पूनम नेगी
एक रोचक पौराणिक कथानक है। कहा जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में जब ब्रह्मा जी ने मनुष्य की रचना की तो धरती पर उसे अनेक अभाव, अशक्ति और कष्ट की अनुभूति हुई। पीडि़त मनुष्य पितामह ब्रह्मा के पास गये और अपनी व्यथा कही। इस पर ब्रह्माजी ने उन्हें यज्ञ करने का सुझाव देते हुए कहा कि यज्ञ की आहुतियों से सन्तुष्ट होकर देवता तुम्हें शक्ति प्रदान करेंगे और तुम्हारी कामनाएं भी पूर्ण करेंगे जिससे तुम्हारा जीवन सब प्रकार सुखी हो सकेगा।
प्राचीन भारत के सुखी व समुन्नत समाज का मूल कारण इस यज्ञ-विद्या का विस्तार ही था। उस काल में घर-घर अग्निहोत्र हुआ करता था। यज्ञ किये बिना लोग आहार तक ग्रहण नहीं करते थे, यज्ञ के बिना कोई मंगल कार्य नहीं पूरा होता था। यहां तक कि दुष्ट प्रवृत्ति के लोग भी यज्ञ के तान्त्रिक विधानों से ही अपने मनोरथ सफल किया करते थे। यज्ञ की इस महत्ता के कारण भारतीय शास्त्रकार ने इसे भारतीय संस्कृति का जनक कहा है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का यज्ञमय जीवन भारतीय संस्कृति का ऐसा कीर्तिस्तम्भ है जिसकी आभा युगों बाद भी मंद नहीं हुई है। श्री राम के समूचे जीवनवृत्त में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें यज्ञ की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। महाकवि तुलसीदास ने भी उनके जीवन के यज्ञीय पक्ष को विस्तार से उल्लखित किया है और आदि कवि वाल्मीकि ने भी। आइए चर्चा करते हैं श्रीराम के यज्ञमय जीवन के कुछ प्रेरणादायी व रोचक कथा प्रसंगों की जो आज के पर्यावरण संकट जूझते विश्व समाज के लिए उतने ही अनुकरणीय हैं जितने त्रेता युग में थे।
भगवान राम का समूचा जीवन यज्ञमय था। महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में पहुंच कर उन्होंने असुरों को मार कर यज्ञ की रक्षा की। ध्यान दें कि भगवान राम ने जितने भी यज्ञों की रक्षा की थी, सभी संसार की भलाई के लिए थे। वन प्रांत के निर्जन एकांत में रहकर यज्ञ करने वाले वैरागी मुनियों को न तो किसी प्रकार के लाभ की इच्छा थी, न ही कोई अन्य महत्वाकांक्षा थी। वे सिर्फ लोककल्याण व पर्यावरण रक्षा की कामना से यज्ञ आहुतियां दिया करते थे। समस्त पृथ्वी मण्डल पर विचरण करता हुआ यज्ञ धूम्र लोगों के स्वास्थ्य और आरोग्य की रक्षा करता था। प्रकृति शुद्ध रहती थी, सात्विक वातावरण में लोगों का मन और चित्त-वृत्तियां भी शुद्ध सात्विक हुआ करती थीं। भगवान राम ने लोक-कल्याण की कामना से ही यज्ञों की रक्षा की और राक्षसी वृत्तियों का संहार किया।
प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों के मुताबिक तांत्रिक यज्ञों में शत्रु-संहार की शक्ति निहित होती है। रावण भी अपनी विजय के लिए एक ऐसा ही वाममार्गी यज्ञ कर रहा था जिसकी जानकारी होने पर भगवान राम ने उस प्रयोग को असफल करने का प्रबन्ध किया। लंका काण्ड में इसका वर्णन है कि इस प्रकार के यज्ञ वाममार्गी कहलाते हैं जो प्राचीन काल में असुरों द्वारा ही सम्पन्न होते थे। ऐसे ही यज्ञों के कारण कभी-कभी दूसरे धर्म के लोग हमारे यज्ञों पर आक्षेप भी करते हैं किन्तु शास्त्रों में ऐसे यज्ञों का स्पष्ट निषेध है और ऐसा करने वालों को दण्ड देने की आज्ञा की गई है। भगवान राम ने भी रावण का ऐसा ही यज्ञ नष्ट किया था।
भगवान राम स्वयं भी यज्ञ किया करते थे। राजसिंहासन पर बैठने के बाद तो उन्होंने अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन किया था। उत्तरकाण्ड में रामराज्य के धर्म, सुख सम्पदा के प्रसार पर प्रकाश डालते हुये तुलसीदास जी ने लिखा है कि भगवान राम ने हजारों अश्वमेध यज्ञ किये और अनेक ब्राह्मणों को दान दिया। भगवान राम का तो जन्म भी यज्ञ के फलस्वरूप ही हुआ था। बालकाण्ड में इसका बड़ा रुचिकर प्रसंग है। एक बार दशरथ जी को बड़ा दु:ख हुआ कि तीन रानियां होते हुये भी उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। दु:खी सम्राट दशरथ जब अपनी यह अंतर्वेदना गुरु वशिष्ठ से कही तो उन्होंने श्रृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया।
वशिष्ठ जी ने वह खीर दशरथ जी को समर्पित की और राजा ने सभी रानियों को बुलाकर वह खीर वितरित की जिसका सेवन कर सभी रानियां गर्भवती हुईं और राजा दशरथ को चार पुत्रों का सुख मिला। वाल्मीकि रामायण में ऋषि लिखते हैं, जिस समय महा कान्ति वाले राजा दशरथ जी पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे, उसी समय विष्णु भगवान ने पुत्र बनकर उनके यहाँ अवतार लेने का निश्चय कर लिया –
यज्ञों से देव-शक्तियों का आवाहन होता है। ये देव-शक्तियां बड़े वैज्ञानिक ढंग से यजनकर्ताओं की कामनायें पूर्ण करती हैं। इस बात का संकेत बालकाण्ड में अन्यत्र भी मिलता है- श्रीराम के जीवकाल में देवताओं को प्रसन्न करने और देश में सुख-शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए ऋषिगण आश्रमों में यज्ञ किया करते थे पर आसुरी शक्तियां नहीं चाहती थीं कि समाज में सत्प्रवृत्तियां बढ़ें और सदाचारी व्यक्तियों का बाहुल्य हो, इसलिए वे उन यज्ञों में विघ्न उत्पन्न किया करते थे। विश्वामित्र अपने आश्रम में ऋषि, मुनियों समेत जप-तप और यज्ञ किया करते थे पर उन्हें मारीच तथा सुबाहु आदि शक्तिशाली राक्षसों का डर बना रहता था। जहाँ भी लोगों को यज्ञ करते देखते वहाँ पहुँचकर उपद्रव खड़ा कर देते जिससे मुनियों को बड़ा दु:ख होता था।
शक्ति का उच्छेदन शक्ति से होता है, बुराई के विरोध में वैसी ही शक्तिशाली भलाई को खड़ा कर दिया जाय तो बुराई परास्त हो जाती है। इस तथ्य को अनुभव कर महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ के पास राम और लक्ष्मण को लेने के लिए आए। परन्तु दशरथ को पुत्र मोह सताने लगा। तब महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें समझाया कि यदि शुभ कर्मों में ही सहायता न दी जाय तो शक्ति और वैभव का कोई महत्व नहीं रहता। भलाई की शक्ति तभी अजेय रह सकती है कि उसे सत्कर्मों में प्रोत्साहन भी मिले।
वाल्मीकि रामायण के आदिकाण्ड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से कहते हैं,हे राजन! आजकल मैं एक महायज्ञ में दीक्षित हुआ हूं। किंतु काम रूपी दो राक्षस उसकी समाप्ति के पहले ही विघ्न कर देते हैं और हमारे यज्ञ की प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है हमारा श्रम निरर्थक हो जाता है। इसी कारण मैं यहां आपके पास आया हूं। हे राजन! मैं उनको शाप दे सकता हूं परन्तु इस यज्ञ में क्रोध करना व शाप देना वर्जित है। इसलिए आप से यह प्रार्थना है कि सत्य पराक्रमी रामचन्द्र को मेरे हाथ में सौंप दीजिये। यह मेरे दिव्य तेज के प्रभाव से मुझ से रक्षित कर मेरे यज्ञ की रक्षा करने में समर्थ होंगे।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात विश्वामित्र जी राम लक्ष्मण के साथ राजा जनक जी की सीता के स्वयंवर समारोह में पधारे। वहां राजा जनक ने अपने पुरोहितों और ऋषियों के साथ विश्वामित्र जी का पूजन-अर्चन किया। राजा जनक ने कहा – हे ब्रह्मर्षे! आप जो ऋषियों समेत मेरे यज्ञ में पधारे हैं, यह मेरा बड़ा भाग्य है। जनक के शिव धनुष यज्ञ में देवता साक्षात रूप से पधारेंगे ऐसा उन्हें विश्वास था। सीता जी का विवाह जैसा महान कार्य सम्पन्न करने के लिए राजा जनक ने स्वयंवर यज्ञ करना ही उचित समझा था। सीता जी का विवाह अन्तत: एक विशाल यज्ञ द्वारा ही सम्पन्न हुआ। इस तरह राम का जन्म और सीता का विवाह ये दोनों ही महान कार्य यज्ञ की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं।
ऋषि वाल्मीकि लिखते हैं, जब राम-रावण युद्ध में रावण को अपनी पराजय होती दीखती है तो वह चिन्तित और दुखी होकर अन्तत: ब्रह्मास्त्र यज्ञ का सहारा लेता है तथा अपने पुत्र मेघनाथ को एक बड़ा तांत्रिक यज्ञ करके ऐसी शक्ति प्राप्त करने के लिए आदेश देता है जिससे वह अजेय हो जाय और राम को सेना समेत परास्त कर सके। तब मेघनाथ गुप्त स्थान पर अपनी कुल देवी निकुम्भिला के स्थान पर पिता रावण के बनाये विधान के अनुसार तांत्रिक होम करता है।
रामायणकालीन यज्ञीय सभ्यता व संस्कृति ही उस युग के उत्कृष्ट जीवन मूल्यों, रहन-सहन, खान-पान, आचरण, भौतिक समृद्धि तथा सामाजिक संस्कारों का मूल आधार थी। इसी कारण युगों बाद भी आज रामायणकालीन जनजीवन मानव समाज की आदर्श आचार संहिता मानी जाती है। महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित्र के माध्यम से मानव जीवन के विकास के लिए अपेक्षित जिन गुणों की चर्चा की है, वे विश्व सभ्यता के विकास के लिए चिर प्रासंगिक हैं। रामायण में वर्णित रामराज्य की सभी प्रजा वेदज्ञ थी। ज्ञान सम्पन्न शूरवीर संसार के कल्याण मे संलग्न तथा समस्त मानवीय गुणो जैसे दया, सत्यपरता, पवित्रता, उदारता आदि से युक्त थे।
तब समाज में चारो वर्ण (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शुद्र) एक दूसरे का सहयोग करते हुए परस्पर सद्भाव से रहते थे। लोगों के मनों में जाति भेद व वर्ण भेद की दूषित भावना नहीं थी। सभी को समान अधिकार तथा न्याय प्राप्त होता था। रामायण एक ऐसे सभ्य समाज के निर्माण को संदेश देती है जिसमें धर्मनिष्ठ व न्यायप्रिय राजाओ के सुशासन में संपूर्ण समाज धन धान्य से युक्त हो। सभी नागरिक गौ आदि पशु से समृद्ध, अश्वादि आशुगामी वाहनों से युक्त हों,कोइ भी निर्धन नहीं हो। रामायणकालीन सभ्यता का वर्णन करते हुए वाल्मीकि ऋषि कहते हैं कि अयोध्या नगरी मे कोई भी नर-नारी नास्तिक, कामी, निष्ठुर व मूर्ख (अविद्वान) नहीं था। सभी नर नारी धार्मिक, जितेंद्रिय, सच्चरित्र एवं शालीन थे। सभी लोग नित्य अग्निहोत्र करते थे। कोई क्षुद-वृत्ति वाला या चोर नहीं था। सभी अंहिसा यम-नियम का पालन करते और दानी थे। कोई भी व्यक्ति पागल तनावग्रस्त या व्यथित चित्त वाला नहीं था । सभी पुत्र पौत्र सहित आनंद पूर्वक दीर्घायु जीवन व्यतीत करते थे। रामायण में गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म तथा नामकरण आदि यज्ञीय संस्कारों का उल्लेख मिलता है।
रामायण कालीन समाज पंच यज्ञ की परम्परा का अनुसरण करता था। ये पांच यज्ञ थे – ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ) पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ तथा बलि वैश्व। यूं यज्ञ शब्द अपने आप में बहुत व्यापक अर्थ रखता है। देव पूजा, बड़ों का सम्मान, संगतिकरण यानी संगठित होकर चलना तथा दान व परोपकार आदि के दिव्य भाव यज्ञ के ही अंतर्गत आते हैं। भारतीय दर्शन में समस्त धरा को एक सूत्र में बांध कर रखने वाला सबसे उपयुक्त साधन यज्ञ ही माना गया है। रामायण में अतिथि यज्ञ के अनेक प्रसंग मिलते हैं। अतिथि यज्ञ सम्पूर्ण मानव जाति मे मानव मात्र में आत्म दर्शन कर अभ्यास कराकर उस सर्व व्यापक सत्ता के साथ हमारा तादात्म्य स्थापित करता है । जब राम लक्ष्मण और सीता जी वन मे पहुंचे तो ऋषि मुनियों ने उनका विधिवत सत्कार दिया।
इसी तरह रामायण कालीन पितृ यज्ञ की परम्परा माता-पिता को देवतुल्य सम्मान देने की शिक्षा देता है। राम अपनी विमाता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ की आज्ञा का पालन कर राज्य छोड़कर वनवास हेतु चले गये। वर्तमान समाज की धन लोलुप सभ्यता जब जरा सी धनसंपति के लिए बच्चे अपने माता पिता की हत्या तक करने में संकोच नहीं करते,उनके लिए श्रीराम का जीवन एक मिसाल है।
रामायण काल में प्रचलित बलि वैश्व यज्ञ प्राणी मात्र के प्रति दया एवं उसके संरक्षण की शिक्षा देता है । आज की मानव सभ्यता अपनी इच्छा पूर्ति के लिए बहुत से पशु पक्षियों एवं कीटपतंगों को मारकर अपने ही विनाश को आमंत्रित कर रही है। रामयणोक्त बलि वैश्व देव आज की सभ्यता को प्राणी मात्र की रक्षा का संदेश देता है।
रामायण की उपरोक्त यज्ञीय सभ्यता का अनुसरण कर हम सब अपनी वर्तमान की विकृत सामाजिक व्यवस्था को दूर कर एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं। आज आधुनिक सभ्यता के वर्तमान दौर में हम लोग जिस तरह अंध विकास में दौड़ लगा रहे हैं, विश्व को विकास नहीं वरन विनाश की तरफ बढ़ा रहा है। अंधाधुंध औद्योगिक विकास से गहराता प्रदूषण प्रकृति को नष्ट करने तुला है। आज गोवंश खतरे में है। जबकि रामायण काल में गाय को सर्वविध धन समृद्धि की खान बताया गया है। आज भी हम शुद्ध देशी गोवंश की रक्षा कर मानव सभ्यता को स्वस्थ एवं दीर्घायु कर सकते हैं। अश्व युक्त वाहनों और सौर ऊर्जा व वैकल्पिक ईंधन तलाश कर विश्व पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कर सकते हैं।
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