संसार के इतिहास में ऐसे अवसर ढूंढने बड़े कठिन हैं – जब राज्य गेंद बनकर उछल रहा हो। कोई सा भाई भी राज्य पर अपना अधिकार बनाना उचित नहीं मान रहा था। दोनों धर्म और मर्यादा की डोर से बंधे गए थे और एक दूसरे से कहे जा रहे थे कि राज सिंहासन पर मेरा नहीं, आपका अधिकार है। नीति ,मर्यादा ,धर्म और न्याय की दुहाई दे देकर जिस प्रकार उस समय दोनों भाई तर्क वितर्क कर रहे थे, उससे राजा जनक और गुरु वशिष्ठ जैसे लोगों के पास भी यह कहने तक के लिए शब्द नहीं थे कि कौन सा पक्ष उचित है और कौन सा अनुचित है ? यदि इस संवाद को आज के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराया जाए तो निश्चय ही विद्यार्थियों के भीतर दिव्य समाज और भव्य समाजवाद के संस्कारबीज डाले जा सकते हैं। इस संवाद से आज के समाजवादियों को भी शिक्षा मिल सकती है। क्योंकि ये समाजवादी आज तक दिव्य और भव्य समाज बनाने की एक स्पष्ट रूपरेखा नहीं खींच पाए हैं। इनका दर्शन श्रीराम के चरित्र और दर्शन से बहुत छोटा है। समाजवाद के नाम पर जिस पूंजीवादी विचारधारा की कार्यशैली को अपनाकर लोग काम करते हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि यह भ्रष्ट और निकृष्ट लोग देश को लूटने वाले लोग हैं। श्री राम ऐसी लूट की स्थिति ही पैदा नहीं होने देते । क्योंकि जनहित उनके लिए सबसे पहले था । वह राष्ट्रहित में निर्णय लेते और जो लोग उन्हें लूट मचाते दिखाई देते उन्हें वह राष्ट्रघाती घोषित कर उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई करते , फिर चाहे वह किसी भी बड़ी से बड़ी राजनीतिक पार्टी के लोग ही क्यों न होते ?
जिस समाजवाद के नाम पर लोग लूटते देश।
उसे राम नहीं स्वीकारते देते निकाला देश ।।
रामचंद्र जी ने अपने भ्रातृ-प्रेम का जिस प्रकार लक्ष्मण को शक्ति लगने पर प्रदर्शन किया उसे देखकर तो पत्थर दिल भी भावुक हो उठेगा। उन्होंने उस समय कहा था कि -“अब मुझे युद्ध से या जीवन से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है । जब मेरा प्यारा भाई लक्ष्मण मूर्च्छित होकर रणभूमि में सो चुका है । युद्ध का भी कोई काम नहीं है अर्थात अब तो यह युद्ध भी निरर्थक हो गया है। भाई ! जिस प्रकार महातेजस्वी तुम मेरे साथ वन में आए थे उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ परलोक में जाऊंगा। यह सदा ही मेरा प्रिय बंधु और अनुयायी रहा है । हाय ! कपट युद्ध करने वाले राक्षसों ने आज इसे इस अवस्था में पहुंचा दिया।”
भाई लक्ष्मण के बिना रामचंद्र जी को अब युद्ध ही निरर्थक लगने लगा । उनका जीवन से मोहभंग हो गया । उन्हें अब अयोध्या लौटना भी उचित नहीं लग रहा था। क्योंकि उन्हें यह बात रह-रहकर याद आ रही थी कि जब अयोध्या से चला था तो माताओं को यह विश्वास और वचन देकर आया था कि जिस प्रकार भाई लक्ष्मण और सीता जी के साथ यहां से वन जा रहा हूं उसी प्रकार दोनों को साथ लेकर लौटूंगा भी।
जब रामचंद्र जी ने लंका विजय कर ली और रावण का अंत कर दिया तो उन्होंने लंका में अनावश्यक देर तक रुके रहना उचित नहीं माना। उन्हें अब वहां से लौटने की शीघ्रता हो रही थी । क्योंकि उनके 14 वर्ष का वनवास काल अब पूर्ण हो रहा था। उन्हें यह बात भी याद आ रही थी कि यदि समय से भरत के पास नहीं लौटा तो भरत आत्मदाह कर लेगा । उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि भरत अपने दिए गए वचन के अनुसार इस कार्य को अवश्य कर डालेगा।
अतः भरत के पास वह शीघ्र से शीघ्र पहुंच जाना चाहते थे। अपनी इस चिंता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने विभीषण से यह बात स्पष्ट कर दी थी कि मैं तुम्हारी बात ( विभीषण रामचंद्र जी से अभी कुछ और काल तक लंका में रुके रहने का अनुरोध बार-बार कर रहे थे) न मानूँ, ऐसा कदापि संभव नहीं । परंतु मेरा मन उस भाई भरत से मिलने के लिए अब अत्यंत व्याकुल हो चुका है जिसने चित्रकूट आकर मुझे लौटा ले जाने के लिए सिर झुका कर प्रार्थना की थी और मैंने उसके वचनों को स्वीकार नहीं किया था। मैं अब अपने उस प्राण प्यारे भाई भरत से मिलने में तनिक भी विलंब करना नहीं चाहता। इसलिए यथाशीघ्र मेरे अयोध्या पहुंचने का प्रबंध करो। मैं जानता हूं कि यदि मैंने यहां रुककर आपके साथ समय गुजारने की गलती की तो इसका परिणाम मुझे किस भयंकरता के साथ भुगतना पड़ेगा ?
रामचंद्र जी के इन शब्दों से पता चलता है कि न केवल वह अपने भाई के प्रति समर्पित थे अपितु उन्हें अपने भाई भरत के आत्मीय प्रेम की भी पूर्ण जानकारी थी। वह जानते थे कि यदि भरत का दिल अब भी तोड़ा गया तो वह सदा – सदा के लिए मुझसे दूर हो सकता है।
दीपक लेकर हाथ में ढूंढ लिया सब ठौर ।
भरत के जैसे भाव का नहीं जगत में और।।
भारत ने अपने पराभव के काल में ऐसे अनेकों तुर्कों व मुगलों को देखा है जिन्होंने सत्ता के लिए संघर्ष कर अपने पूरे के पूरे परिवार का नाश कर दिया। भाई -भाई के बीच तलवारें खिंच गयीं और भयंकर खून खराबे के बाद एक भाई ने अपने सभी भाइयों और परिजनों को मार कर सत्ता प्राप्त की। इस प्रकार नीचता की सारी सीमाओं को लांघ कर सत्ता प्राप्त करने वाले वे लोग इतिहास में उस अमरता को प्राप्त नहीं कर पाए जो असीम प्रेम और आत्मीय भाव को अपनाने वाले श्री राम और भरत प्राप्त कर पाए। इससे पता चलता है कि दुनिया के लोग उसे पूजते हैं जो मानवीय गुणों में विश्वास रखता है और मानवीय दिव्य भावों के प्रचार व प्रसार को अपने जीवन का ध्येय बनाता है । जो लोग मानवीय मूल्यों की फसल में आग लगाते हैं, वे संसार के लिए पूजनीय नहीं बन सकते । उन्हें लोग समय आने पर धरती में बहुत गहरे गाड़ देते हैं।
राजनीतिक विचारधाराओं के अनेकों लोगों और जबरन सत्ता हथियाकर भारत पर देर तक शासन करने वाले विदेशी आक्रमणकारियों के अनेकों षड़यंत्रों का शिकार होकर भी श्रीराम अमरता के जिस उच्च शिखर पर हमारे बीच विराजमान हैं वह केवल इसीलिए संभव हो पाया है कि उन्होंने भारत की सनातन संस्कृति के सनातन मूल्यों को अपनाकर उन्हें बड़ी विनम्रता, सादगी और सात्विक वीरता के भावों के साथ यथावत लागू किये रखने का अथक और सफल प्रयास किया।
सत्य सनातन देश में अमर हुए श्री राम।
उजली करनी कर चले लोग भजत हैं नाम।।
हमने श्री राम के भ्रातृ-प्रेम की यहां पर मात्र बानगी के रूप में चर्चा की है। यदि उनके भ्रातृ-प्रेम को वास्तविक अर्थों में समझना है तो हमें वाल्मीकि कृत रामायण का अध्ययन करना ही चाहिए। उनके दिव्य भावों से जन्मा अद्भुत प्रेम न केवल उनके अपने भाइयों को उनके साथ बांधे रखने में सफल हुआ बल्कि संसार के लोगों के लिए एक आदर्श भी बना । पश्चिमी जगत के लोग आज तक भी पारिवारिक प्रेम को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि आधुनिक विज्ञान के युग में भी वह जंगली जीवन जी रहे हैं। भौतिकवाद की चकाचौंध मैं वह चाहे हमें रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे धजे दिखाई देते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि उनके दिल उजड़े हुए हैं। उनके हृदय में रंग बिरंगी दुनिया वासनात्मक दृष्टिकोण से चाहे बसती हो ,परंतु शांति और सात्विक भावों से सराबोर दुनिया के लिए वे तरसते हैं । जबकि श्रीराम शांति और सात्विकता के भावों से सराबोर संसार के स्वामी थे, इसीलिए वह हमारी निष्ठा , आस्था और श्रद्धा के केंद्र बने। उन्हें अपनी श्रद्धा का केंद्र बना कर हमने संसार को यह बताया कि हम भौतिकवादी चकाचौंध में डूबे रंग बिरंगी पोशाक पहनने वाले लोगों के पुजारी नहीं हैं । हम तो उस सात्विक विचारधारा के महापुरुषों के उपासक और आराधक लोग हैं जो संसार में सात्विकता को प्रवाहित करने के लिए आते हैं। हम अध्यात्मवादे के पुजारी हैं, भौतिकवाद के नहीं। हम मानवता के पुजारी हैं , दानवता के नहीं । हम अच्छी -अच्छी सुंदर – सुंदर पोशाकों के भीतर छुपे भेड़ियों के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं रखते बल्कि हम उन दिव्य आप्तपुरुषों के प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं जो इंसान के चोले में देवता बनकर हमारे बीच आये ….. और उनमें श्रीराम सर्वोपरि हैं।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य