मोहम्मद गोरी को हराने वाली रानी नायका और राजा भीमदेव

शाहिद रहीम अपनी पुस्तक ‘संस्कृति और संक्रमण’ के पृष्ठ 243 पर लिखते हैं- ‘1026 ई. से 1174 ई. तक की डेढ़ शताब्दी में कोई आक्रमण (भारत पर) नहीं हुआ। लेकिन संक्रमण के राजनीतिक प्रभाव से स्थिति इतनी दुरूह हो गयी कि संपूर्ण भौगोलिक क्षमता को आधार बनाकर कोई केन्द्रीय सत्ता स्थापित न हो सकी। धरती के शहरनुमा टुकड़ों वाले कई रजवाड़े और सरदार उभर आए। उत्तर भारत में तोमर (दिल्ली)  चौहान (अजमेर) राठौर (कन्नौज) चंदेल (बुंदेलखण्ड) पाल (बिहार) सेन (बंगाल) चालुक्य (गुजरात) शिशोदिया (मेवाड़) आदि की राजपूत रियासतें थीं। दक्षिण में चोल, चेरे, पल्ल्व और पाण्डेय कबीलों की छोटी-छोटी हुकूमतें थीं। उत्तर और दक्षिण के ये रजवाड़े आपस में ही लड़ते रहने के आदी हो गये थे।’

शाहिद जी ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का यह बहुत सुंदर वर्णन किया है। यद्यपि चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए राजाओं का परस्पर युद्घरत रहना उचित माना गया है, परंतु इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। जब राजाओं के पारस्परिक युद्घों से जनता का विनाश होने लगे या जनता एक दूसरे राज्य की जनता को परस्पर ईर्ष्या भाव से देखने लगे तो उस समय समझना चाहिए कि ऐसे युद्घों से हमारा नैतिक और राजनैतिक पतन हो रहा है। ऐसे ईर्ष्याभाव से हम अपना बहुत कुछ खो चुके थे। परंतु यहां खोने की दुष्ट परंपरा का उल्लेख करना हमारा उद्देश्य नहीं है, यहां जानबूझकर विलुप्त किये गये इतिहास के कुछ गौरवपूर्ण रत्नों को प्रकाशित करना हमारा उद्देश्य है।

गुजरात की भूमि ने भी हमें ऐसे कई रत्न दिये हैं जिनके दिव्य तेज से इतिहास आज तक जगमगा रहा है। गुजरात के चालुक्यों को कई इतिहासकारों ने गुर्जर वंश का माना है। गुजरात को प्राचीन काल में गुर्जरत्रा अर्थात गुर्जरों के अधिकार वाला क्षेत्र कहा जाता था। कुक्क नामक एक गुर्जरवंशीय शासक के विक्रम संवत 918 के लेख में चालुक्यों को गुर्जर कहा गया है। जैसे गुर्जर शासक भीम चालुक्य भीमदेव प्रथम और उसके पुत्र गुर्जर शासक कर्ण चालुक्य मल्ल और महाराजाधिराज चालुक्य कुमार पाल को गुर्जरवंश से जोड़ा गया है। इसी प्रकार अन्य लेखों में जयसिंह चालुक्य को गुर्जर मण्डल का शासक कहा गया है। उसकी राजधानी अनहिल पट्टन (अन्हिलवाड़ा) कही गयी है। इस पट्टन शब्द से ही पट्टिका या पट्टी शब्द प्रचलित हुआ जो आजकल भी गुर्जरों के बहुत से गांवों में किसी मोहल्ले विशेष के लिए बोला जाता है। इसी प्रकार खेतों के बड़े समूह को आज तक भी पाट कहने का प्रचलन गुर्जरों में है। ये सब बातें गुर्जरों में अपने बीते हुए साम्राज्य के स्वर्णिम काल को किसी न किसी रूप में स्मृति में बनाये रखने की ही प्रवृत्ति का परिचायक है। यद्यपि आजकल यह सब परंपरा में ही परिवर्तित होकर रह गया है, क्योंकि अनहिल पट्टन भी अनहिल पट्टन नहीं रही है, अपितु अन्हिलवाड़ा हो गयी है।

गुजरात के चालुक्य ही सोलंकी कहे जाते हैं। मोहम्मद गोरी के समय अन्हिल पट्टन पर अल्पव्यस्क मूलराज नामक शासक का शासन था। मूलराज की माता रानी नायका अपने अल्पवयस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में यहां शासन कर रही थी। रानी नायका बहुत ही कुशल नीतिनिपुण और कूटनीतिज्ञा थीं। उन्हें नारी समझकर ही गौरी ने अन्हिलवाड़ा पर 1175 ई. में आक्रमण कर दिया।

रानी के समक्ष अपने स्वर्गीय राजा के पश्चात परीक्षा की विकट घड़ी आ उपस्थित हुई। वह अपने पति, अपनी प्रजा और अपने देश के प्रति अपने कर्तव्य भाव से भर उठी। रानी विदेशी आततायी आक्रांता को धूल चटाने की योजना बनाने लगी। उस समय गुजरात का प्रमुख सोलंकी भीमदेव था। उसने रानी नायका की सहायता के लिए अपनी सेवाएं दीं और स्वयं ही नहीं अपितु कई राजाओं को लेकर वह विदेशी शासक के विरूद्घ युद्घ के मैदान में आ डटा। इतना ही नहीं रानी नायका ने भी अपनी एक अनोखी योजना पर कार्य किया। वह अपनी पीठ पर अपने अल्पवयस्क राजकुमार को बांधकर लायी और युद्घ के मैदान में चण्डी बनकर कूद पड़ी। इस घटना का उल्लेख वीर सावरकर जी ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’ में इस प्रकार किया है:-

‘गुजरात के मुख्य राजा की मृत्यु हो जाने से वहां की रानी और सैनिक अधिकारियों ने मृत राजा के बहुत ही छोटे बच्चे को उस राज्य पर बिठा दिया था। इसलिए मोहम्मद को वह राज्य दुर्बल दिखाई पड़ा और उसने उस पर चढ़ाई कर दी। किंतु आपातत: दीखने वाली इस दुर्बल परिस्थिति ने मोहम्मद के छक्के छुड़ा दिये। मोहम्मद की चढ़ाई होते देख गुजरात की हिंदू सेना स्वयं आगे बढ़कर आबू पहाड़ के आस-पास तक आ धमकी। कहना न होगा कि उनसे सहानुभूति रखने वाले कुछ हिंदू राजाओं ने भी उसे इस पहल में पूरी सहायता की। रानी ने वहां बड़ी शूरता के साथ सामना किया। वह अपने लाडले नन्हे राजा को हिंदू सेना के सामने ले आयी और इन शब्दों में उन सबका आह्वान किया कि यह बाल राजा आप लोगों की गोद में डाल रही हूं। प्राणपण से इसकी रक्षा कीजिए। तत्काल आग भड़क उठी और वह सारी हिंदू सेना और आस-पास के सहायक हिंदू नरेश भी मोहम्मद के साथ इतने आवेश से लड़े कि मार से मात खाकर उसकी सारी सेना दशों दिशाओं में भाग निकली। बड़े कष्ट से मोहम्मद गोरी प्राण बचाकर जो भागा तो अपने अधीन सीमा प्रदेश में ही जाकर रुका।’

भारतीय नरेशों ने यहां एक साथ कई प्राचीन भारतीय राजनीतिक मूल्यों का परिचय दिया। इनमें प्रथम था- नारी का सम्मान करना। दूसरा था- विदेशी शत्रु के समक्ष हमारे मतभेद कुछ नहीं, हम उसके लिए सब एक हैं। तीसरा था- अदम्य साहस और देशभक्ति। चौथा था – अपने समकक्ष से यदि उसके जीवन काल में कुछ मतभेद भी रहे तो उसके स्वर्गवासी होने पर उसकी संतान से कोई वैर विरोध न रखने का। इन सारे गुणों का सम्मिलन हुआ तो विदेशी आक्रांता पूंछ दबाकर युद्घ क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ।

पी.एन. ओक ने अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ भाग-1  के पृष्ठ 95 पर इस युद्घ में संलिप्त रहे भीमदेव द्वितीय के विषय में लिखा है कि इस हिंदू राजा ने बड़े ओज और उत्साह से पीट-पीटकर गौरी के दुष्ट दल की केवल पीठ ही नहीं तोड़ी, अपितु भारत की सीमा के बाहर तक उसे खदेड़-खदेड़ कर मारा। इस मार से गौरी इतना भयभीत हो गया था कि आगामी 20 वर्षों तक गुजरात पर बुरी नजर डालने का उसका साहस भंग हो गया।’

इतिहास के इस स्वर्णिम पृष्ठ को जान-बूझकर उपेक्षित किया गया है। रानी नायका की अवतार 1857 की क्रांति के समय रानी लक्ष्मीबाई बनी थीं जिन्होंने अपने अल्पवयस्क पुत्र को पीठ पर बांधकर युद्घ किया था। रानी लक्ष्मीबाई दुर्भाग्यवश अपने राज्य की रक्षा नहीं कर पायीं, यह एक अलग बात है। परंतु उन्होंने रानी नायका का अनुकरण कर अपने अद्भुत राजनीतिक और रणनीतिक कौशल का परिचय तो दिया ही था। आवश्यकता दोनों रानियों के भारत की स्वतंत्रता में दिये गये योगदान को महिमामंडित करने की है। जब जब कभी मतभेदों के उपरांत भी एक राजा के विदेशी शत्रु के लिए अपने  दूसरे स्वदेशी राजा को दिये गये सहयोग को मैं इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर देखता हूं तो सुब्रह्मण्यम भारती की ये पंक्तियां अनायास ही समरण हो आती हैं, मानो कवि ने ऐसे महान देशभक्त राजाओं का कीर्तिगान किया हो-

‘एक मां की कोख से ही जन्मे हम।

अरे विदेशियों ! हम अभिन्न हैं।

मनमुटाव वो क्या होता है? हम भाई-भाई ही रहेंगे।।

हम वंदेमातरम् कहेंगे।

हजारों जातियों का यह देश,

सम्बल न मांगेगा तुमसे…..

अरे विदेशियों हम अभिन्न हैं।

एक मां की कोख से जन्मे हम….

हम वंदेमातरम् कहेंगे।’

मां भारती ने बांधे रखा सबको

वास्तव में भारत माता के प्रति समर्पण की यह उत्कृष्ट भावना हमें सदियों से एकता के सूत्र में बांधे रही है। हमने इस पावन भूमि को कभी भी एक भूमि का टुकड़ा नहीं माना, अपितु इसे माता समझा और स्वयं को इसका पुत्र माना। इसलिए अभी तक के इतिहास में (अर्थात 1175 ई. तक) एकाध अपवाद को छोड़कर अधिकांश अवसरों पर देशी राजाओं ने अपने साथी राजा का सहयोग किया और विदेशी आततायी को मार भगाने में सफलता प्राप्त की। हां, अब से आगे ऐसी परिस्थितियां अवश्य बनीं कि जब देशी राजाओं में से किसी ने विदेशी आक्रांताओं को अपने देशी शासक के विरूद्घ भड़काया या उस पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। उनकी यह कार्यशैली निश्चय ही निंदनीय रही और यह निंदनीय कार्यशैली ही भारत जैसे स्वतंत्रता प्रेमी देश के कुछ भूभाग को पराधीन करा गई।

जिस भीमदेव की बात हम यहां कर रहे हैं, उसी के भतीजे प्रताप सिंह व उसके अन्य भाईयों से भीमदेव का मनमुटाव हो गया, तो ये लोग गुजरात से रूष्ट होकर पृथ्वीराज  चौहान के पास शरणागत के रूप में आ गये। पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर उस समय जीवित थे। परंतु राजकाल में पृथ्वीराज चौहान हाथ बंटाने लगे थे। एक दिन की बात है कि प्रताप सिंह दरबार में बैठे अपनी मूंछों पर ताव दे रहे थे, जिसे पृथ्वीराज के दरबारी कान्ह ने देख लिया। उसे प्रताप सिंह का यह कार्य चौहानों को अपमानित करने वाला लगा और उसने अविवेकपूर्ण ढंग से प्रताप सिंह का दरबार में ही वध कर दिया। पृथ्वीराज चौहान को भी कान्ह का यह कृत्य न्याय, नीति और राजनीति के विरूद्घ लगा। पर अब किया भी क्या जा सकता था? प्रताप सिंह के साथ आये अन्य सोलंकियों ने जब चौहान के दरबार की यह घटना भीमदेव को जाकर बतायी तो वह आग-बबूला हो उठा। कहते हैं ना- घटना का प्रभाव दूर तक जाता है। अत: भीमदेव पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता मानने लगा। उसने संयोगिता के स्वयंवर में पृथ्वीराज चौहान के विरूद्घ जयचंद का साथ दिया। मूंछों की लड़ाई में देश का नाश हो गया, दर्जनों देशी राजाओं को एक प्रताप सिंह के साथ किये गये निंदनीय कृत्य की सजा अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी। इससे भारतवर्ष में विदेशी शक्तियों को अपने पैर जमाने का अवसर उपलब्ध हो गया। अब से पूर्व देशी राजाओं के युद्घ अपने राज्य विस्तार के लिए हुआ करते थे, जिन्हें किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, परंतु अब से आगे होने वाले युद्घों में पारस्परिक कलह, कटुता और वैमनस्यता झलकने लगी। इस कलह का लाभ विदेशी आततायियों को मिला।

रानी को दो सम्मान

गजनवी के पश्चात मोहम्मद गोरी का गुणगान करना वर्तमान भारतीय इतिहास का एक बहुत बड़ा छल है। उस छल को देखकर तो ऐसा लगता है कि जैसे बीच के काल में भारत मर ही गया था। गोरी जैसे क्रूर शासकों के क्रूर कृत्यों का वंदन इस प्रकार किया गया है कि जैसे वह बहुत बड़ा महात्मा हो। इस पर पी.एन. ओक लिखते हैं-

‘क्या भारत में पवित्र उपदेशों का अकाल और अभाव था? क्या भारत के पास कृष्ण की गीता, शंकराचार्य का एकेश्वरवाद वेद और उपनिषद नहीं था?’

अब आगे के अध्याय में हम भारत के गौरव और पतन की पहली सांझ पर चर्चा करेंगे। इसमें मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान हमारे विवेचनीय व्यक्तित्व होंगे। गौरव इसे इसलिए कहेंगे कि गौरी को देश के लोगों ने और पृथ्वीराज चौहान सहित कई नरेशों ने पर्याप्त चुनौती दी, और  देश में देशभक्ति का वातावरण भी बना रहा, परंतु इस सबके उपरांत भी हमारे पारस्परिक मतभेदों के कारण देश में गुलाम वंश की स्थापना भी हो गयी। गुलामवंश सन 1206 में स्थापित हुआ। इसके पश्चात दिल्ली सल्तनत काल रहा जो 1526 ई. तक चला।

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