सुल्तान ने किला यूं ही छोड़ दिया
सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के विषय में हमें अधिक जानकारी समकालीन इतिहास लेखक जियाउद्दीन बर्नी की पुस्तक ‘तारीखे फिरोजशाही’ से मिलती है। बरनी ने रणथंभौर पर सुल्तान की चढ़ाई का बड़ा रोचक वर्णन किया है । वह लिखता है कि जब सुल्तान ने रणथंभौर पर चढ़ाई की तो वहाँ का राय (राजा) अपने राजकुमारों, मुकद्दमों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं उनके परिवार के साथ अपने किले में बंद हो गया। सुल्तान की इच्छा थी कि रणथंभौर पर अधिकार जमा लिया जाए। किले को घेर लेने का आदेश दिया गया। मगरबी तैयार की गयी। साबात एवं गरगच लगाए गए। किले पर अधिकार जमाने का प्रयत्न आरंभ हो गया। अभी यह तैयारियां हो ही रही थीं कि सुल्तान झायन से सवार होकर रणथंभौर पहुंचा। किले का निरीक्षण करके चिंता में पड़ गया। सायंकाल फिर झायन लौट गया। दूसरे दिन राज्य के पदाधिकारियों एवं सरदारों को बुलावा भेजा। उनसे कहा कि मेरी इच्छा थी कि किले पर अधिकार जमा लूँ। हिंदूस्थान (उस समय हिंदूस्थान का अभिप्राय दिल्ली से ही लगाया जाता था) से और लश्कर मंगाऊं। कल जब मैंने किले के निरीक्षण करने के उपरांत सोच-विचार किया तो मेरी समझ में यह आया कि यह किला उस समय तक विजय नहीं हो सकता जब तक कि मुसलमानों की बहुत बड़ी संख्या इस किले पर विजय प्राप्त करने में अपने प्राण त्याग न कर दें, और किले पर विजय प्राप्त करने हेतु न्यौछावर न हो जाए। साबातों के नीचे, पशेब बनाने तथा गरगच लगने में अपनी जान कि बलि न दे दें। मैं इस प्रकार के दस किलों को मुसलमानों के बाल को भी हानि पहुंचाकर लेने के पक्ष में नहीं हूं। यह धन, संपत्ति तथा माल जो इतने मुसलमानों की हत्या के उपरांत मुझे प्राप्त होगा, वह मेरे किस काम का? जिस समय मारे हुए लोगों की विधवाएँ तथा अनाथ बालक मेरे लिए बद्दुआएं देंगे तो उस समय इस किले को प्राप्त करने का आनंद मेरे लिए विष से भी अधिक कड़वा हो जाएगा।
यह कहकर (सुल्तान ने) किले को विजय करने का विचार त्याग दिया और दूसरे दिन वहाँ से कूच करता हुआ सुरक्षित तथा बिना किसी हानि के अपनी राजधानी पहुँच गया।
हम्मीर देव की वीरता का प्रतीक
इस वर्णन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि रणथंभौर के किले की घेराबंदी के समय कोई युद्ध नहीं हुआ और सुल्तान के हृदय में मुसलमानों के प्रति दया उमड़ आई कि एक किले को लेकर यह व्यर्थ ही इतने मुसलमानों की बलि क्यों चढ़ाए? हमें नहीं लगता कि बरनी का उपरोक्त कथन अक्षरश: सत्य है। परंतु फिर भी इससे हिन्दू वीर राजा हम्मीर देव चौहान की युद्धनीति की सफलता ही स्पष्ट होती है। तभी तो सुल्तान एक दिन किले का निरीक्षण करके ही समझ गया की इसे प्राप्त करने में कितने लोगों की हत्या हो सकती है?
सुल्तान पर दरबारी के कथन का भी प्रभाव नहीं हुआ
सुल्तान के दिल्ली लौटने के निर्णय पर असहमति जताते हुए अहमदचाप नामक एक प्रमुख दरबारी ने सुल्तान से जो कुछ कहा, वह भी ध्यान देने योग्य है। उसने कहा-‘(आप से पूर्व) जब कभी भी आक्रमणकारी किसी स्थान पर आक्रमण करने का संकल्प कर लेते थे, कदापि वापस नहीं होते थे। यदि संसार के अन्नदाता किले को विजय करने के पूर्व ही लौट जाएंगे तो इस स्थान का राजा अभिमानी हो जाएगा और उसके हृदय में अन्य प्रकार के विचार पैदा होने लगेंगे, बादशाह के दूसरे स्थानों पर विजय करने से जो भय लोगों के हृदय में बैठ गया है, वह कम हो जाएगा।’
इस पर सुल्तान ने कहा-‘हे अहमद,! मैं भी जानता हूँ कि बादशाह तथा विजेता अपनी हार्दिक आकांक्षाएँ पूरी करने तथा अपनी विजय प्राप्त करने की शक्ति को प्रसिद्ध बनाने के लिए, एवं देश के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी आज्ञाओं का पालन कराने के लिए हजारों व्यक्तियों को संकट में डाल देते हैं । किले पर विजय प्राप्त करने की तुलना में उन्हे मुसलमानों की हत्या की चिंता नहीं रहती। मेरा यह विचार है कि इस्लाम की आज्ञाओं तथा भगवान और रसूल के आदेशों के पालन करने एवं अहंकारी तथा निरंकुश बादशाहों की परंपरा के अनुसरण में विशेष अंतर है। वे लोग जो उनकी आकांक्षाओं, परम्पराओं तथा रीति-रिवाज का पालन करे हैं, उनसे मेरा कोई संबंध नहीं। जो कुछ निरंकुश तथा अत्याचारी बादशाह अस्थायी राज्य तथा अपने सम्मान हेतु कर चुके हैं, वह निरर्थक है। दो चार दिन अत्याचार करने के कारण वे नरक में जाएंगे। यद्यपि उनका अनुसरण करने से जनता में रौब तथा भय उत्पन्न हो जाता है, किन्तु इससे लोगों के हृदय से इस्लामी बातें इस प्रकार निकल जाती है, जैसे मथे हुए आटे से बाल निकल जाए। मैं राज्य के हित में जो अच्छा समझता हूँ वह करता हूँ परंतु तू उसकी आलोचना करता है।’
इस प्रकार सुल्तान को यद्यपि अहमदचाप ने भली प्रकार उत्तेजित करने का प्रयास किया, परंतु सुल्तान पर उसके उकसावे का कोई प्रभाव नहीं हुआ। सुल्तान ने हर स्थिति में दिल्ली लौट जाना ही उचित माना।
इसके पीछे हिन्दू-भय था
सुल्तान पर अहमदचाप के उकसावे का प्रभाव क्यों नही हो रहा था? इसका भी विशेष कारण था कि उस समय के हिन्दू सुल्तान के महल के पास से बड़ी शान से निकलते थे और उन्हें तनिक भी इस बात का भय नहीं होता था कि हम किसी सुल्तान के भवन के सामने से निकलते हैं। सुल्तान उन हिंदुओं के हाव-भाव का बड़ी सूक्ष्मता से अवलोकन करता रहता था। वह देखता था की हजारों लाखों का बलिदान देकर भी ये हिन्दू लोग मुसलमानों से घबराते नहीं हैं। इसलिए इनके साथ युद्ध करना अपने आपको संकट में डालना होगा। इसलिए अहमदचाप ने जब सुल्तान महमूद आदि के अत्याचारों का स्मरण करने की बात सुल्तान से कही तो, वह इस पर भी उत्तेजित नहीं हुआ। उसने चाप से कहा-‘हम उस प्रकार के न तो मनुष्य हैं , और न बादशाह और न हम- में इतना बल है कि सुल्तान महमूद तथा सुल्तान संजर के मुकाबले का ख्याल कर सकें। ऐ मूर्ख! तू यह नहीं देखता कि प्रतिदिन हिन्दू जो कि खुदा और मुस्तफा के शत्रु हैं, बड़ी ठाट-बाट तथा शान से मेरे महल के नीचे से होकर यमुना तट पर जाते हैं, मूर्ति पूजा करते हैं, और शर्क तथा कुफ्र के आदेशों का हमारे सामने प्रचार करते हैं, और हम जैसे निर्लज्ज जो कि अपने आपको मुसलमान कहते हैं , कुछ नहीं कर सकते।’
इससे स्पष्ट है कि सुल्तान की दृष्टि में हिंदुओं की वीरता का भय था, वह नहीं चाहता था कि इस वृद्धावस्था में किसी भी प्रकार से हिंदुओं से किसी प्रकार की शत्रुता मोल ली जाए । उसने अपने तर्कों से अहमदचाप को शांत कर दिया और चाप ने भरी सभा में अपने स्थान से खड़ा होकर सुल्तान से अपनी त्रुटि की क्षमा याचना पैरों में पडक़र की। सुल्तान ने उसे क्षमा कर दिया, और तदुपरान्त सुल्तान ने दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया।
कुछ भी हो, युद्ध हुआ या नहीं हुआ। पर एक बात तो स्पष्ट थी कि सुल्तान हिन्दू वीरता से और राजा हम्मीर देव के युद्ध प्रबंधन से भयभीत हुआ, और अपनी राजधानी के लिए चला आया। सुल्तान ने यहाँ इस्लाम के उस सिद्धान्त का पालन किया जो मांदालंबर्ट एम.ए. कारिंदकर की पुस्तक ‘इस्लाम’ के पृष्ट-333 पर लिखा है-‘‘जब मैं दुर्बल हूँ तो आपसे स्वतन्त्रता पाने का अधिकारी हूँ, क्योंकि यही आपका सिद्धान्त है, और जब मैं शक्तिशाली हूँ, तो आपको स्वतन्त्रता मांगने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध है।’’
उज्जैन और मालवा को लूटा
सुल्तान ने अपनी दुर्बलता को समझा और चौहान हमीर देव से अपनी स्वतन्त्रता का अधिकार सुरक्षित करके चुप चला आया। हमारे इस कथन की पुष्टि सुल्तान के अन्य कार्यों से भी हो जाती है। उसने अपने शासनकाल में उज्जैन और मालवा को लूटा,वहाँ के महाकालेश्वर तथा अन्य प्रसिद्ध मंदिरों को उसने भ्रष्ट किया और प्रतिमाओं को तोड़ा और काफी लूट बटोरी। (संदर्भ: भारत में मुस्लिम सुल्तान भाग-1 पृष्ठ-214)
सुल्तान जलालुद्दीन का अंत
सुल्तान जलालुद्दीन का अंत उसी के भतीजे और दामाद अलाउद्दीन ने किया। उसने छल से अपने चाचा जलालुद्दीन का अंत किया था, उसके विषय में जियाउद्दीन बरनी हमें बताता है कि कड़ा के समीप गंगा तट पर जब सुल्तान अपने भतीजे व दामाद अलाउद्दीन से मिलने के लिए चला तो उसे अपनी हत्या का कोई संदेह नहीं था। बरनी ने लिखा है-‘संध्या की नमाज से पहले सुल्तान नदी तट पर पहुँचकर अपने कुछ अनुचरों के साथ (नाव से) नीचे उतरे। अपने अफसरों के साथ पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करता हुआ अलाउद्दीन स्वागत में आगे बढ़ा। सुल्तान के निकट पहुँचकर अलाउद्दीन उनके पैरों पर गिर पड़ा। पुत्र की भांति उसे प्यार करते हुए, उसकी आँखों और गालो को चूम, दाढ़ी को पुचकार कर, गाल पर दो प्यार की हल्की-हल्की चपत लगाकर सुल्तान ने कहा-‘मैंने छुटपन से ही तुम्हारा लालन-पालन किया है, फिर तुम मुझसे इतना क्यों डरते हो? सुल्तान ने अलाउद्दीन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और इसी समय अलाउद्दीन ने अपने लोगों को मारनेका संकेत दे दिया। मुहम्मद सलीम ने अपनी तलवार से सुल्तान का वध कर दिया। मगर ओछा पडऩे के कारण इस वार से उसी का हाथ कट गया। तब उसने दूसरा प्रहार कर सुल्तान को घायल कर दिया जो यह चिल्लाते हुए नदी की ओर दौड़ रहे थे-आह! दुष्ट अलाउद्दीन यह तूने क्या किया? जाल में फंसे सुल्तान के पीछे दौडक़र इख्तियारूद्दीन हुद ने उन्हें जमीन पर पटक, उनका सिर कलम कर दिया। इसके बाद खून टपकाते सिर को लेकर वह अलाउद्दीन के पास चला आया। एक भाले पर सुल्तान का सिर टाँगकर एक भव्य जूलूस निकाला गया। और इसी समय अलाउद्दीन को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया गया।
रणथंभौर पर आक्रमण की योजना
अलाउद्दीन खिलजी ने भी अपने शासन काल में रणथंभौर पर आक्रमण की योजना बनाई। रणथंभौर अलाउद्दीन की आँखों में एक किरकिरी की भांति खटकता था, इसलिए वह उसे प्राप्त करने को अत्यंत व्याकुल था। उधर राजा हम्मीर देव चौहान भी दिल्ली दरबार की गतिविधियों पर अपने गुप्तचरों के माध्यम से सावधानी पूर्वक निरीक्षण कर रहा था। 1296 ई0 में अलाउद्दीन ने अपने चाचा सुल्तान जलालुद्दीन की हत्या कर सल्तनत पर अधिकार स्थापित किया था। उसने गद्दी पर बैठने के चार वर्ष उपरांत अर्थात सन 1300 ई0 में रणथंभौर पर आक्रमण करने के लिए बयाना के प्रांतपति उलुग खान तथा कड़ा के प्रांतपति नुसरत खान को आदेशित किया। युद्ध की तैयारियां आरंभ हो गयीं, विशाल सेना (हमीर काव्य के अनुसार 80,000) का गठन कर रणथंभौर के वैभव को भूमिसात करने की योजना बनाई गई। इस बार तैयारी इस प्रकार की गई थी कि इस हिन्दू दुर्ग को किसी भी स्थिति में बिना अधिकार किये छोड़ा नहीं जाएगा।
अलाउद्दीन की क्रूरता, धर्मांधता और अत्याचारी प्रवृति पर लगभग सभी इतिहासकार एकमत हैं। यह सुल्तान सिकंदर के भांति ‘विश्व विजेता’बनने का सपना लेकर गद्दी पर बैठा था, परंतु कहते हैं कि जब इसके सेनापति अमीर मलिक ने इसे विश्वविजेता बनने से पहले भारत विजेता बनने का परामर्श यह कहकर दिया कि भारतवर्ष की बहुत सी शक्तियाँ अभी भी आपकी पहुँच से बाहर हैं, यदि आप इन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें, तो भी बहुत होगा। अमीर मलिक ने भारत की शक्तियों में सर्वप्रथम रणथंभौर का ही नाम रखा था। इसके अतिरिक्त उसने सुल्तान से चित्तौड़, चँदेरी, मालवाधार, उज्जैन, शिवालिक प्रदेश, जालौर इत्यादि का नाम लिया। कहते हैं कि हिंदुस्तान के शासकों के नाम सुनकर ही अलाउद्दीन को पता चल गया था कि ‘विश्व विजेता’ बनना कितना कठिन होगा?
हम्मीर देव को दिया गया प्रस्ताव
इसके उपरांत ही सुल्तान ने रणथंभौर को जीतने की योजना बनाई। बादशाह की आज्ञा का पालन करते हुए उलुग खान ने रणथंभौर के शासक हम्मीर देव चौहान के पास एक संदेश भेजा। इस संदेश में उलुग खान ने हम्मीर को बताया था कि सुल्तान के हृदय में राय (हम्मीर) के प्रति कोई द्वेष भाव नहीं है, और यदि राय शरणागतों (मंगोल महिमाशाह एवं उसके अन्य मुगल अमीर साथी) को मौत के घाट उतार दें, या उन्हे सौप दें, तो शाही सेना दिल्ली लौट जाएगी। साथ ही सुल्तान का यह भी कहना है कि यदि हम्मीरदेव इस प्रस्ताव को नहीं मानता है तो वह परिणाम भुगतने के लिए तत्पर रहे।
चौहान के लिए यह प्रस्ताव अपमान जनक था
उलुग खान ने सुल्तान की ओर से जो प्रस्ताव हम्मीर देव के पास भेजा उसमें सुल्तान ने राजा को अपमानित करने का प्रयास किया और साथ ही प्रस्ताव न मानने पर परिणाम भुगतने को कहकर धमकाया भी। पृथ्वीराज चौहान के वंशज के लिए अपमान और धमकी दोनों को एक साथ सहना कठिन था। इसीलिए उसने सुल्तान के संदेश में छिपे अपमान और धमकी के भाव को अपने लिए चुनौती समझा और प्रस्ताव के प्रति अपनी अस्वीकृति और असहमति व्यक्त करते हुए तदानुसार सुल्तान को अवगत करा दिया गया। हम्मीर देव ने अपनी ओर से लिख दिया-
धड़ नच्चे लोहू बहे परीबौले सिर बोल।
कटि कटि तन रन में परै तो नहीं दूँ मंगोल॥
मंगोल दिल्ली सल्तनत के शत्रु थे, जिनमें से कुछ लोगों ने रणथंभौर में जाकर शरण प्राप्त कर ली थी। जिन्हें अलाउद्दीन राजा से लेना चाहता था। परंतु राजा शरणागत को लौटाकर उनकी हत्या का दोष अपने सिर लेकर किसी भी स्थिति में शरणागत की रक्षा करने की भारत की आदर्श परंपरा को तोडऩा नहीं चाहता था। इसलिए वह अपने लोगों के समझाने पर भी माना नहीं और ‘हठ’ करके बैठ गया। यहीं से कवि को ‘हमीरहठ’ लिखने की प्रेरणा मिली।
आदर्शों के लिए जीना और आदर्शों के लिए मर जाना, यही वीरता होती है। हमीर के समय महाभारत का यह श्लोक मानो एक प्रश्नचिन्ह बनकर आ रहा था और उन्हें अपना राजधर्म समझा रहा था-
भयार्तानां भयात् त्राता दीनानुग्रह कारणात।
कार्यों कार्य विशेषज्ञो नित्यं राष्ट्र्रहिते रत: ॥
जायतां ब्रहमवर्चस्वी राष्ट्र वै ब्राह्मण: शुचि:।
महरथश्च रजन्य: एष्टव्य: शत्रुतापन:॥
(महाभारत अ. 145)
अर्थात शासक को चाहिए कि भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन दुखियों पर अनुग्रह करे, कर्तव्य और अकर्तव्य को विशेष रूप से समझे और सदा राष्ट्रहित में संलग्न रहे। सबको यह कामना करनी चाहिए कि राष्ट्र में पवित्र आचरण वाले ब्रह्मतेज धारण करने वाले विद्वान उत्पन्न हों, और शत्रुओं को पराजित करने वाले महारथी बलवान उत्पन्न हों।
पीछे नहीं हटा हम्मीर
लोग हम्मीर को पीछे हटने के लिए प्रेरित कर रहे थे, और हमीर समझ रहा था कि सिद्धांतों की रक्षार्थ तो प्राण भी दे दिये जाएँ तो भी उचित ही होता है, इसलिए उन्होने अपनी ही अंतरात्मा के न्यायालय में खड़ा होकर निर्णय कर लिया कि युद्ध करना है और यदि आवश्यक हुआ तो प्राणोत्सर्ग कर वीरगति को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे, परंतु सुल्तान के अपमान और धमकी को स्वीकार नहीं करेंगे। इस दुस्साहसपूर्ण वीरता का प्रतीक बन गया था- हम्मीर देव चौहान। इसलिए उसने सुल्तान को काव्यात्मक शैली में लिख दिया कि हम मंगोल शरणागतों को तुम्हें नहीं सौंपेंगे, परिणाम चाहे जो हो?
सजने लगे युद्ध के साज
अलाउद्दीन ने इस पत्र को पढक़र युद्ध की तैयारियां करनी आरंभ कर दीं, और साथ ही राजा हम्मीर ने भी युद्ध क्षेत्र के लिए सेना सजानी आरंभ कर दीं। दोनों पक्षों को ही ज्ञात था कि इस बार आर पार की लड़ाई होनी है, किसी एक पक्ष का पतन अनिवार्य है। राजा यह भली भांति जानता था कि इस बार जलालुद्दीन नहीं है, अपितु इस बार अलाउद्दीन है और अलाउद्दीन के होने का अर्थ क्या है? इसलिए राजा ने उसी स्तर की तैयारियां आरंभ की। उसकी वीरतापूर्ण ‘हठ’ से प्रभावित होकर रणथंभौर के लोग आज तक अपने इस साहसी राजा को इस प्रकार स्मरण करते हैं-
‘‘सिंहगमन, सत्यपुरुष वचन कदली फले एकबार।
तिरियातेल हम्मीर हठ चढ़े न दूजी बार॥’’
हिन्दू वीर की हुई निर्णायक जीत
सुल्तान अलाउद्दीन के दोनों सेनानायक उलुग खान और नुसरत खान बड़े गर्वीले ढंग से रणथंभौर पर आ चढ़े, उन्हे पूर्ण विश्वास था कि इस बार रणथंभौर का पतन निश्चित है। परंतु हिन्दूवीर राजपूतों ने एक ही झटके में इतना प्रबल हमला बोला कि सुल्तानी सेनानायकों और उनकी सेना को दिन में तारे दिखाई दे गए। अगले दिन के लिए युद्ध के लिए कुछ नहीं बचा, पहले दिन ही निर्णय हो गया और हिन्दू नायक की निर्णायक जीत हुई।
सुलतानी सेनानायक उलुग खान ने दिल्ली में जाकर अपने स्वामी को सारे अपमान की कहानी बताई। क्योंकि नुसरत खान इस युद्ध में मारा गया था। (संदर्भ: हम्मीर महाकाव्य)
सुल्तानी सेना हो गई परास्त
‘हम्मीर महाकाव्य’ से हमें पता चलता है कि इस युद्ध से पूर्व उलुग खाँ ने राजा के पास बहुत सा धन और अपनी पुत्री का डोला देकर संधि करने का प्रस्ताव रखा था, परंतु वीर हम्मीर ने इस प्रस्ताव को भी अपने लिए अपमान जनक मानकर अस्वीकार कर दिया। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार-‘हम्मीर देव चौहान ने अपने पूर्वजों के सम्मान की रक्षा करते हुए सुलतानी सेना को बड़ी वीरता से परास्त किया।’
अलाउद्दीन खिलजी ने लिया अभियान अपने हाथ
ऐसी परिस्थितियों में अलाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर अभियान अपने हाथों में ले लिया। तब रणथंभौर पर सुलतानी सेना ने पुन: बड़ी प्रबलता से आक्रमण किया। किले के पास की खंदकों को इस बार भरने का कार्य चलाया गया। परंतु राजपूती सेना ने किले के ऊपर से सुल्तान की सेना को खंदक भरने से रोकने हेतु पत्थरों से उन पर हमला बोल दिया और बहुत से मुस्लिम सैनिकों को मार डाला। तब सुल्तान ने छल से काम लिया। रतिपाल और रणमल नामक दो राजपूत योद्घाओं को उसने तोड़ लिया और इन ‘जयचंदों’ ने अपने स्वामी के साथ छल करते हुए मुस्लिम सेना का साथ देना स्वीकार कर लिया। अलाउद्दीन ने किले में भोजन पानी जाने के मार्ग अवरूद्घ कर दिये और किले में बंद लोगों को पूर्णत: प्राण त्यागने पर विवश कर दिया।
अंत में रच दिया जौहर
हम्मीर ने किला अपने विश्वसनीय जाजा को सौंप दिया और स्वयं युद्घ के लिए बाहर निकल आया। उसे आज केसरिया का सम्मान रखना था और प्राणों की चिंता किये बिना ‘मां भारती’ के ऋण से उऋण होना था। इसलिए उसने किले से बाहर आकर सुल्तानी सेना की भयंकर मारकाट करनी आरंभ कर दी। किले के भीतर स्त्रियों ने जौहर कर अपने धर्म की रक्षा की और राजा दाहर की पत्नी बाई द्वारा डाली गयी इस जौहर की रोमांचकारी परंपरा का निर्वाह कर उसे अपनी श्रद्घांजलि अपने प्राण न्यौछावर कर अर्पित की। अमीर खुसरो ने इस युद्घ में हिंदुओं के साहस को अपने शब्दों में सराहते हुए कहा है कि-‘‘राजा हम्मीर देव चौहान का अंत रणस्थल में ही हो गया।’’ एसामी नामक मुस्लिम लेखक का कहना है कि राजा का कोई भी सहयोगी जीवित नही पकड़ा जा सका था। यह घटना 12 जुलाई 1301 ई. की है। एक वीर अपने सर्वोत्कृष्ट बलिदान को देकर हुतात्माओं की श्रेणी में सम्मिलित हो गया, स्वतंत्रता का एक दीपक बुझ गया, एक पुंज अनंत में विलीन हो गया, परंतु उसने जीवित रहते जलालुद्दीन या अलाउद्दीन के किसी अपमान जनक प्रस्ताव को नही माना। आज सारे राष्ट्रभक्त देशवासियों की ओर से परमवीर योद्घा को शत-शत नमन।
मुख्य संपादक, उगता भारत