बापू ने कहा -‘करो या मरो’
महात्मा गांधी की अहिंसा को लेकर आरंभ से ही वाद विवाद रहा है। इसमें कोई संदेह नही कि अहिंसा भारतीय संस्कृति का प्राणातत्व है। पर यह प्राणतत्व दूसरे प्राणियों की जीवन रक्षा के लिए हमारी ओर से दी गयी एक ऐसी गारंटी का नाम है, जिससे सब एक दूसरे के जीवन की रक्षा के संकल्प को स्वाभाविक रूप से धारण करने वाले बनें। इस अहिंसा में यह आवश्यक नही है कि आप तो दूसरे के प्रति उदार ही बने रहें और दूसरा आपके प्राणों का शत्रु बन जाए। प्राणों के ऐसे शत्रु के विषय में ध्यातव्य है कि जैसे प्रत्येक प्राणी के जीवन के प्रति उदार रहना हमारी अहिंसा है, वैसे ही दूसरों पर भी यही बात लागू होती है। यदि दूसरे अपने कत्र्तव्य के प्रति असावधान हैं, तो यही उनकी षठता है, और इस षठता के उपचार के लिए और अहिंसा की रक्षार्थ तब एक व्यावहारिक सिद्घांत आ जुड़ता है-‘षठे षाठयम् समाचरेत्’ का। भारत की संस्कृति में अहिंसा का व्रत तभी पूर्ण होता है जब अहिंसा दुष्ट की दुष्टता को दंडित करने का साहस रखने वाली भी हो।
‘‘पशु यज्ञ का विशाल आयोजन हो रहा था। चमचमाती तलवार थामे क्रूर वधिकआदेश की प्रतीक्षा में था, कि तथागत गौतम बुद्घ ने प्रवेश किया। राजा अजातशत्रु ने उन्हें नमन किया। तथागत ने एक तिनका देकर कहा-‘‘राजन! इसे तोडक़र दिखाइये।’’
राजा ने उसके दो टुकड़े कर दिये। तथागत ने कहा-‘‘राजन! अब इन टुकड़ों को जोड़ दीजिए।’’ राजा ने कहा-‘‘ऐसा कैसे संभव है भगवान।’’
तथागत ने कहा-‘‘राजन! जिस प्रकार टूटे तिनकों को जोडऩा संभव नही है, वैसे ही अपने पाप को इन निरीह निर्दोष, मूक प्राणियों की बलि से नही मिटाया जा सकता। पशु हिंसा से तुम्हारे पाप में वृद्घि होगी-कमी नही, जो प्राण हममें हैं, वही प्राण इनमें भी हैं, प्राणिमात्र को अपने समान समझकर व्यवहार करना धर्म है। जब तुम किसी मेें प्राण फूंक नही सकते, तो तुम्हें किसी के प्राण हरण का भी अधिकार नही।’’ अजातशत्रु ने पशुओं को मुक्त कर दिया।
कहने का अभिप्राय है कि हमारी अहिंसा दूसरों के जीवन की रक्षार्थ है। किसी का जीवन लेना या किसी के जीवन जीने के मौलिकअधिकारों में किसी प्रकार की बाधा पहुंचाना एक प्रकार की हिंसा है, जिसे स्वीकार करना अपनी आत्मा के प्रति भी अपराध है।
महात्मा बुद्घ ने हिंसक को अहिंसक बनाया और अनेकों पशुओं की जीवन रक्षा की, इसलिए उनकी अहिंसा स्वीकरणीय है। इधर गांधी जी हिंसक को हिंसक बनाये रखकर अहिंसक को उसका प्रतिकार करने तक में अपराध मान रहे थे। बस, इसी अंतर को लेकर गांधीजी की अहिंसा को लेकर देश के लोगों ने बार-बार वाद-विवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है।
‘सरदार पटेल और भारतीय मुसलमान’ के लेखक रफीक जकरिया हमें बताते हैं कि (देश के विभाजन के समय) जिन्ना हिंदू मुसलमानों के मध्य अंतर को उभारकर सामने रख रहे थे अपने भाषणों में जगह-जगह जहर उगल रहे थे। पटेल भी इस बात से निराश थे कि मुसलमानों के सच्चे हितचिंतक महात्मा गांधी पर मुसलमान विश्वास नही करते। यरवदा जेल में गांधीजी के साथ रहते हुए एक दिन उन्होंने लगभग निराश होकर गांधीजी से पूछ लिया-‘‘कोई ऐसे मुसलमान भी हैं जो आपकी बात सुनते हैं?’’ गांधीजी ने कहा इससे कोई अंतर नही पड़ता कि मेरी बात सुनने वाला एक भी मुसलमान नही है। जकरिया कहते हैं कि महात्मा गांधी का (अपनी अहिंसक परक नीतियों में) का विश्वास कभी नही डिगा। पर सरदार पटेल का विश्वास उनसे डगमगाने लगा। वे चाहते थे कि नेता यथार्थ को समझें और उसका सामना करें। पटेल इस निष्कर्ष पर पहुंच गये कि लीग के इशारों पर चलकर मुसलमान अपनी कब्र अपने आप खोद रहे हैं। इसके विपरीत गांधी जी का दृष्टिकोण उनके प्रति कहीं अधिक सहानुभूति पूर्ण था। गांधीजी संकट को संकट समझकर भी संकट नही मानने की हठ कर रहे थे। इसी से उनकी अहिंसा को कई लोगों ने ‘कायरों की अहिंसा’ कहा।
पर ऐसे अवसर भी आये जब गांधीजी ने भी अहिंसा के विषय में अपने मत में परिवर्तन करने का संकेत दिया या ऐसा करने का साहस दिखाया। उन्होंने परिस्थितिवश ही सही, पर अपने अहिंसावादी सिद्घांत के प्रति अपने अतिवादी दृष्टिकोण में दोष स्वीकार किया।
जिस समय देश का विभाजन हो गया था, तो पाकिस्तानी सेना ने भारतीय भू-भाग को अपने नियंत्रण में लेने के लिए कबायलियों के रूप में आक्रमण कर दिया। तब सरदार पटेल ने गांधीजी से व्यंग्यात्मक शैली में कहा कि-बापू! भारत पर पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के रूप में आक्रमण कर दिया है, आप कहें तो सीमा पर कुछ चरखे भेज दें? या देश की सुरक्षा के लिए कुछ और किया जाए।’’ तब गांधीजी ने सीमा की रक्षार्थ सेना की नियुक्ति की बात कही थी। यह उनके द्वारा एकप्रकार से अपने आज तक के व्यवहार की समीक्षा ही थी और यह आत्मस्वीकारोक्ति भी कि हर सिद्घांत की अपनी सीमायें होती हैं, और व्यक्ति को कभी भी अपने सिद्घांत को राष्ट्र का सिद्घांत बनाकर नही थोपना चाहिए। पर कांग्रेस ने गांधीजी की आत्मस्वीकारोक्ति को राष्ट्र की आत्मस्वीकारोक्ति नही बनने दिया। फलस्वरूप जिस भूल को गांधीजी स्वयं अपने जीवन काल में सुधार गये थे वह आगे नही चली।
इसी प्रकार का एक उदाहरण ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ (1942 अगस्त) के समय का है, जिसमें गांधीजी ने ‘करो या मरो’ की बात कही थी। जब गांधीजी के इस कथन पर उनके हिंसक हो उठने के आरोप लगने लगे तो वह अपने कहे हुए कथन से ‘यू-टर्न’ ले गये। उन्होंने अपने ‘करो या मरो’ के सिद्घांत को अपनी अहिंसा की नीतियों के अंतर्गत शीशे में जडऩे का प्रयास किया। जबकि इस नारे में सीधे ‘दुष्ट के साथ दुष्टता’ का संकल्प दिखता है। उन्होंने इस नारे के माध्यम से भी यही बताने का विचार किया था कि अधिकारों के लिए संघर्ष अनिवार्य है, और कभी-कभी यह संघर्ष हिंसक भी होना अनिवार्य है।
पैगंबर मोहम्मद साहब की हदीस भी देखने लायक है। वह कहते हैं कि मुसलमान को एक ही सुराख से बार-बार डंक नही खाना चाहिए। अर्थात दोबार धोखा नही खाना चाहिए। (सही मुस्लिम पृष्ठ 713) पुरूषोत्तम का कथन है कि गांधीजी का कहना था कि-‘‘मैं दूसरों पर अविश्वास करने की अपेक्षा एक हजार बार धोखा खाना पसंद करूंगा।’’
पुरूषोत्तम अपनी पुस्तक ‘भारत के इस्लामीकरण के चार चरण’ में लिखते हैं कि एक बार गांधीजी ने दुखी होकर कहा कि-‘‘अब ऐसी स्थिति आ गयी है कि जो हिंदू और मुसलमान ठीक दो वर्ष पूर्व मित्रवत कंधे से कंधा मिलाकर काम करते थे। अब कुत्ते बिल्ली की भांति आपस में लड़ रहे हैं। इस स्थिति को ठीक करने के लिए उपवास के मध्य एक बार महादेव देसाई ने उनसे पूछा कि-‘वह अपनी किस गलती का प्रायश्चित कर रहे हैं?’ गांधीजी का उत्तर था-मेरी गलती क्यों, क्या मुझ पर लांछन नही लगाया जा सकता किमैंने हिंदुओं के साथ विश्वासघात (उन्हें अधिक अहिंसावादी बनाकर) किया है? मैंने उनसे कहा था कि वे अपने पवित्र स्थानों की रक्षा के लिए अपना तन और धन मुसलमानों को सौंप दे। आज भी उनसे कह रहा हूं कि वे अपने झगड़े अहिंसा के मार्ग पर चलकर निपटायें, भले ही मर जाएं, मारें नही। और फल क्या निकला? (मेरी अहिंसा मेरे सामने ही मर गयी, दूसरों पर हिंदुओं को मेरे द्वारा दी गयी सीख का कोई प्रभाव नही पड़ा) कितनी अधिक बहनें मेरे पास शिकायतें लेकर आयी हैं। जैसा कि मैं कल हकीम जी से कह रहा था कि हिंदू महिलाएं मुसलमान गुण्डों से त्रस्त हैं, उनके प्राण सूख रहे हैं। अनेक स्थानों पर उन्हें अकेले जाने से डर लगता है। मुझे…..का पत्र मिला है-जिस प्रकार उनके नन्हें मुन्नों पर अत्याचार किया गया उसे मैं कैसे सहन करूं? मैं किस मुंह से कहूं कि हिंदू हर स्थिति में धैर्य धारण करें। मैंने उनसे कहा था कि मुसलमानों की दोस्ती के अच्छे परिणाम निकलेंगे। मैंने उनसे कहा था कि वे निष्काम भाव से मैत्री करें। आज (सब कुछ विपरीत देखकर और स्वयं को छला हुआ सा समझकर) मैं असमर्थ हूं। उस आश्वासन को पूरा नही कर सकता। मेरी कोई नही सुनता। (संदर्भ यंग इंडिया 28 मई 1924, सत्यकेतु विद्यालंकर : आर्य समाज का इतिहास खण्ड-4 पृष्ठ 705)
इस कथन को ‘गांधी बाबा की वसीयत’ के अंश के रूप में निरूपित किया जाना चाहिए। एक प्रकार से उन्होंने इस कथन में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि नेताओं को भावातिरेक में अपने सिद्घांतों को जनता पर थोपने की हिमाकत नही करनी चाहिए। यह दुखद है कि गांधीजी ने अपनी वसीयत यद्यपि अपनी मृत्यु से 24 वर्ष पूर्व लिख दी थी पर वह इसे लिखकर भी इसे लागू नही करा सके। क्योंकि इस वसीयत के अंत में उन्होंने लिख दिया था कि-‘लेकिन मैं आज भी हिंदुओं से यही कहूंगा कि भले ही मर जाओ, मारो मत।’
….और आशा तार-तार हो गयी।