जो सिमरै संसार को,
तो जगता है काम।
जो सिमरै ओंकार को,
तो होता निष्काम॥1623॥
व्याख्या:- भाव यह है कि जब व्यक्ति भगवान का भजन करने के लिए बैठता है और चिन्तन संसार का करता है,तो काम ( तृष्णाएं) उत्पन्न होता है। काम से राग – द्वेष ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, सम्मोह (मुढ़ता) उत्पन्न होते हैं,स्मृतिभ्रंश व बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि के नाश होने पर सर्वनाश होता है। इसलिए कामनाओं भंवर बड़ा आत्मघाती होता है किन्तु जो साधक केवल परमपिता परमात्मा के ध्यान में तल्लीन रहता है, ब्रह्मभाव में जीता है, वह कामनाओं (तृष्णाओं) के मकड़-जाल से मुक्त हो जाता है, निष्काम हो जाता है अर्थात अकाम हो जाता है। ध्यान रहे, जीव को कामना ही है, जो उसे जीवन-मरण के क्रम में बांधती किन्तु निष्काम अथवा अकाम होने पर जीव आवागमन के क्रम से छूट जाता है, मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्यनिष्ठ योग ही ब्रह्य का दीदार करता है:-
फूल दिखाई देते है,
दिखती नहीं सुगन्ध।
अलि कली का चख सके,
गन्ध और मकरन्द॥1624॥
व्याख्या:- दृश्यमान संसार में समस्त प्राणी और प्रकृति परमपिता परमात्मा बही: प्रज्ञावस्था है। यह उसका विराट रूप है। सब नर – नारियों के अलग-अलग शरीर मिलकर उसका एक विश्व – शरीर बनता है, जो ‘विश्वानर’ है, अतः ब्रह्म की इस अवस्था को माण्डूक्योपनिषद में वेश्यानर कहा है।
यहां फूल से अभिप्राय ब्रह्म की उत्कृष्टतम रचना प्रकृति से है, और सुगन्ध से अभिप्राय अमूर्त अगोचर ब्रह्य से है,जो कण-कण में विद्यमान है किन्तु दिखाई नहीं देता,जैसे फूल दिखाई देता है किन्तु उसकी सुगन्ध दिखाई नहीं देती है। जिस प्रकार कोई भौंरा फूल की मदमाती खुशबू और मृदु रस का रसास्वादन करता है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्म के स्वरूप और मिठास (आनन्द) को जिसे वेद और उपनिषदों में रसों ने ‘रसो वै सः’ कहा ,उसकी रसानुभूति तथा दिव्य-दर्शन का आनन्द तो कोई ब्रह्मनिष्ठ योगी ही कर सकता है सामान्य व्यक्ति नहीं।
किसे होता है ईश्वर का दीदार ?
प्रभु के जैसा चित्त ही,
प्रभु का पाता प्यार।
प्रभु – कृपा से होते हैं,
ईश्वर का दीदार॥1625॥
कौन कहां तक साथी ?
धन घर तक ही साथ दे,
स्वजन क्रिया – कर्म ।
देह चिता तक साथ दे,
स्वर्ग का साथी धर्म॥1626॥
क्रमशः