मधुरेन्द्र सिन्हा
कोरोना महामारी का जब प्रकोप हुआ तो देश में न तो अस्पताल खाली थे और जहां अस्पताल थे वहां डॉक्टर नहीं थे। जहां डॉक्टर थे वहां बिस्तर या ऑक्सीजन नहीं था। हालात बदतर थे। लेकिन देश के एक हिस्से में लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वहां न तो अस्पताल थे और न ही डॉक्टर। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के ज्यादातर आदिवासी गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं का अस्तित्व तक नहीं है। आजादी के 74 साल बाद अब वहां धीरे-धीरे बदलाव आने लगा है।
सुकमा और पड़ोसी जिले दंतेवाड़ा के हरे भरे जंगल घने हैं और वहां नक्सलियों का बोलबाला है। उनसे छुटकारा पाने के लिए सीआरपीएफ के सैकड़ों जवानों ने यहां बलिदान दिया है। नक्सलियों ने वहां आतंक का राज पैदा करने के लिए बहुत खून भी बहाया है। झीरम घाटी में पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्या चरण शुक्ल तथा 27 अन्य कांग्रेसियों और सुरक्षा कर्मियों की नक्सलियों ने घात लगाकर छापामार तरीके से हमला करके हत्या कर दी थी।
वहां का बहुत बड़ा इलाका अभी भी नक्सलियों के कब्जे में है। वे किसी भी तरह का विकास कार्य नहीं होने देते हैं। अस्पताल, स्कूल, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं पर भी वहां उन्होंने रोक लगा रखी है। स्कूलों के भवन तक उन्होंने उड़ा दिये हैं। सीआरपीएफ की मदद से कुछ इलाकों में स्थिति सामान्य कर दी गई है लेकिन खतरा अब भी बना हुआ है। दूरदराज के गांव आज भी स्वास्थ्य सेवाओं की बाट जोह रहे हैं।
लेकिन पिछले साल से एक पहल शुरू हुई। हिम्मत वाले कुछ स्वास्थ्य कर्मी और एक एनजीओ सामने आए। उन्होंने बीड़ा उठाया और धीरे-धीरे सेवाएं शुरू कीं। यहां हालत यह है कि कई गांव तो सरकारी कागजों में भी नहीं हैं। जो गांव हैं वहां पंचायत भी नहीं है। उन आदिवासी गांवों के बारे में सरकारी महकमा भी नहीं जानता। गांवों का पता लगाने के लिए स्वास्थ्य कर्मी और एनजीओ साम्य भूमि फाउंडेशन के आदर्श कुमार ग्रामीण हाटों का दौरा करते हैं जहां बड़ी तादाद में आदिवासी अपना सामान खरीदने और बेचने के लिए आते हैं। उनसे ही पता चलता है कि कौन-सा गांव कहां है।
लेकिन जो बड़ा प्रयास हुआ, वह था एक अस्थायी-सा क्लिनिक बनाने का जहां बीमारों और गर्भवती माताओं को लाया जा सके और प्रसव भी कराया जा सके। यह काम सरकार नहीं कर सकती थी तो इसे एनजीओ और यूनिसेफ के सहयोग से स्थानीय लोगों ने कर दिखाया। कोंटा ब्लॉक का यह गांव सुकमा जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर है लेकिन यहां पहुंचना किसी दु:स्वप्न की तरह है। पक्के-कच्चे रास्तों, पगडंडियों, नदियों, नालों और सीआरपीएफ के 14 कैंपों से होकर गुजरना पड़ता है। रास्ते भर नक्सलियों द्वारा किए गए विस्फोटों के निशान मिलेंगे। स्वास्थ्य कर्मी बाइकों पर या एंबुलेंस की मदद से ही वहां तक पहुंच सकते हैं। एंबुलेंस भी मिनपा और उसके आसपास के गांवों से कई किलोमीटर दूर तक ही जा सकती है क्योंकि कोई सड़क नहीं है।
सड़क बनाने की बात काफी समय से चल रही है लेकिन राज्य सरकार कुछ कर नहीं पा रही है। ऐसा लगता है कि सरकार भूल गई है कि ये गांव उसके हैं। सुकमा में स्थानीय प्रशासन और पुलिस वाले असहाय दिखते हैं। दंतेवाड़ा में स्थिति जरूर बेहतर है और वहां लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र में सरकार काम कर पा रही है। ऐसा नहीं है कि वहां नक्सलियों से छुटकारा मिल गया है लेकिन प्रशासन चुस्त-दुरुस्त दिखता है। जो इलाके नक्सलियों से छुड़ा लिये गये हैं, उनमें स्वास्थ्य संबधी कई तरह के कार्य हो रहे हैं, खासकर पौष्टिक आहार शिक्षा कार्यक्रम में। ग्रामीणों को उन खाद्यान्नों के बारे में बताया जाता है जो वहीं उगते हैं और जिनमें भरपूर प्रोटीन है क्योंकि यहां की सबसे बड़ी समस्या कुपोषण है। उससे निपटने का सरल तरीका यही है कि वहां उगने वाले अनाजों खासकर दालों का इस्तेमाल बढ़ाने के बारे में लोगों को प्रोत्साहित किया जाए।
अब आजादी के सात दशकों बाद सुकमा जिले के मिनपा में एक झोपड़ी जैसे ढांचे में उपस्वास्थ्य केन्द्र खुलना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। यह इलाका बरसात में किसी टापू की तरह हो जाता है जहां आना-जाना असंभव है। वहां डॉक्टर कपिल भी आते हैं और ऑक्जिलरी नर्सिंग मेट, जिसे एएनएम कहते हैं और उसका सहायक तथा मितानिन काम कर रही हैं। सरकार की ओर से कई जरूरी दवाएं भी मुहैया कराई गई हैं। लगभग 2700 बाशिंदों के इस गांव के लोगों ने पहली बार दवाखाने का मुंह देखा। इसके पहले उन्हें 25 किलोमीटर दूर चिंता गुफा जाना पड़ता था जहां का रास्ता दुर्गम और खतरनाक है। अब मिनपा गांव में गर्भवती माताओं के लिए देखभाल और बीमारियों की जांच के लिए काफी व्यवस्था हो गई है। इतना ही नहीं, स्थानीय लोगों में स्वास्थ्य संबंधी मामलों के लिए जागरूकता फैलाई जा रही है। साथ ही उनमें से कुछ को चुनकर प्रशिक्षित भी किया जा रहा है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति बारे में जानें और झाड़-फूंक से बचें।
मिनपा के आदिवासियों ने यह संदेश दिया है कि मिल-जुले प्रयास से स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं। लेकिन इसके लिए समर्पित एनजीओ, सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों की दरकार है। यूनिसेफ ने इन्हें एक कड़ी में पिरोया है और एक उदाहरण पेश किया है।
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