होती सत्ता को सामाजिक-आर्थिक बिसात पर चुनौती देना और सत्ता में सिमटती जनता की मजबूरी को मुक्त कराना है। यह सवाल दिल्ली के चुनाव में कैसे उठ सकता है या इसे कौन उठा सकता है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन दिल्ली चुनाव का दूसरा मतलब शायद चुनावी प्रबंधन का विकल्प बनान भी हो चला है। जाहिर है ऐसे मोड़ पर दिल्ली के पन्नों को पलटें तो १४ फरवरी २०१४ के बाद तीन महीने तक दिल्ली में हारी कांग्रेस की अगुवाई में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने ही सत्ता संभाली और बीते सात महीनों से बीजेपी की अगुवाई में वही उप-राज्यपाल नजीब जंग ही दिल्ली को चला रहे हैं। यानी जिस शीला दीक्षित के विकास की अंधेरी गली को दिल्ली वालों ने पलट दिया उस दिल्ली वालों के सामने २८ दिसंबर २०१३ से १४ फरवरी २०१४ के बाद अपने दर्द का जिक्र करने वाला आया ही नहीं। और इसी दौर में देश के सारे चुनावी पर्दे बदल गये। तो दिल्ली का मतलब है क्या और होगा क्या।
दरअसल शीला दीक्षित दिल्ली में इसलिये नहीं हारी कि उन्होंने विकास नहीं किया। बल्कि हारीं इसलिये क्योंकि केन्द्र की मनमोहन सरकार के घपले घोटालों की फेरहिस्त के बीच अन्ना आंदोलन ने पहली बार देश के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि सत्ता का मतलब ताकत या राजा बनना नहीं होता। और उसी दौर में जनता ने जैसे ही अन्ना के चश्मे से संसद और सत्ता को देखना शुरु किया तो उसे लगा कि उसकी ताकत तो लोकतंत्र की चौखट पर सत्ता से भीख मांगने के अलावे कुछ है ही नहीं। आंदोलन की सबसे बडी ताकत सत्ताधारियों को सेवक मानने और खुले तौर पर कहने की सोच से उभरी। सत्ता पाना और सरकार चलाने के रुतबे में कांग्रेसियो की आंखें फिर भी ना खुली कि सत्ता उनका जन्मसिद्द अधिकार नहीं है। और सत्ता पाने के लिये लालयित बीजेपी भी कमोवेश उसी अंदाज में निकलना चाह रही थी कि कांग्रेस के बाद सत्ता पाना तो उसका अधिकार है। ध्यान दें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने २०१३ में सत्ता की बात कभी कही ही नहीं और उसी दौर में दिल्ली के तख्तोताज पर नजर जमाये नरेन्द्र मोदी को भी इसका एहसास हुआ कि सत्ता पाने के लिये सत्ता की जगह सेवक होकर चुनाव जीतना ज्यादा आसान है। और दोनों जगहों पर परिवर्तन या सत्ता पलटने में जनता ने सपना देखा कि सत्ताधारी सेवक हो चला है तो साथ सेवक का ही दिया। अपने अपने घेरे में सपने दोनों ने जगाये। केजरीवाल के सपने सत्ता के तौर तरीके बदलकर सत्ता चलाने के थे। नरेन्द्र मोदी के सपने सुविधाओं का पिटारा खोलने वाले रहे। केजरीवाल जनता को भागीदार बनाकर राजा-प्रजा की लकीर को खत्म करने का सपना दिखा रहे थे। मोदी राजा बनकर रात रात भर जाग कर जनता का हित साधने का सपना पैदा कर रहे थे।
केजरीवाल जनता में यह भरोसा जता रहे थे कि सत्ताधारियों को भी सड़क का सिपाही बनाकर रात रात भर खड़ा किया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सत्ताधारियों में अनुशासन और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का वायदा कर जनता को भरोसे में लेते रहे। केजरीवाल भूखे पेट रहकर सत्ता के संघर्ष को जनता से जोड़ने का सपना पाले रहे। और मोदी हर क्षण जनता के दर्द के साथ जुड़कर सत्ता की जमीन और छत दोनो दिलाने के सपने जगाते रहे। दोनों के निशाने पर भ्रष्टाचार था। दोनों की निगाहों में ईमानदारी थी। दोनों ने खुद को पाक साफ साबित करने के लिये सत्ताधारियों को ही निशाने पर लिया। केजरीवाल ने मनमोहन सरकार के कैबिनेट मंत्रियों के भ्रष्टाचार के अनकहे किस्सों से लेकर क्रोनी कैपटलिज्म की अनकही कहानियों को ही सार्वजिक कर कानून चलाने वालो पर चोट कर दी। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की जगह गांधी परिवार और दामाद पर सीधा हमला कर आम जनता की उस नब्ज को छुने की कोशिश की जहां रंक साजा से टकराने की हिम्मत करता हुआ दिखायी थे। दोनों ही अपने अपने घेरे में खूब सफल हुये । और दोनो ने ही देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को ही हराया। लेकिन अब ना तो २०१३ है ना ही २०१४ । अब २०१५ शुरु हो रहा है और संयोग से दिल्ली में टकराना इन्हीं दोनों को है। कांग्रेस नहीं है। गांधी परिवार के अनकहे किस्से नहीं है। भ्रष्ट मंत्रियों की फेहरिस्त नहीं है। राजनीतिक प्रयोग की नयी बिसात है। सपनों को जगाने का जमावड़ा है। चुनाव कैसे जीता जाता है इसकी खुली प्रयोगशाला पार्टी संगठन के नायाब प्रयोग है। हर वोटर के घर तक पहुंचने की ख्वाहिश है। हर वोटर के दिल में सपनों को जगाने की चाहत है और सत्ता हर हाल में मिल जाये इसके लिये सेवको की कतार है। तो फिर दिल्ली के सपने होंगे क्या। क्या सबसे बड़ा सपना यही हो चला है कि दिल्ली में २०१३ की सियासी टकराव की धारा २०१५ में तीन सौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वही आ खड़ी हुई है , जहां उसे नये सपने जगाने होंगे। व्यवस्था बदलने की ठाननी होगी। दूरियां बढाती बाजार व्यवस्था को थामना होगा। विकास के सपने तले जिन्दगी की त्रासदियों के सच को समझना होगा। दो जून की रोटी के लिये संघर्ष और जमा
देने वाली ठंड में बिन छत जीने की मजबूरी वाले हालात किसने खड़े किये उस सियासत से भी टकराना होगा। हक के सवाल सत्ता से बडे होते है, यह मानना होगा। यानी चुनावी बिसात सामूहिकता के संघर्ष का बोध भर ना कराये। वोट के लिये मारा-मारी जिन्दगी सुकुन बनाने के पैकेज पर ना टिके। चुनावी जीत के बाद की सत्ता चंद हाथो के जरीये सपने पूरा करने वाले एहसास पर ना टिके इसके लिये दिल्ली को तैयार होना ही होगा।
लेकिन यह संभव कैसे है। एक तरफ केन्द्र सरकार अगर खुद को चुनाव जीतने के कारखाने में बदल लेने पर आमादा हो और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी अब चुनाव जीतने की कवायद में खुद को प्रोफेशनल बनाने पर तुली है। तो फिर वह सपने कैसे जागेंगे जिसमें जिक्र स्वराज का होना है। जहां रोजगार और विकास के सपने नहीं चाहिये बल्कि मौजूदा व्यवस्था के तौर तरीको को बदलते हुये राज्य को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठते कदम हो। बिजली-पानी की कीमत वसूली या सडक टैक्स किसी कारपोरेट के मुनाफे से ना जुड़ें। सुशासन का मतलब नौकरशाही की सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक नौकरी भर ना हो। विकास का मतलब किसी भी नीतियों के लागू करने का एलान भर ना हो। योजनाओं को लेकर ब्लू प्रिंट के बगैर देश को बदलने का सपना जगाने का ना हो। हर हाल में चकाचौंध का सपना और सूचना क्रांति के जरीये ज्यादा ज्यादा से माध्यमों से सिर्फ अपनी बात हर किसी के कानों में गूंजाने भर का ना हो। लूटियन्स की दिल्ली में ही नये बरस के जश्न में दिल्ली के पकवानों को बेचने और खाने वालो के बीच फेका हुआ झूठन चुन चुन कर खाने की जद्दोजहद करते लोगो की तरफ आंख मूंद कर अपनी गरम जेब टटोलने भर का ना हो। असल में २०१५ का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहाने वाले जीत के दो नायकों के सपनो का नहीं होना चाहिये बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखाने वाला होना चाहिये। जिसकी उम्मीद की जाये या यह मान कर चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिये दूसरे को जीता दें। और फिर कल कोई दूसरा उड़ान भरे तो उसके पर कतरने के लिये वोट बैंक का आसरा ले लिया जाये। सियासत के ऐसे चुनावी प्रयोग ही बीते साठ बरस का सच है। जनता ऐसे सपनो को देखते देखते थक चुकी है। इसलिये मनाइये कि २०१५ में दिल्ली सरीखा छोटा सा राज्य ही कोई राह दिखा दे तो लोकतंत्र की जय कहा जाये। विदेशी पूंजी और चोखे कारपोरेट के आसरे दिल्ली ना चले बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य , पानी, सफर और छत मुहैया कराने के जिम्मेदारी खुद राज्य ले लें तो ही सपने जागेंगे। नहीं तो फिर सपने टूटेंगे। २०१३-२०१४ का भरोसा डिगेगा और जनता का गुस्सा फिर किसी आंदोलन के इंतजार में लोकतंत्र को नये सिरे से जीने का इंतजार करेगा । हो सकता है फिर वहां से कोई नायक निकले जो कहे सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। और देश फिर सपनों की उड़ान भरने लगें।