क्या मियां मीर ने रखी थी तीर्थस्थल हरिमन्दिर की नींव

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राजेंद्र सिंह

यह उल्लेखनीय है कि सिक्ख इतिहास के मूल स्रोतों में यही बताया गया है कि श्री हरिमन्दिर की नींव स्वयं श्रीगुरु अर्जुनदेव ने अपने कर-कमलों से रक्खी थी। बहुत बाद में यह बात उड़ा दी गई कि यह नींव श्री पंचम गुरु जी ने नहीं बल्कि मुसलमान पीर-फ़क़ीर या दरवेश शेख मुहम्मद मियां मीर ने रक्खी थी। वस्तुत: इस उत्तरवर्ती उड़ाई बात में कोई सार नहीं है। यहां यह विचारणीय है कि मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने की इस निराधार और झूठी बात को किसने पहले-पहल तूल देकर उड़ाया।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्नीसवीं शती के उत्तराद्र्ध में पंजाब के तत्कालीन गवर्नर हेनरी डेविस के अधीन कार्यरत लेखक कन्हैयालाल हिन्दी ने अपनी फ़ारसी रचना तारीख़े पंजाब श्री गुरु अर्जुनदेव और उनसे सम्बन्धित सारे प्रसंग का उल्लेख करते हुए मियां मीर का नाम तक नहीं लिया। इससे यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि मियां मीर द्वारा हरिमन्दिर की नींव रखने या रखवाए जाने की लिखित-कल्पना के बाद किसी समय प्रकाश में आई होगी।
ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत श्री गुरु पन्थ प्रकाश के वर्ष 1879 के पहले पत्थरछापा संस्करण में भी मियां मीर वाली कल्पना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। किन्तु इसी ग्रन्थ श्री गुरु पन्थ प्रकाश के दूसरे पत्थरछापा संस्करण जो कि मार्च 1889 में दीवान बूटा सिंह द्वारा मुद्रित है के पूर्वाद्र्ध पृष्ठ 212-213 पर पहली बार हरिमन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का उल्लेख मिलता है। उसके बाद वर्ष 1891 में गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, सियालकोट से प्रकाशित उन्हीं की प्रसिद्ध रचना तवारीख़ गुरू ख़ालसा के भाग-1 के पृष्ठ 197 पर इसी बात को दोहराया गया है। इस पर भी ज्ञानी ज्ञान सिंह मियां मीर वाली बात को तूल देने वाले सबसे पहले व्यक्ति नहीं है। वस्तुत: इस बात को सबसे पहली बार तूल देने वाला एक अंग्रेज़ अधिकारी था।
ई. निकौल ने उड़ाई मियां मीर की बात
हरिमन्दिर की नींव रखने का श्रेय मियां मीर को देने की बात अमृतसर की म्यूनिसिपल कमेटी के सेक्रेटरी ई. निकौल ने उड़ाई थी। सिक्ख रेफऱेंस लाइब्रेरी, अमृतसर के दि पंजाब नोट्स एण्ड क्वैरीज़ जिल्द-1, टाइप्ड कापी, एकाऊंट नं. 1214 के पृष्ठ 141 पर ई. निकौल ने यह नोट दर्ज किया है : हरिमन्दिर की नींव का पत्थर मियां मीर ने स्थापित किया था, जिसमें और गुरु रामदास में बड़ी गहरी मित्रता थी। बस ! इतना ही नोट लिखा मिलता है। ई. निकौल ने इसका स्रोत नहीं बताया है। इस प्रकार बिना आधार बताए इस अंग्रेज अधिकारी ने श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का सारा श्रेय मियां मीर को दे डाला।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि कादिरी सूफी सिलसिले के लाहौरवासी सूफी पीर शेख मुहम्मद यानी मियां मीर और गुरु अर्जुनदेव दोनों समकालीन थे। इतना होने पर भी ई. निकौल के उपरोक्त निराधार और नितान्त काल्पनिक नोट से पहले के जितने भी सिक्ख स्रोत मिलते हैं, उनमें से किसी में भी श्रीगुरु रामदास या श्रीगुरु अर्जुनदेव के साथ हरिमन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का उल्लेख नहीं मिलता।
अंग्रेजी प्रभाव से सिंघ-सभाओं का गठन
ई. निकौल की उपरोक्त निराधार टिप्पणी के काल से थोड़ा पहले ही पंजाब में अलगाववाद के अंग्रेजी बीज बोए गए थे। सन् 1873 में उस बीज का अंकुर श्री गुरु सिंघ सभा, अमृतसर के रूप में फूट निकला था। इस अंकुरित सिंघ सभा से प्रेरणा लेकर दो नवम्बर 1879 ई. को सिंघ सभा, लाहौर अस्तित्व में आई। विशुद्ध पृथकतावादी विचारों की स्थापना करने वाली इस नवजात सभा के प्रधान बूटा सिंह थे।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि दीवान बूटा सिंह के मुद्रणालय में ही ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत श्री गुरु पन्थ प्रकाश का मार्च 1889 ई. में प्रकाशित दूसरा पत्थरछापा संस्करण तैयार हुआ था। दीवान बूटा सिंह और उनके द्वारा स्थापित सिंघ सभा, लाहौर की अंग्रेजभक्ति जगत् प्रसिद्ध है।
सिंघ साहिब ज्ञानी कृपाल सिंह जोकि श्री अकाल तख़्त साहिब के भूतपूर्व जत्थेदार और श्री हरिमन्दिर के भूतपूर्व प्रमुख ग्रन्थी थे, द्वारा सम्पादित श्री गुरु पन्थ प्रकाश में लाहौर और अमृतसर दोनों के पत्थरछापा संस्करणों का उपयोग हुआ है। अजीत नगर, अमृतसर से 1977 ई. में प्रकाशित इस टाइप्ड-संस्करण की कुल 250 पृष्ठों में छपी प्रस्तावना के पृष्ठ 90-94 पर ज्ञानी कृपाल सिंह सप्रमाण बताते हैं कि दीवान बूटा सिंह द्वारा मुद्रित श्री गुरु पन्थ प्रकाश के अनेक स्थलों में प्रक्षेप हुआ है।
ज्ञानी ज्ञान सिंह की लाहौर से प्रकाशित इस प्रक्षिप्त रचना श्री गुरु पन्थ प्रकाश में पहली बार मियां मीर का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
बिस्नदेव जहि कार कराई।
हरि पौड़ी गुरु रची तहांई।
संमत सोलां सै इकताली।
मैं, मंदर यहि रचा बिसाली।
मींआ मीर तै नीउ रखाई।
कारीगरे पलटि कर लाई।
यहि पिख पुन गुर यों बच कहे।
धरी तुरक की नीउ न रहे।
इक बार जर तै उड जैहै।
पुन सिखन कर तै दिढ ह्वै ह्वै।
कह्यो जैस गुर भयो तैस है।

अर्थ: विष्णुदेव ने जहां कारसेवा कराई थी, गुरु अर्जुनदेव ने वहीं हरि की पौडिय़ां बनाई थीं। सम्वत् 1641 विक्रमी में यह विशाल हरिमन्दिर रचा था। गुरु जी ने मियां मीर से इसकी नींव रखवाई थी, किन्तु कारीगर ने नींव की ईंट पलट कर लगा दी। यह देख कर गुरु जी ने पुन: यह वचन कहे : तुरक=मुसलमान द्वारा धरी गई नींव स्थिर न रहेगी, एक बार यह जड़ से उखड़ जाएगी, फिर यह सिक्खों द्वारा दृढ़ होगी। गुरु जी ने जैसा कहा था, आगे चलकर वैसा ही हुआ है।
इस प्रकार एक अंग्रेज-भक्त दीवान के मुद्रणालय में छपी उक्त प्रक्षिप्त रचना में वस्तुत: मियां मीर सम्बन्धी प्रसंग की नींव रक्खी गई। यह सब अंग्रेज विचारकों की कल्पना का पिष्ठ-पेषण मात्र था जो आगे चलकर अपनी मुख्यधारा से धीरे-धीरे कटते जा रहे अलगाववादी सिक्ख इतिहासकारों के बार-बार झूठे प्रचार से एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में प्रसिद्ध होता चला गया। सच तो यही है कि इसमें कोई सार नहीं।
वस्तुत: श्री गुरु पन्थ प्रकाश के उपरोक्त दूसरे पत्थर छापा संस्करण के इस प्रसंग की अविश्वसनीयता इस बात से और अधिक पुष्ट हो जाती है कि भाई काका सिंह की आज्ञा से मतबा चश्मे नूर, श्री अमृतसर द्वारा लाला नृसिंहदास के ऐहतमाम में प्रकाशित इसके तीसरे पत्थर-छापा संस्करण में मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।
ज्ञानी ज्ञान सिंह पर सिंघ सभा का प्रभाव
ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी एक और रचना श्री रिपुदमन प्रकाश में बताते हैं:
उन्नी सौ बत्ती बिखै, बैठ सुधासर माहि।
तवारीख़ गुरू ख़ालसा, रची सहित उतसाहि।
इस काव्यांश से ज्ञात होता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह 1875 ईसवी तक सुधासर यानी अमृतसर आ बसे थे जहां उन्होंने बड़े उत्साह से तवारीख गुरू खालसा लिखना प्रारम्भ कर दिया था। इस समय तक यहां पर सिंघ सभा का गठन हो चुका था। तवारीख़ गुरू ख़ालसा के प्रकाशित हो चुके पहले तीन भागों के मुख पृष्ठों पर इनका प्रकाशन-वर्ष इस प्रकार दिया है:
1. गुरू ख़ालसा 1891 ई.
2. शमशेर ख़ालसा 1982 ई.
3. राज ख़ालसा 1893 ई.
इन पुस्तकों के प्रकाशित होने तक सिंघ सभाओं का प्रभाव बहुत बढ़ चुका था। लाहौर में अंग्रेजभक्त प्रो. गुरमुख सिंह और दीवान बूटा सिंह के प्रयत्नों से सिंघ सभा, लाहौर का गठन दो नवम्बर 1879 ई. को हो गया था। इसे 11 अप्रैल 1880 ई. में सिंघ सभा, अमृतसर में मिला दिया गया और तब दोनों का संयुक्त नाम गुरू सिंघ सभा जनरल रक्ख दिया गया। फिर प्रो. गुरमुख सिंह के प्रयत्नों से स्थान-स्थान पर घूम-फिर कर अनेकानेक सिंघ सभाओं का बनाया जाना प्रारम्भ हुआ। इसी समय एक केन्द्रीय जत्थेबन्दी की आवश्यकता समझी गई। इसकी पूर्ति हेतु 1883 ई. में ख़ालसा दीवान की स्थापना की गई जो बहुत-सी सिंघ सभाओं के गठजोड़ का परिणाम था।
इसके बाद तो सिंघ सभाओं की संख्या के साथ ही ख़ालसा दीवान का घेरा भी बढ़ता चला गया। वैशाखी और दीवाली जैसे त्यौहारों पर इस दीवान द्वारा ऐसे मेले आयोजित किए जाने लगे जिनमें हिन्दुओं जैसी सिक्ख रीतियों, ठाकुरों यानी देवमूर्तियों और विशेषकर श्री हरिमन्दिर के प्रमुख पूजास्थल और परिक्रमा मार्ग में प्रतिष्ठित देवमूर्तियों की पूजा इत्यादि विषयों की निषेधपरक आलोचना की जाती थी।
इस प्रकार की आलोचना द्वारा सिक्ख पन्थ को एक ऐसी दिशा की ओर ले जाने का प्रयास किया जा रहा था जो भारतवर्ष की मुख्य सांस्कृतिक धारा से किसी-न-किसी अंश से दूर ले जाने वाला था। वस्तुत: अंग्रेज़ विचारकों के सम्पर्क और प्रभाव में आए सिक्ख-विद्वानों के मानस से इसी समय से अलगाववाद की वह धारा फूट निकली जिसके फलस्वरूप सन् 1980 के दशक में इसने सारे पंजाब में बड़ा ही उग्र रूप धारण कर लिया था।
सन् 1873-1890 के जिस काल में अंग्रेजों की भारत को जातियों-उपजातियों में बांटकर रखने वाली राष्ट्रघाती मानसिकता से प्रभावित प्रो. गुरमुख सिंह और दीवान बूटा सिंह जैसे सिक्ख-नेता और विचारक सिंघ सभाओं और ख़ालसा दीवान के माध्यम से सिक्ख-समाज को मनचाही दिशा प्रदान कर रहे थे, उसी अन्तराल में ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी रचना तवारीख़ गुरू ख़ालसा के लेखन-कार्य को अमृतसर में रहते हुए ही अन्तिम रूप दे रहे थे। उधर श्री गुरू सिंघ सभा जनरल और ख़ालसा दीवान का प्रमुख कार्यालय भी अमृतसर ही में था। अत: यह बात मानने योग्य नहीं हो सकती कि ज्ञानी ज्ञान सिंह इन दोनों संस्थाओं के कार्यकलापों और अंग्रेजी मानसिकता से परिचित न रहे हों और उन पर इनका कोई प्रभाव न पड़ा हो।
तवारीख़ गुरू ख़ालसा पर अंग्रेजी प्रभाव
तवारीख़ गुरू ख़ालसा के भाग-1 का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह के लेखन-कार्य पर अमृतसर की म्युनिसिपल कमेटी के तत्कालीन सेक्रेटरी ई. निकौल द्वारा मियां मीर के हाथों हरिमन्दिर की नींव रक्खे जाने सम्बन्धी फैलाए गए शिगूफ़े का प्रभाव अवश्य पड़ गया था। इस शिगूफ़े से प्रभावित होकर वह अपनी इस रचना के पृष्ठ 197 पर लिखते हैं : ‘यद्यपि श्री अमृतसर तालाब (सरोवर) सम्वत् 1633 वि. में गुरु रामदास ने भी पटवाया था परन्तु पांचवें गुरु ने अधिक खुदवाकर पक्का करवाया और पुल बंधवाया है। इस तीर्थ के बीच में एक माघ सम्वत् 1645 वि. और साल 119 गुरु (नानकशाही) में गुरुवार को हरिमन्दिर की नींव रक्खी थी। उस वक्त मियां मीर साहिब, मशहूर पीर जो गुरु साहिब के साथ बहुत प्रेम रखता था, अचानक आ गया। गुरु जी ने उसका मान रखने के वास्ते उसके हाथों पहली ईंट रखवाई परन्तु बिना जाने उसने उलटी रक्ख दी, राज मिस्त्री ने उठाकर फिर सीधी करके रक्खी। गुरु जी ने कहा : यह मन्दिर गिर कर फिर बनेगा। यही बात सच हुई। सम्वत् 1818 विक्रमी में अहमदशाह दुरानी बारूद के साथ इस मन्दिर को उखाड़ गया। फिर 11 वैशाख सम्वत् 1821 में गुरुवार को बुड्ढा दल खालसा ने सरदार जस्सा सिंह आहलुवालिया के हाथों नींव रखवाई और यह सेवा दीवान देसराज सिरसा वाले खत्री के सुपुर्द की गई।’
इस स्थल पर ज्ञानी ज्ञान सिंह ने मियां मीर के अचानक पहुंचने और हरिमन्दिर की नींव की पहली ईंट रक्खे जाने के सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है, उसके मूल स्रोत का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। इससे यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह सदृश विद्वान् भी उन दिनों अंग्रेज अधिकारी द्वारा छोड़े गए पूर्व चर्चित शिगूफ़े से प्रभावित हो गए थे। वस्तुत: इस शिगूफ़े और उस पर आधारित लेखन-कार्य में कोई सार नहीं।
प्राचीन परम्परा के पक्षधर विद्वान
श्रीगुरु अर्जुनदेव के मामा और शिष्य भाई गुरदास यानी 1637 ई. से लेकर 1879 ई. तक के जितने भी प्राचीन स्रोत हैं, उनमें से किसी में भी श्री हरि-मन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। जैसा कि प्रमाण सहित सिद्ध किया जा चुका है कि प्राचीन सिक्ख परम्परा के अनुसार श्री हरिमन्दिर जी की नींव स्वयं श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी। इस प्रचीन परम्परा के पक्षधर विद्वानों में से
कुछ एक के विचार इस प्रकार प्रस्तुत हैं :
1. मैक्स आर्थर मैकालिफ से प्रेरित होकर वर्ष 1898 में लिखी गई अलगाववादी रचना ‘हम हिन्दू नहीं’ लिखने वाले भाई काहन सिंह नाभा अपनी एक अन्य रचना ‘महान कोश’ में बताते हैं: श्रीगुरु अर्जुनदेव ने सम्वत् 1643 में सरोवर को पक्का करना आरम्भ किया और नाम अमृतसर रक्खा (सरोवर की लम्बाई 500 फुट, चौड़ाई 490 फुट और गहराई 17 फुट है), जिससे शनै-शनै नगर का नाम भी यही हो गया। एक माघ सम्वत् 1645 को पांचवें सत्गुरु ने ताल के मध्य हरिमन्दिर की नींव रक्खी और उसकी इमारत पूरी करके सम्वत् 1661 में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी स्थापित किए (महान कोश, भाषा विभाग पंजाब, पटियाला, छठा संस्करण, 1999 ई., पृष्ठ 76)।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि अलगाववाद के मूल प्रेरकों में से एक होते हुए भी भाई काहन सिंह नाभा ने महान कोश में, जिसका पहला संस्करण सन् 1930 में प्रकाशित हुआ था, श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का श्रेय श्रीगुरु अर्जुनदेव को ही दिया है। इसी महान कोश के पृष्ठ 972 पर भाई काहन सिंह नाभा ने मियां मीर का परिचय देते हुए कहीं पर भी उसके द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का कोई उल्लेख नहीं किया है।
2. इतिहासकार तेजासिंह-गण्डासिंह अपनी रचना पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला 1985 ई. से प्रकाशित सिक्ख इतिहास के पृष्ठ 32 पर स्पष्ट लिखते हैं : सन् 1589 में गुरु अर्जुन जी ने केन्द्रीय मन्दिर, जिसको अब गोल्डन टेम्पल या हरिमन्दिर साहिब कहा जाता है, की अमृतसर के सरोवर के मध्य में नींव रक्खी। इसके दरवाज़े सब ओर को खुलते थे जिसका भाव यह है कि सिक्ख पूजा स्थान सबके लिए एक समान खुला है।
3. इसी प्रकार इतिहासकार डा. मनजीत कौर भी 1983 ई. में गुरु नानकदेव यूनीवर्सिटी प्रेस, अमृतसर से प्रकाशित अपनी रचना दि गोल्डन टेम्पल : पास्ट एण्ड प्रेजेण्ट में प्राचीन परम्परा का समर्थन करते हुए यही बताती हैं कि श्री हरिमन्दिर की नींव श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी।
मियां मीर और अंग्रेजों के पक्षधर विचारक
ई. निकौल की निराधार कल्पना से प्रभावित सिक्ख विचारकों ने कालान्तर में यह मिथ्या प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया कि श्री हरिमन्दिर की नींव मियां मीर ने रक्खी थी। उधार ली हुई बुद्धि वाले इन सिक्ख विचारकों ने सिक्ख समाज को वैष्णव भक्ति से तोड़ कर इस्लामी-ईसाई विचारधारा से जोडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे अंग्रेजी शिगूफे और दुष्प्रचार के समर्थक प्रो. साहिब सिंह डी लिट अपनी पंजाबी कृति जीवन ब्रितान्त श्री गुरू अरजन देव जी के पृष्ठ 15 पर बिना प्रमाण दिए यह लिखते हैं : सिक्ख इतिहास लिखता है कि हरिमन्दिर साहिब की नींव सत्गुरु जी ने लाहौर के वली मियां मीर के हाथों रखवाई थी। यह बात ध्यान देने योग्य है कि ई. निकौल की पूर्व चर्चित मनगढ़न्त बात की पुष्टि न तो प्राचीन सिक्ख इतिहास से होती है और न ही मुस्लिम पीर-फकीर मियां मीर की समकालीन मुस्लिम जीवन-गाथाओं से।
यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि अमृतसर से सन् 1930 में प्रकाशित श्रीदरबार साहिब में भी श्री हरिमन्दिर की नींव मियां मीर द्वारा रक्खे जाने का ही समर्थन किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अन्तर्गत कार्यरत रागी कीत्र्तन-कथा करते समय उपस्थित हिन्दू-सिक्ख-संगत को यही बताया करते हैं कि हरिमन्दिर की नींव मियां मीर ने रक्खी थी। इस प्रकार सच्ची गुरुवाणी के शबदों को गाते समय वे मियां मीर सम्बन्धी नितान्त झूठी बात का प्रचार करते हुए पाप को भी अर्जित कर रहे हैं। इस सारे कृत्य को अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि किस प्रकार झूठ को बार-बार परोसा जा रहा है।
उपरोक्त सारे प्रसंग का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से यही सिद्ध होता है कि वस्तुत: श्री हरिमन्दिर जी की नींव श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी जैसा कि प्राचीन सिक्ख स्रोतों में लिखा है।

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