आनंद स्वरूप काशिव
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण: ।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविन: ।।
अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और पराशुराम ये सातो चिरंजीवी हैं। इन सातों के चिरजीवी होने के दर्शन पर ध्यान केंद्रित करें।
अश्वत्थामा: प्रतिशोध, हिंसा, वीभत्सता, घृणा, षड्यंत्र, निर्लज्जता, अविवेक, भयहीनता का जीवंत उदाहरण है। ऐसे आचरण के लोग हमेशा से हर युग और समाज में विद्यमान हैं। अश्वत्थामा इस आचरण का संवाहक है, अत: अमर हैं।
कृपाचार्य : वह जो दूसरों पर निर्भर रह कर जीवन यापन करे। उदर पूर्ति ही जिनका जीवन लक्ष्य हो। जो जीवन निर्वहन में सहायक होता है उसी के साथ होते है। ऐसे प्राणी हमेशा से हैं इसलिये यह वृत्ति अमर हैं।
परशुराम: क्रोध, बैर, जुनून की हद तक प्रतिहिंसा, अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग एक व्यक्ति सहस्र अर्जुन से बदला लेने में किया। तब भी संतुष्ट नहीं हुए बल्कि उस जाति के नि:पराध लोगों की हत्या की। ऐसे आचरण के लोग हर देश काल परिस्थिति में रहते हैं। परशुराम व्यक्तित्व कभी नहीं मरता, अत: अमर है।
बलि: प्रह्लाद के पौत्र, विरोचन के पुत्र, धर्मशील नीतिनिपुण होने पर भी, छले गये। हर युग, हर समाज में ऐसे लोग हैं जो अपना सब कुछ गवां बैठते हैं। बलि स्वरूप ऐसे लोग कम नहीं हैं, अत: बलि अमर है।
विभीषण: मीठी वाणी बोलने वाला, वाणी द्वारा भेद बताने वाला, स्व हित निरत। वाणी द्वारा जितनी भीवृत्तियां हो उससे जीविकोपार्जन करने वाला हर युग काल में हैं, अतएव विभीषण यानी सुकंठ अमर है।
हनुमान: ज्ञानी, गुणवान, बलवान, सेवा में सावधान, अपने स्वामी चाहे वह कोई व्यक्ति, राष्ट्र या वर्ग विशेष हो, के प्रति कर्तव्यनिष्ट और समर्पित व्यक्ति से ही सामाजिक, राष्ट्रीय, या जातीय जोकि विशेष जाति नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज का अस्तित्व है और ऐसे आचरण के व्यक्तित्व की सर्वदा अपेक्षा रहती है। ऐसे में हनुमान कैसे मर सकते हैं।
व्यास: ज्ञानी, विज्ञानी, सर्वद्रष्टा, जीवन मुक्ति दर्शन का प्रणेता, परंपरा का संवाहक. मानव जीवन के कारण और लक्ष्य को बताने वाला, मुक्त और मुक्ति पथ प्रदर्शक सर्वदा विद्यमान हैं। जो समय.स्थान के सीमा में बद्ध न होकर सर्वकालिक विद्यमान हैं और अमर हैं।
अगर हम सूक्ष्म विचार करें तो ये सातों व्यंजनाओं को प्रकट करने वाले कारण स्वरूप हैं। हमारे शरीर मे ये सातों विद्यमान हैं, जो जन्म और मुक्ति के संवाहक हैं। इन पर उत्तरोत्तर विजय पाना ही जीवन और मुक्ति को पाना है। इसको ध्यान साधना में क्रमिक उन्नति ही कुंडलिनी जगाना है। गुण विशेष के साथ शरीर में इनके स्थान नियत हैं जो कि नीचे वर्णित हैं।
1. मूलाधार चक्र : मेरुदंड के मूल में, सबसे नीचे। यहाँ अश्वत्थामा का वास है। घृणित भी है और जन्म का कारक भी। यह पहला चक्र है जिसपर साधक को विजय पाना होता है।
2. स्वाधिष्ठान चक्र : यह स्थान कृपाचार्य का है। क्षुधा पर विजय पाने मात्र से ही प्रसन्नता, निष्ठा आत्मविश्वास और ऊर्जा का स्वयमेव प्रादुर्भाव होता है।
3. मणिपुर चक्र : इस स्थान पर परशुराम का वास है जिस पर विजय पाने पर आत्मविश्वास, खुशी, विचारों की स्पष्टता, ज्ञान, बुध्दि और योग्य निर्णय लेने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है। अत: परशुराम आचरण पर विजय पाना होता है।
4. अनाहत चक्र : यह हृदय के पास होता है और यह भावना, अनुराग पर विजय पाना होता है यहाँ पर बलि का वास है जिसने प्रेम और भावना में अपना सब भौतिक गवां बैठा। अत: साधक को उपरोक्त वृत्तियों पर विजय पाना होता है।
5. विशुद्धि चक्र : यह कंठ स्थान है जहां विभीषण का वास है। इसपर विजय पाने वाला स्वयं को पहचानने लगता है।
6 आज्ञा चक्र : मेरुदण्ड की समाप्ति पर भ्रूमध्य के पीछे। यहाँ पर हनुमान का स्थान है जो मानरहित, बुद्धि का केंद्र, संवेदनशीलता, बौद्धिक सिद्धि तथा सर्वोच्च चेतना का प्रदाता। यहां स्वयं चेतना के अतिरिक्त परमात्मा का बोध होता है।
7. सहस्त्रार चक्र: यहां व्यास का वास है। जिसपर विजय पाने वाला जन्म मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेने वाला विज्ञानी होता है।
इस तरह हम देखते हैं कि जब तक ये सातों जीवित हैं, हमें अनंत जीवन की यात्रा करना है और यदि मुक्त भी होना है तो इन्ही पर विजय और इनकी सहायता द्वारा।