प्रस्तुत है एक ताज़ा ग़ज़ल-
कह रहे वो देख लो सब आज की उपलब्धियाँ।
भूख के इंडेक्स की भी दिख रहीं गहराइयाँ।
झूठ के सूरज के आगे गुम हुए किरदार सब,
अब नज़र बस आज रही हैं घूरतीं परछाइयाँ।
आमजन को पंथ की कुछ दी गई इतनी अफीम,
टूटती उनकी नहीं हैं आजकल मदहोशियाँ।
गुल खिलाएंगी किसी दिन देखिएगा आप सब,
हो रहीं जो नुक्कड़ों पर आजकल सरगोशियाँ।
राजनेता देश के परिपक्व हो पाएंगे कब ?
बचपने की छोड़ जो पाए नहीं अठखेलियाँ।
हम प्रकृति के साथ करते ही रहे खिलवाड़ बस,
हो रहीं इसकी वजह से हर तरफ बर्बादियाँ।
जो भी मिलता और कुछ ही बन के मिलता दोस्तो,
मुश्किलों में फँस गई हैं आजकल आसानियाँ।
मैं अकेला एक पल को भी न रह पाया कभी,
साथ मेरे जी रहीं हैं सैकड़ों तनहाइयाँ।
मुफ़लिसों की मुश्किलों को देखना हो देख लो,
बढ़ रहीं श्मशान की जो आजकल आबादियाँ।
- वीरेन्द्र कुमार शेखर