काव्य में भी छुपा है अद्भुत विज्ञान
सुद्युम्न आचार्य
भारत की एक परंपरा रही है कि हमने ज्ञान-विज्ञान की बातों को काव्य रूप में कहा है। उदाहरण के लिए महाभारत समस्त ज्ञान-विज्ञान का विश्वकोश है। महाभारत काव्य में ही है। वेदों तथा उपनिषदों में भी काव्य में ही ज्ञान-विज्ञान का वर्णन है। यह हमारा काम है कि काव्य में से ज्ञान-विज्ञान को पृथक कर लें। उदाहरण के लिए एक श्लोक है पूर्णमद: पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमुदुच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते। यह बहुत ही प्रसिद्ध मंत्र है। इसका अर्थ सभी जानते हैं। यह पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण को निकाल लिया जाता है। उसके बाद पूर्ण बच जाता है। यह इसका सामान्य अर्थ है। सामान्य भाषा में यह समझा नहीं जा सकता है कि पूर्ण क्या होता है, पूर्ण में से पूर्ण को कैसे निकाला जाता है, और फिर पूर्ण बचता कैसे है। यह थोड़ा विचित्र प्रतीत होता है। पूर्ण ऐसा है, जिसमें से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण बच जाता है। प्रश्न उठता है कि पूर्ण क्या है और पूर्ण में से पूर्ण को कैसे निकाला जाता है। यह सामान्य बुद्धि से समझ नहीं आता।
इस काव्य में से यदि हम काव्य के तत्व को छोड़ दें और विज्ञान के तत्व को ग्रहण करें तो फिर यह समझ आ सकता है। इस श्लोक में पूर्ण का अर्थ है अनंत। अनंत के बारे में गणित में बताया गया है। आधुनिक गणित भी इसे मानता है। गणित में अनंत का विषय ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने प्रमुख रूप से दिया है। उन्होंने शून्य के साथ संक्रिया करने पर क्या होगा, यह बताया है। उन्होंने लिखा है कि शून्य के साथ यदि किसी को जोड़ा जाए, तो वह उतना ही बन जाता है, घटाया जाए तो ऋण में आ जाता है। शून्य का वर्ग करें तो शून्य ही रहता है, किसी संख्या से गुणा किया जाए तो शून्य ही रहता है, किसी संख्या से शून्य में भाग दिया तो शून्य हो जाता है।
इसके बाद भास्कराचार्य ने कहा कि यदि किसी संख्या को शून्य से भाग दिया जाए तो वह अनंत हो जाता है। उन्होंने लिखा खहारो भवेत्, खेलभक्तश्च राशि। इस बात को आज के गणितज्ञ भी स्वीकारते हैं। अनंत में यदि आप कुछ जोड़ें तो भी अनंत आता है, कुछ घटाएं तो भी अनंत आता है। यही पूर्णमिदं श्लोक का अर्थ है। आज कहा जाता है कि इस सिद्धांत को न्यूटन ने बताया है। परंतु उससे काफी पहले भास्कराचार्य लीलावती ग्रंथ में यह लिख चुके हैं। स्पष्ट है कि न्यूटन से पहले से यह सिद्धांत भारतीय गणितज्ञों को पता था। यह हमें पढ़ाया जाना चाहिए। यह हमारी पाठ्यपुस्तकों में नहीं पढ़ाया जाता।
अरस्तु ने कहा था कि कोई वस्तु अनंत तक विभाज्य हो सकती है, यदि हमारे पास समय और शक्ति हो तो। फिर उन्होंने इसे गणित का स्वरूप दिया। उन्होंने कहा कि 1/2+1/4+1/8+1/16+1/32…. इस प्रकार जोड़ते चले जाएं तो परार्ध या बड़ी से बड़ी संख्या तक भी जोड़ें तो भी इनका योग एक नहीं होगा। इसका अर्थ होता है कि यह हमेशा विभाज्य होती रहेगी। अरस्तु ने कहा कि वह अनंत रहता है, इसलिए वह हमेशा विभाज्य रहता है, इसलिए किसी को अविभाज्य कहना ठीक नहीं है। परंतु अरस्तु की बात को कणाद ने नहीं माना। उन्होंने साबित किया कि परमाणु अविभाज्य है। ऐसे समय में जब अरस्तु और उसके दर्शन का पूरे पाश्चात्य दुनिया में बोलबाला था, कणाद ने उन्हें गलत साबित किया, इस बात का उल्लेख हमारी पाठ्यपुस्तकों में होना चाहिए। उन्होंने कहा कि कई बार गणित में जो परिणाम आता है वह वास्तविक परिणाम से अलग होता है। उदाहरण के लिए हम एक वर्ग लेते हैं जो एक फुट लंबा और एक फुट चौड़ा हो। इसका कर्ण दो का वर्गमूल होगा। दो का वर्गमूल कभी भी सटीक नहीं होता। वह हमेशा अनिश्चित होता है। तो क्या उस वर्ग की कोई निश्चित लम्बाई नहीं होगी? बिल्कुल होगी। इसका तात्पर्य हुआ कि गणित में भले ही कुछ भी परिणाम आता हो, यथार्थ जगत में भिन्न परिणाम हो सकता है।
इसे एक और उदाहरण से समझें। चार और चार आठ होते हैं, इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि चार आम और चार आम मिल कर आठ आम होते हैं। यह भौतिक जगत में सही है, इसलिए यह सही है। परंतु कभी कभी गणित में यह ठीक नहीं भी हो सकती है। चार में से एक निकालने पर तीन बचना चाहिए। परंतु मैं कहता हूँ कि चार में से एक निकलने से पाँच बचेगा। आप एक चौकोर कागज ले लें। इसके चार कोने हैं। एक कोने को फाड़ कर निकाल दें। तो कितने कोने बचे? पाँच। तात्पर्य क्या हुआ? चार और चार आठ हम इसलिए कहते हैं क्योंकि यह भौतिक जगत में हम देखते हैं, परंतु यह आवश्यक नहीं है कि ऐसा हमेशा हो। इसलिए कणाद ने कहा कि अनंत विभाजन की स्थिति भौतिक विज्ञान में लागू नहीं होती। उन्होंने कहा कि यदि वस्तु की भांति उसका परमाणु भी अनंत वस्तुओं से बना है तो फिर राई का दाना और राई का पर्वत दोनों एक हो जाएंगे। क्यों, क्योंकि दोनों अनंत से बने हैं। फिर तो दोनों को बराबर होना चाहिए। ऐसा नहीं होता। इसलिए कणाद ने अनंत विभाजन के सिद्धांत को काट दिया।
इस प्रकार हमारे ग्रंथों में काव्य में जो विज्ञान की बातें कही गई हैं, उन पर शोध किया जाना आवश्यक है। इसके लिए काफी प्रयास करने होंगे। इसका पहला तरीका तो यही है कि हम ग्रंथों को उनके वास्तविक रूप में पढ़ें, अंग्रेजी अनुवादों को नहीं। अनुवाद में चीजें काफी बदल जाती हैं। दूसरी बात यह है कि उससे संबंधित और भी ग्रंथों को भी पढऩा होगा। उदाहरण के लिए पूर्णमिदं वाली जो बात है, उसे भास्कराचार्य के साथ मिला कर बढ़ेंगे तो ठीक से समझ आएगी। तो हम गणित से तथ्य लेकर आए और काव्य में से विज्ञान को निकाल लिया। इसलिए हमारे ग्रंथों को समझने के लिए केवल भाषा का ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है। इसके साथ अन्य शास्त्रों का ज्ञान होने पर ही हम उनके वास्तविक तात्पर्य को समझ और समझा सकेंगे।