सतसंकलपों के कारनै, झुकता है संसार
बिखरे मोती भाग – 57
दया की करे अपेक्षा,
खुद है दयविहीन।
आड़े वक्त में तड़फता,
जैसे जल बिन मीन ॥646॥
प्राय देखा गया है कि लोग स्वयं पर संकट आने पर परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं- हे प्रभु! दया करना, जबकि दूसरे पर संकट आने पर मुंह फेर लेते हैं अथवा उपहास करते हैं। ऐसे हृदय हीन लोग मुसीबत में प्रभु कृपा के लिए ऐसे तरसते हैं जैसे जल के बिन मछली तरसती है। इसलिए याद रखो! प्रभु उन्हीं के आंसू पोंछते है जो दूसरों के आंसू पोछतें हैं। भाव यह है कि प्रभु की कृपा के पात्र बनना चाहते हो तो तुम भी दूसरों पर दया करो।
ज्योति जलावें नाम की,
मन जड़ता से भरपूर।
जब तक जड़ता में रहै,
तो हरी से कोसों दूर ॥647॥
अर्थात जो लोग भगवान के नाम की ज्योति मंदिर अथवा घर आंगन में जलाते हैं, किंतु उनका हृदय अज्ञान के अंधेरे से भरा पड़ा है तो समझो वह अहंकार के गहरे कूप में पड़ा है क्योंकि अहंकार अज्ञान से ही उत्पन्न होता है। इसलिए याद रखो, जो जितना जड़ता में पड़ा है वह उतना ही उस चेतन तत्व (परमात्मा) से दूर है।
रवि की रश्मि अवनी से,
दूर करें अंधकार।
प्रभु-ज्योति उर में जलै,
तब होवें दूर विकार ॥648॥
अर्थात जैसे सूर्य की किरणें पृथ्वी के गहन अंधकार को दूर करके पृथ्वी को आलोकित करती है, समस्त सृष्टि में नव जीवन का संचार करती है। ठीक उसी परकास परमपिता परमात्मा की स्नेहिल अनुकंपा और ज्ञान से ओत-प्रोत रश्मियां हृदय को प्रकाशित करती है। जड़ता अर्थात अज्ञान और अहंकार को दूर करती हैं, मन के विकारों का उन्मूलन करती हैं। इसलिए अगाध श्रद्धा के समय सर्वदा प्रभु से जुड़े रहिए, उससे हमेशा उरजनवित होते रहिए।
मरुभूमि के पास से,
बिन बरसे जात पयोड।
श्रद्धाहीन वंचित रहै,
चाहे वेद का बरसे बोध ॥649॥
भाव यह है की जिस प्रकार मरुस्थल के ऊपर से नीर से भरा बादल बिन बरसे गुजर जाता है, पृथ्वी का वह क्षेत्र वर्षा से वंचित रहा जाता है। ठीक इसी प्रकार श्रद्धाहीन व्यक्ति के हृदय के ऊपर से प्रवचन अथवा उपदेश गुजर जाता है, बेशक वह उपदेश ईश्वरीय ज्ञान (वेद) का ही क्यों न हो।
आशंका से दूर रख,
अपने श्रेष्ठ विचार।
सतसंकलपों के कारनै,
झुकता है संसार ॥650॥
जरा चिंतन कीजिए, संसार में आज तक जीतने भी महापुरुष हुए हैं उन्होने अपनी विचार शक्ति को आशंकाओं के भँवर में नहीं पड़ने दिया। इसलिए उन्होने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बुलंदियों को छुआ। विचार-शक्ति परमपिता परमात्मा की अनमोल देन है। इसे लोक-कल्याण के लिए फौलादी इरादों में बदलिए। संसार आपकी पूजा करेगा। इस संदर्भ में आइन्स्टाइन ने कहा था-‘यदि आप अपने जीवन को चर्मोत्कर्ष पर पाहुचना चाहते हैं तो अपनी वैचारिक शक्ति को आशंकाओं में नहीं अपितु सतसंकलपों में लगाइए।’
स्वर्ग की सीढ़ी सत्या है,
उर में रख सदभाव।
जैसे सागर तरन को,
साधन होती नाव ॥651॥
विद्या तृप्ति दायिनी,
क्षमा से मिलै सुकून।
अहिंसा सुख का मूल है,
काश! हो इनका जुनून ॥652॥
क्रमशः