श्रीराम के विशेषण और विशेषता
हमें ध्यान रखना चाहिए कि देश भक्ति के गीत गाते – गाते जो वीर क्रांतिकारी फांसी पर झूल गए वे श्री राम के शत्रुहन्ता स्वरूप के उपासक थे । राम प्रसाद बिस्मिल जैसे अनेकों क्रांतिकारियों ने श्रीराम की इस आदर्श परंपरा का निर्वाह किया। राम प्रसाद बिस्मिल जी की देशभक्ति से परिपूर्ण ये पंक्तियां हमें बहुत कुछ बताती हैं :-
“वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून।
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है।।
हाथ जिन में हो जुनूँ कटते नही तलवार से।
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से।।
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है।
है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर।।
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।।”
अब प्रश्न यह है कि यदि आज के परिवेश में श्रीराम स्वयं होते तो क्या करते ? यदि इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए तो रामचंद्र जी के जीवन चरित्र को थोड़ा सा समझने वाला व्यक्ति भी यह कह सकता है कि वह निश्चय ही देश की विघटनकारी, समाजविरोधी और देशविरोधी शक्तियों का दमन पूर्ण निर्भीकता के साथ करते और उनके संहार में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं दिखाते। वह किसी भी प्रकार की दोगली छद्म धर्मनिरपेक्षता या दोगली राजनीतिक व्यवस्था के समर्थक नहीं होते। वह स्पष्ट और राष्ट्रहित में जो भी निर्णय उचित समझते , उन्हीं को लेते और लागू करते। वह किसी भी प्रकार की गंगा जमुनी तहजीब के चक्कर में ना पकड़कर भारत की सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए काम करते।
वे भारत के विद्यालयों में ब्रह्मचर्य की रक्षा की शिक्षा दिलाने में विश्वास करते ना कि आज की उस व्यवस्था के संरक्षक रक्षक होते जो ब्रह्मचर्य नाश को प्रोत्साहित कर रही है और इसके माध्यम से हमारी युवा पीढ़ी को नष्ट करते हुए भारत के भविष्य को भी नष्ट कर रही है। वह स्वयं गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत शिक्षित और दीक्षित हुए थे, इसलिए गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत दी जाने वाली संस्कार आधारित शिक्षा के समर्थक होते।
गुरुकुल की जिस शिक्षा को प्राप्त करके उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया उसी का परिणाम था कि उन्होंने अपने समय की नई पीढ़ी में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया था। जिस राजा दशरथ को रावण का नाम सुनकर भी डर लगता था वही रावण श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा मारा गया। उस समय रावण निसंकोच वनों में भी विचरता था और राजा दशरथ के लिए भय का कारण बना हुआ था। उसका सामना करने की बात सोचना भी उस समय लोगों के लिए संभव नहीं था। उसी रावण के विरुद्ध क्रांति का परिवेश सृजित करना और उसे समाप्त कर राक्षस राज्य का अंत करना उस समय श्रीराम के ही वश की बात थी।
रामचंद्र जी आज यदि होते तो वह गुरुकुल की उसी शिक्षा प्रणाली को लागू करते जिसमें गुरुकुल का आचार्य और प्राचार्य मिलकर उसे एक स्वतंत्र निकाय के रूप में चलाते थे । उस पर किसी भी प्रकार का राजकीय अधिकार नहीं होता था। यद्यपि वह राज्य के संरक्षण में अवश्य अपना कार्य करता था । महाभारत काल में जिस प्रकार गुरु द्रोणाचार्य को बुलाकर राजकीय गुरुकुल के अंतर्गत उन्हें शिक्षित करने का प्रबंध किया गया वह व्यवस्था अपने आपमें दोषपूर्ण थी । क्योंकि उस व्यवस्था में आचार्य प्राचार्य को राजकीय अधिकार में रखा गया था। वह एक स्वतंत्र संस्था का संचालन करने में असमर्थ हो गए थे। उसी का परिणाम यह निकला कि गुरु द्रोणाचार्य को उनके ही शिष्य दुर्योधन और उसके भाइयों के द्वारा कई बार अपमानित होना पड़ा। शिक्षा देने वाले शिक्षकों को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। उनका आत्मसम्मान भी सुरक्षित रहना चाहिए। उसी से वह आत्म सम्मानित जीवन जीने वाले समाज का निर्माण करने में समर्थ हो पाते हैं।
शिक्षा शिक्षक देश का करते हों निर्माण।
उचित उन्हें सम्मान दो बने देश के प्राण।।
आज के शिक्षक को सरकार और व्यवस्था का नौकर बनाकर उससे शिक्षा दिलवाई जाती है। जिस पार्टी की भी सरकार केंद्र या देश के किसी प्रांत में आती है, वही अपनी विचारधारा को शिक्षकों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचाने का कार्य करती है।
जिससे शिक्षक की शिक्षा स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करने वाली नहीं रही है। उसमें चाटुकारिता और सेवक स्वामी का संबंध स्पष्ट दिखाई देने लगा है । शिक्षा तंत्र में काम करने वाले अध्यापकों के मन मस्तिष्क पर किसी विशेष विचारधारा को हर सरकार अपने कार्यकाल में अदलती बदलती रहती है। जिससे शिक्षकगण किसी एक सर्वस्वीकृत शिक्षा तंत्र के अधीन होकर कार्य नहीं कर पाते हैं। जिससे वे शासन में बैठे लोगों की दया के पात्र बन गए हैं। इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था को श्री राम निश्चय ही परिवर्तित कर देते। क्योंकि इस प्रकार की शिक्षा से संस्कारों का निर्माण नहीं होता बल्कि दबी हुई, कुचली हुई और दूषित मानसिकता का विकास होता है। जिसका विपरीत प्रभाव समाज और राष्ट्र पर पड़ता है।
श्री राम जी भारत की वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था के भी समर्थक होते और उसे उसी प्रकार लागू कराते जिस प्रकार वह वैदिक भारतीय समाज में लागू रही थी।
वह एक पत्नी व्रत को बहुत ही संजीदगी के साथ लागू करवाते और लोगों को ऐसे संस्कार दिलाने वाली शिक्षा की व्यवस्था करते जिसमें एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत निभाना समाज के लिए आवश्यक माना जाता है। पति-पत्नी दोनों चकवा चकवी की भांति परस्पर प्रीति करने वाले हों – ऋग्वेद की इस आज्ञा को भी श्री राम भारत के दांपत्य जीवन के लिए अनिवार्य घोषित करते । जिससे समाज में शांति स्थापित होती और किसी भी प्रकार की अराजकता उग्रवाद या पारिवारिक कलह को पनपने का अवसर प्राप्त नहीं होता।
आज के समाज में जिस प्रकार अव्यवस्था और अराजकता का परिवेश बनता जा रहा है और प्रत्येक घर उसकी चपेट में आता जा रहा है, उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि लोग अपने जीवनसाथी के प्रति ईमानदार नहीं रहे हैं । यह और भी दु:ख की बात है कि देश के न्यायालय भी देश की सामाजिक व्यवस्था के बिगड़े हुए इस स्वरूप को ठीक करने में न्यायपूर्ण भूमिका नहीं निभा रहे हैं । अभी हाल ही में एक निर्णय आया है जिसमें न्यायालय ने यह कह दिया है कि विवाहेतर संबंध स्थापित करना कोई पाप नहीं है। श्री राम के रहते इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था जारी करने का न्यायालयों का साहस नहीं होता । क्योंकि तब न्यायालय में बैठने वाले न्यायाधीश भी संस्कारों को समझने वाले और उन्हीं के अनुसार समाज का निर्माण करने में रुचि रखने वाले होते।
न्याय वह अन्याय है जो करता स्वेच्छाचार।
ऐसा न्याय नहीं दे सके लोगों के अधिकार।।
राम अपने राज्य में ईश्वर भक्ति को भी प्रधानता प्रदान करते । यह अनिवार्य किया जाता कि प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य होता कि वह वेद-भक्ति के माध्यम से देशभक्ति सीखे, प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर -भक्त होकर विनम्र, सहज, सरल और सौम्य रहकर समाज का सभ्य, सुशिक्षित और जिम्मेदार नागरिक बने। श्री राम स्वयं ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठाभाव रखते थे। उसी के कारण उन्होंने अनेकों विपत्तियों को झेला और उन पर विजय प्राप्त की। इसी प्रकार के आत्मविश्वासयुक्त जीवन का निर्माण करने में उनकी रूचि होती और प्रत्येक नागरिक को आतंक, आतंकवाद और आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ने का वह हौसला प्रदान करते। वह स्वयं दैनिक संध्योपासना, अग्निहोत्र और स्वाध्याय के द्वारा आत्म तेज और आत्मशक्ति को बढ़ाने वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे ।
श्रीराम स्वधर्म और स्व कर्तव्य को पालने वाले महान शासक थे । इसी को वह राज धर्म मानते थे। इसी प्रकार की धर्म भक्ति और कर्तव्य भक्ति से उन्हें शक्ति प्राप्त होती थी । उन्होंने भक्ति को शक्ति का प्रतीक बनाया तथा भक्ति और शक्ति का समन्वय करके मुक्ति का मार्ग खोजा । इसी भक्ति, शक्ति और मुक्ति के मार्ग को वह अपने देशवासियों के लिए आज भी निश्चित करते। जिससे समतामूलक समाज की तो बात छोड़िए उससे भी ऊंचे ‘दिव्य समाज’ की स्थापना करने में भारत सफल और सक्षम होता। इस प्रकार तब समतामूलक समाज की संरचना का आदर्श हमें बहुत छोटा दिखाई देता।
राम राज्य में कोई भी व्यक्ति नित्य कर्मों के प्रति असावधानी या प्रमाद नहीं बरतता और ईश्वर भक्ति के माध्यम से अपनी समाज भक्ति और राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन कर दिव्य समाज की संरचना में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करता। जिस प्रकार राम जी ने स्वयं अपने क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए महान कार्यों का संपादन किया उसी प्रकार वह आज के क्षत्रिय समाज को भी राक्षस संहार अर्थात आतंकवाद और आतंकवादियों के विनाश के लिए प्रशिक्षित करते। वह आज के उस समाज क्षत्रिय समाज को इस बात के लिए लताड़ते कि वह केवल अपने अतीत की झांकियों और गौरवपूर्ण कालखंड पर इतराता मात्र है, जबकि देश के सामने खड़ी आतंकवाद की समस्या से लड़ने के लिए अपने आप को समर्पित नहीं करता है। हरिओम पवार जी ने श्री राम के आदर्श व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करते हुए वर्तमान संदर्भ में भी बहुत कमाल की पंक्तियां लिखी हैं :-
राम दवा हैं रोग नहीं हैं सुन लेना
राम त्याग हैं भोग नहीं हैं सुन लेना
राम दया हैं क्रोध नहीं हैं जग वालों
राम सत्य हैं शोध नहीं हैं जग वालों
राम हुआ है नाम लोकहितकारी का
रावण से लड़ने वाली खुद्दारी का
दर्पण के आगे आओ
अपने मन को समझाओ
खुद को खुदा नहीं आँको
अपने दामन में झाँको
याद करो इतिहासों को
सैंतालिस की लाशों को
जब भारत को बाँट गई थी वो लाचारी मजहब की।
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की।।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत