* वैटनरी वैज्ञानिकों को सिखाया-पढाया गया है कि पोषक आहार की कमी से गऊएं बांझ बन रही हैं। वैग्यानिकों का यह कहना आंशिक रूप से सही हो सकता है पर लगता है कि यह अधूरा सच है। इसे पूरी तरह सही न मानने के अनेक सशक्त कारण हैं।
* बहुत से लोग अब मानने लगे हैं कि शायद करोडों गऊओं के बांझ बनने का प्रमुख कारण कृत्रिम गर्भाधान है ?
* संन्देह यह भी है कि कहीं न्यूट्रीशन को बांझपन का प्रमुख कारण बताकर बांझपन के वास्तविक कारणों को छुपाया तो नहीं जा रहा ?
* यदि मान लें कि पेषाहार (न्यूट्रीशन) की कमी से गोवंश बांझ बन रहा है तो फिर 1. कृत्रिम गर्भाधान जहाँ हो रहा है वहाँ अधिकांश गऊएं बांझ क्यों बनती जा रही हैं ? वे 4-5 बार नए दूध कि मुश्किल से होती हैं। जहाँ-जहाँ प्राकृतिक गर्भाधान प्रचलित है, आधुनिक चिकित्सा नहीं है, वहाँ गऊएं 20-20 बार नए दूध होती हैं, जबकि उन्हे 8-9 मास रूखा-सूखा घास खाने को मिलता है। मैं स्वयं ऐसी ही जगह का रहनेवाला हूं।
ऐसा होने का क्या कारण है ?
* सडक़ों पर भटकती बाँझ गऊओं को जब गऊशाला में रखकर सूखा घास खिलाते हैं (वह भी पूरी मात्रा में नहीं मिलता) , बाजार की कथित न्यूट्रीशन वाला आहार बन्द रखते हैं और प्राकृतिक गर्भाधान का अवसर उपलब्ध हो तो 70 प्रतिशत से अधिक गऊएं दुधारू हो जाती हैं। अनेक गऊशालाओं में यह अनुभव देखने में आया है । पोषक आहार का सिद्धान्त कहाँ लागू हुआ ? संन्देह हो तो सर्वेक्षण व शोध करवाकर देखें।
हमें इतना तो बतलाएं कि पोषक आहार की कमी से भारतीय गोवंश के बाँझ बनने पर कब और कौनसा शोध हुआ है ? संम्भावना तो यह है कि इस पर विधिवत शोध हुआ ही नहीं। बस सुन-सुनाकर हम दोहराए जा रहे हैं।
* एक और विचित्रता देखिये। जब प्रकृति की गोद में रहते थे, उसकी तुलना में अब बन्दरों को पहले से बहुत कम व घटिया आहार मिल रहा है। ऐसे में उनका प्रजनन बहुत घटना चाहिये था। पर वह तो कहीं अधिक बढ़ रहा है, क्यों ? है कोई तर्कसंगत जवाब ? अफ्रीका के कई देश भुखमरी का शिकार हैं। वहां कहीं एक भी देश की जन्म दर उल्लेखनीय स्तर पर घटने की कोई रपट, कोई सर्वेक्षण आजतक क्यों नहीं सामने आया ? वास्तव में निर्धन देशों की जन्म दर बढी़ है जिसे लेकर विकसित देश रोते रहते हैं। हमारे देश के निर्धन क्षेत्रों में जन्म दर कम है या अधिक? निर्धनों में अधिक प्रजनन का रोना रोज मीडिया रोता है कि नहीं? जब अन्य मामलों में पोषाहार की कमी से जन्म दर घटने के प्रमाण नहीं मिलते (अपवाद छोडक़र) तो फिर कैसे मान लें कि गऊओं के बांझपन का बड़ा कारण न्यूट्रशन की कमी है? विनम्र सुझाव है कि अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों द्वारा फैलाए झूठ का शिकार हमारे वैज्ञानिक व प्रशासक न बनें। स्वयं शोध व खोज द्वारा सच को जानें। गोमांस पर्याप्त मात्रा में भारत से प्राप्त करने के लिये और भारत के उपयोगी गोवंश को समाप्त करने के लिये चल रहे षडय़ंत्र का शिकार हम बन चुके हैं। अब उससे बाहर निकलने के उपाय कुशलता व समझदारी से करने होंगे। प्तप्तप्त जिन पश्चिमी देशों के निर्देशों, खोजों को सही मानकर हमारे वैज्ञानिक चल रहे हैं, उनसे बडें आदर सहित पूछता हूं कि तीन दशक से भी पहले से पश्चिम के देश जानते हैं कि उनका गोवंश (ऐच.ऐफ., जर्सी, फ्रीजियन, हॉल्स्टीन आदि विषाक्त (बीटा कैसीन ए1 प्रोटीन के कारण) है और भारत का (ए2प्रोटीन युक्त) अत्यंन्त उप़ोगी है।
कभी इस सच को उजागर नहीं किया, छुपाकर रखा। झूठ बोल-2 कर अपना जहरीला गोवंश हमें मंहगे मूल्य पर, वर्षों तक हमें बेचते रहे। हमें धोखा देते रहे। अभी भी धोखे का यह धंधा जारी है। फिर भी हम उनके शोध निष्कर्शों पर विश्वास करके अपनी हानि करते जा रहे हैं। प्तप्तप्त अंन्तिम विचारणीय बिन्दु यह है कि ओवम (अण्डे) का निर्माण प्रजनन- हार्मोन के बने बिना संभव है क्या ? इन हर्मोनों का स्राव मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि नहीं ? सभी हार्मोन मन की स्थिति से गहराई से प्रभावित होते हैं कि नहीं? जब कृत्रिम गर्भाधान बार-बार करेंगे तो गऊ की भवनात्मक संतुष्टी न होने के कारण प्रजनन हार्मोनों का बनना प्रभावित होगा या नहीं ?
महाराष्ट्र की एक प्रशासनिक अधिकारी ने एक बड़ी रोचक जानकारी दी है। वे बतलाती हैं कि देसी नस्ल से देसी नस्ल का संकरीकरण करने से पाचवी पीढ़ी तक नस्ल सुधार और दूध का बढऩा पाया गया। पर जब देसी और विदेशी नस्ल का संकरीतरण किया गया तो पहली पीढी़ (जैनरेशन) मे दूध बढा परदूसरी में कम हुआ, तीसरी में बहुत कम होकर लगभग समाप्त हो गया। प्रजनन भी बन्द हो गया।
कृत्रिम गर्भाझान व विदेशी नस्ल के साथ मिलाकर संकरीकरण करन से करोडों की संख्या में भारतीय गोवंश बांझ बनकर नकारा हो गया, या यूं कहे कि नकारा बना दिया गया है। यही हो रहा है। संन्देह हो तो विधिवत शोध करें, सर्वेक्षण करवा कर देखें अन्यथा सप्रमाण बतलाएं कि गऊओं की प्रजनन दर आश्चर्यजनक रूप से घट क्यों रही है। हमारे वैज्ञानिक अपनी समझ का प्रयोग नहीं कर रहे; इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सारा संसार ए2 प्रकार के ( भारतीय ) गोवंश को अपना रहा है , हमारे नासमझ वैटरनरी वैज्ञानिक हजारों, लाखों करोड़ रुपया विदेशी विशाक्त ( ए1) गोवंश के आयात व संवर्धन पर बरबाद कर चुके हैं और आज भी कर रहे हैं।
अत: इनके कहने व समझ पर कैसे भरोसा करें ? ये तो बस सुनी हुई विदेशी कंम्पनियों की बातें हम पर थोंपे जा रहे हैं।
देशभक्त वैटरनरी वैज्ञानिकों का कर्तव्य बनता है कि वे कम्पनियों के झूठ का शिकार न बनें, स्वयं की समझ का प्रयोग करें और देश व प्रदेश के हित में सत्य को जने, समझें व कार्य करें। इन प्रश्नों के जवाब में समाधान मिल जाएगा। हमारे शोध हमारी जरूरतों के अनुसार हमारे द्वारा होंगे; प्रायोजित, निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा थोंपे हुए नहीं, हमारे अपने होंगे तभी हम आगे बढ़ पाएंगे।