आखिर हमें अपने इतिहास का सच क्यों नहीं बताया गया

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रतन शारदा

इस 22 सितंबर को न्यू इंडियन एक्सप्रेस समूह आयोजित ओएलएफ-2019 की चर्चा मंडली का मैं भी एक सदस्य था और इसी रोचक बहस ने मुझे यह आलेख लिखने को प्रेरित किया। मैं यह बात नहीं मानता कि हमें पढ़ाया गया इतिहास छलावा है। यह तर्कयुक्त, सुगठित और मार्क्सवादी दृष्टि से प्रेरित रहा है। अंग्रेजी शब्द ऌ्र२३ङ्म१८ के हिज्जे ऌ्र२-२३ङ्म१८ की लीक पर। औपनिवेशिक सोच को ईमानदारी के साथ अपनाते हुए, उसी सांचे में ढला हुआ डिजाइनर इतिहास, जिसमें अपने स्तर पर नवीन शोध सिरे से गायब नजर आता है। सच कहें तो यह उपनिवेशवादी नजरिया रखने वालों का माफीनामा दिखता है। ‘इतिहास’ की सच्ची परिभाषा ‘जैसा हुआ’ के अनुसार इसे व्याख्यायित नहीं किया जाता। मार्क्सवादियों ने नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को मूलाधार बनाया क्योंकि बौद्धिक कार्य करने का कथित अनुबंध उन्हीं के पास था।
दूसरी ओर मार्क्सवादियों का कहना है कि ‘दक्षिणपंथी इतिहासकारों’ के काम अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं होते। आठ हजार वर्ष पहले डूबी द्वारका की खोज की पृष्ठभूमि में यह दावा अपने आप में अनोखा है। ऐसी खोज के बाद कोई अन्य देश अपने इतिहास के खोये पन्ने पाकर गौरवान्वित महसूस कर रहा होता। इसी तरह, राखीगढ़ी और हार्वर्ड से प्राप्त जीनोम रिपोर्ट और प्रतिष्ठित पुरातत्वेत्ताओं के शोध प्रबंधों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का न बताना वामपंथी इतिहासकारों के काहिली को दर्शाता है। हैरानी तो इस बात पर है कि ‘नाक की बनावट’ पर आधारित आर्य आक्रमण के सिद्धांत को वैज्ञानिक और डॉ़ आंबेडकर प्रतिपादित आर्य आक्रमण सिद्धांत को अवैज्ञानिक बताया गया है! और सबसे जरूरी, चूंकि मार्क्सवादियों ने मुगलों और अन्य आक्रमणकारियों की साफ छवि निर्मित की तो क्या अन्य विचार ‘दक्षिणपंथी’ हो जाते हैं? जबकि इतिहास दक्षिण या वाम नहीं होता।
दरअसल, इतिहास को एक निश्चित मानसिकता के आधार पर काट-छांट कर कुरूप किया गया है। अरुण शौरी ने मार्क्सवादियों के इतिहास को ‘सुरक्षित’ बनाए जाने के कुछ उदाहरण दिए हैं। इस संबंध में उन्होंने पश्चिम बंगाल सेकेंडरी बोर्ड द्वारा कक्षा 9वीं की पुस्तकों से संबंधित कुछ सर्कुलर प्रस्तुत किए थे। इस सर्कुलर में ‘अषुद्धो’ (गलत) और ‘शुद्धो’ (सही) से जुड़े कुछ उदाहरण दिए गए हैं..
सुखोमय दास द्वारा प्रकाशित बर्धवान शिक्षा समिति, शिक्षक उपक्रम द्वारा तैयार भारत कथा़..
पृष्ठ 140 : अशुद्ध – ‘सिंधुदेश में अरब हिंदुओं को काफिर नहीं कहते थे। उन्होंने गोवध पर पाबंदी लगाई थी।’
शुद्ध- ‘डिलीट, ‘उन्होंने गोवध पर पाबंदी लगाई थी।’
पृष्ठ 141 : अशुद्ध- ‘चौथा, हिंदू मंदिरों को नष्ट करना भी ताकत का प्रदर्शन होता था। पांचवां, हिंदू महिलाओं से जबरन विवाह और उससे पहले उन्हें इस्लाम कबूल करना भी उलेमा द्वारा कट्टरपंथ को बढ़ावा देने का हिस्सा था।
शुद्ध- हालांकि ‘चौथा़..’ बिंदु से वाक्य आरंभ किया गया है, परंतु बोर्ड द्वारा ‘उलेमा’ से संबंधित समूचे कथ्य को हटा दिया गया।
पुस्तक : भारतवर्षे: इतिहास, लेखक : डॉ़ नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य, प्रकाशक : चक्रवर्ती एंड सन।
पृष्ठ 89 : अशुद्ध – ‘सुल्तान महमूद ने व्यापक हत्या, लूट, विध्वंस और कन्वर्जन कराया था।’
शुद्ध – ‘महमूद द्वारा व्यापक लूट और विध्वंस किया गया।’ नरसंहार और जबरन कन्वर्जन का कोई जिक्र नहीं।
पृष्ठ 89 : अशुद्ध : ‘उसने सोमनाथ मंदिर से 2 करोड़ दिरहम कीमत के आभूषण आदि लूटे थे और शिवलिंग को गजनी की मस्जिद की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया था।’
शुद्ध : ‘डिलीट’ और …शिवलिंग को गजनी की मस्जिद की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया था।’
पृष्ठ 112 : अशुद्ध: ‘ मध्यकाल में हिंदू-मुस्लिम संबंध बहुत ही संवेदनशील मुद्दा रहा है। गैर-मुस्लिमों को इस्लाम या मौत स्वीकार करनी होती थी।’
शुद्धो : 112-13 पृष्ठों की सभी सामग्री को डिलीट कर दिया गया। इतिहासेर कहानी, लेखक : नलिनी भूषण दासगुप्ता, प्रकाशक : बी़ बी. कुमार
पृष्ठ 132 : अशुद्ध- टॉड (राजस्थान के इतिहास के प्रसिद्ध लेखक) के अनुसार अलाउद्दीन के चित्तौड़ अभियान का उद्देश्य राणा रतन सिंह की पत्नी पद्मिनी का अपहरण करना था।
शुद्ध : डिलीट
पृष्ठ 161 : अशुद्ध – ‘शुरुआती सुल्तान हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूल करवा कर इस्लाम का विस्तार करना चाहते थे।’
शुद्धो- डिलीट।
पुस्तक : भारतेर इतिहास, लेखक : पी़ मैती, श्रीधर प्रकाशिनी
‘औरंगजेब की धार्मिक नीति’ अध्याय के संबंध में व्यापक सामग्री को पुस्तक से हटाया गया है। उसके द्वारा इस्लाम को फैलाने के लिए हिंदुओं के साथ किए गए व्यवहार से लेकर प्रत्येक अन्य विचार को पुस्तक से बाहर कर दिया गया है। औरंगजेब को ऐसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है जिसे नृत्य-संगीत से लेकर दरबार में मौजूद तवायफों से मामूली विरक्ति थी, जिस कारण उसने इन पर पाबंदी लगाई। उसकी विरक्ति को लगभग एक पंथनिरपेक्ष मुखौटा लगाकर प्रस्तुत किया गया है। उसने इस्लाम के संबंध में जिन वस्तुओं को रहने दिया, उस बारे में केवल इतना ही लिखा गया है, ‘अकबर की मजहबी सहिष्णुता और समान अधिकार की नीति से खुद को दूर कर, औरंगजेब ने मुगल शासन को नुकसान पहुंचाया।’
चूंकि हिंदू धर्मशोषक और जातिगत समाज था, इस्लाम समतावादी था। अत: शोषित हिंदुओं ने इस्लाम कबूल किया! अरुण शौरी कहते हैं कि तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार गैर-इस्लामी लोगों को नरक के लायक समझते थे। वे मंदिरों को नष्ट करने वाले शासकों का गुणगान करते थे। कक्षा पांचवीं की पुस्तकों से कुछ ऐसे उद्घरण सामने आए़…
‘.. रूसी क्रांति के बाद, शोषण रहित समाज की स्थापना हुई।’
‘…इस्लाम और ईसाइयत ही मात्र ऐसे मत-पंथ रहे हैं जिन्होंने इंसान को आदर और समानता का दर्जा दिया है़..’
हालांकि, इन मत-पंथों में देवी रूपी इष्टदेवों और महिलाओं के दोयम दर्जे का कोई उल्लेख नहीं है। जबरन कन्वर्जन, नरसंहार, मंदिरों को नष्ट करने का भी कोई जिक्र नहीं है और न ही 500 वर्ष तक हुए हिंदू नरसंहार के संबंध में कोई उल्लेख मिलता है।
भारत में मुस्लिम जनसंख्या में विस्तार के लेखक प्रो. के़ एस़ लाल के अनुसार, महमूद गजनी द्वारा भारत पर सन् 1000 में आक्रमण और पानीपत की लड़ाई के एक वर्ष बाद 1525 ई़ तक हिंदू आबादी में आठ करोड़ की कमी आई। पर उनके दावों को खारिज करने वाले कोई तर्क हमें नहीं मिला। वहीं कथित ‘सहृदय’ मुगलों की बनिस्बत गुरु गोबिंद सिंह, गुरु तेग बहादुर के संबंध में आपत्तिजनक शब्द जरूर मिलते हैं। क्रांतिकारियों को ‘आतंकवादियों’ की संज्ञा दी गई है।
इन सभी कथित इतिहासकारों के लिए कश्मीर की हिंदू पृष्ठभूमि, मौजूदा सदी में हिन्दू नरसंहार और अपनी जमीन से कूच कभी हुआ ही नहीं। आचार्य अभिनव गुप्त या कैस्पियन सागर से बंगाल, असम तक राज करने वाले महान सम्राट ललितादित्य भी नहीं हुए। कश्मीर को लेकर कसीदे काढ़ने वाले इन इतिहासकारों को अनुच्छेद-35 ए या उससे पहले महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय की मांग की कोई जानकारी नहीं है और कहते हैं कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा। इनके शोध की गुणवत्ता इसी आधार पर स्पष्ट हो जाती है। शेख अब्दुल्ला इनके लिए अल्लाह के दूत से कम न थे।
चोलशासकों, पल्लवों द्वारा दक्षिण भारत में जो साम्राज्य स्थापित किया गया, इन तथाकथित इतिहासकारों की कलम से दक्षिण भारत के वैभवपूर्ण इतिहास की एक झलक भी नहीं दिखती। पानीपत की जंग में पेशवाओं की हार के बारे में जरूर पढ़ने को मिलता है, परंतु पेशवाओं द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य का कोई उल्लेख नहीं है। मराठों द्वारा तंजवूर मंदिर के पुनरुद्धार का कहीं कोई जिक्र नहीं। वहीं, अकबर को हराने वाले हेमचंद्र विक्रमादित्य को ‘हेमू’ कह कर खारिज किया गया है। हमें आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के बारे में बताया जाता रहा, परंतु राजा दाहिर के बारे में नहीं, जिन्होंने 50 वर्ष तक न केवल इस्लाम को बाहर रखा बल्कि ‘पैगंबर मोहम्मद’ के परिवार को शरण दी थी। तैमूर की क्रूरता के बारे में पढ़ने को मिलता है परंतु मेरठ के उन बहादुर गुर्जरों के बारे में नहीं जिन्होंने तैमूर को पछाड़ा था, बल्कि उनकी सेना की एक महिला इकाई भी थी जिसकी अगुआई रामप्यारी गुर्जर ने की थी।
नालंदा विश्वविद्यालय से बंगाल तक आगजनी करता बख्तियार खिलजी सबको दिखता है परंतु उसे हराने वाले असमिया राजा प्रथु किसी को नहीं दिखते, न ही असम में औरंगजेब को आने से रोकने वाले लचित बरफुकन। वास्को डि गामा ने बेशक भारत की ‘खोज’ की, परंतु उस गुजराती व्यापारी को कोई नहीं जानता जो अनजाने में ही उसे यहां ले आया था ; और उसके समुद्री जहाज भी डि गामा से कहीं बड़े और बेहतर थे। पुर्तगाली सहयोग के आधार पर उपनिवेशवादी चर्च द्वारा हिंदुओं और मुस्लिमों के साथ अमानवीय बर्ताव को मुख्यधारा इतिहास से गायब ही कर दिया गया है। वाम इतिहासकारों ने मोपला हिंसा, कन्वर्जन और दुष्कर्मों को किसान आंदोलन से जोड़ा। असहिष्णु मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान के हिंदुओं और ईसाइयों को जबरन मत बदलने और खतना करने को इतिहास लेखन की संज्ञा दी गई। परंतु बिरसा मुंडा और रानी गादिन्ल्यु जैसी जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के नाम कितने लोग जानते हैं? विगत 1000 वर्ष की हमारी दासता का तो हमें पता है परंतु इस दौरान लगातार हुए विरोधों की कितनी जानकारी है।
दरअसल, वामपंथी भारत के गौरवपूर्ण अतीत से कुछ इतना खार खाए बैठे हैं कि गांधीवादी धर्मपाल जी द्वारा मूल ब्रिटिश दस्तावेजों के आधार पर वैज्ञानिक, तकनीकी और शैक्षणिक उपलब्धियों पर किए गए शोधकार्यों को कभी मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया। नेहरूवादी इतिहासकारों पर सबसे गंभीर आरोप उनमें निहित शोध की कमी का रहा है। भारत के प्राचीन इतिहास को मिथकों की कड़ी मानकर उसे मिथक निर्माताओं के हवाले कर दिया गया है। इस संबंध में मौलिक अनुसंधान की जरूरत कभी नहीं समझी गई। और उन पश्चिमी इतिहासकारों के कार्यों को बिना सोचे-समझे ज्यों का त्यों उतार लिया गया जिनका अपना एजेंडा था। किसी भी प्रतिष्ठित इतिहासकार ने महाभारत, पुराणों या स्थानीय लोककथाओं में निहित समय और भौगोलिक संदर्भों की पहचान करने का प्रयास नहीं किया। जिन लोगों ने वैकल्पिक ज्ञान या सूचना के वैज्ञानिक संदभार्ें को खंगालने की कोशिश की, उन्हें निचले दर्जे का लेखक घोषित कर, समाज के लायक ही नहीं माना गया। यही नहीं, सिंधु-सरस्वती सभ्यता के सूत्रों के पक्के तौर पर स्थापित होने के बावजूद, उसे कई दशकों तक इतिहास की पुस्तकों में स्थान ही नहीं दिया गया था।
सवाल उठता है कि आखिर ऐसा इतिहास क्यों लिखा गया? नए अनुसंधानों के सामने आने के बावजूद उसकी इतनी उग्र पैरवी क्यों हो रही है? इसकी जमीन नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के आधार पर तैयार की गई थी। उनका विचार यह था कि भारत एक सराय या धर्मशाला या रैन-बसेरे से ज्यादा कुछ नहीं था, जहां दुनिया भर से लोग आए, कुछ ने इसे लूटा और चलते बने जबकि अन्य यहीं ठहर गए। यह विचार आर्य आक्रमण सिद्धांत से मेल खाता है जिसमें प्रत्येक हमले और विदेशियों द्वारा लूटपाट को उचित ठहराया गया है। हिंदू धर्म और दर्शन के प्रति उनका नजरिया भी इस पुस्तक में साफ दिखता है, जिसमें प्राचीन हिंदू सभ्यता की उपलब्धियों का नकार स्पष्ट नजर आता है। एक स्थान पर वे हैरान करने वाला दावा करते हैं, ‘एक बात साफ है कि हड़प्पा की सभ्यता पंथनिरपेक्ष थी।’ इसके बाद पाठक खुद सोचें कि 6000 वर्ष पहले जब धर्म का अस्तित्व ही नहीं था, और न ही उसकी लिपि स्पष्ट थी, ऐसे समय में पंथनिरपेक्ष क्या रहा होगा। हमें पढ़ाए जाने वाले इस इतिहास के बारे में विज्ञ पाठक खुद सोचें।

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