संघ की अवधारणा
भारतीय संविधान भारत को संघ मानता और घोषित करता है। भारतीय संविधान की इस मान्यता और घोषणा का आधार ‘क्रिप्स-मिशन’ बना। क्रिप्स मिशन वेफ प्रस्तावों में भारत को संघ बनाने और उसका विभाजन करने के बीच समझौता कराने का प्रयत्न किया गया। ऊपरी तौर पर क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों में मुसलमानों की अलग संविधान सभा बनाने और पृथक राज्य के दावे को तो अस्वीकार कर दिया गया किन्तु पीछे से पृथक संविधान सभा और पृथक राज्य की मुस्लिम लीगी मांगों को उकसाने और समर्थन देने का कार्य किया गया। ब्रिटिश शासकों के लिए भारतीय राष्ट्र के अर्थ बड़े संकुचित थे। वह भारत को ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों का भारत अर्थात जहां-जहां तक अंग्रेजों का राज्य नहीं था, अथवा था भी तो सीधे-सीधे नहीं था, में विभाजित करके देखते थे। उनकी सोच थी कि ये सारा भारत मिलकर एक संघ बनाये और उस संघ के विदेशी कार्य प्रतिरक्षा और संचार पर स्वयं अंग्रेजों का अधिकार हो। इस अधिकारिता की शक्ति को ये लोग भारत-संघ कहते हैं। अंग्रेजों की दृष्टि में भारत ब्रिटिश भारत तक ही सीमित था। उससे बाहर की देशी रियासतों को मिलाकर अथवा अपने साथ लाकर बनने वाले भारत को वो लोग भारत-संघ कहते थे। मानो भारत की विभिन्न राष्ट्रीयताओं को एक साथ एक सूत्रा में पिरोकर वह भारत पर ‘महान-उपकार’ कर रहे थे। जबकि भारत के बारे में यह सच है कि यहां विभिन्न सम्प्रदाय और बहुत से राजे रजवाड़े होकर भी राष्ट्रीयताएं भिन्न-भिन्न नहीं रहीं। भारत आभा ज्ञान की दीप्ति में ही रत रहा। इसकी ज्ञान की दीप्ति को प्राचीन ऋषियों, मुनियों और ज्ञानियों की भांति विभिन्न समयों पर आयी दिव्यात्माओं मनु, शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द सरीखे अध्यात्मवाद के प्रणेताओं की आत्माओं ने इस देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने का जो संदेश दिया उससे यह देश कभी विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ नहीं बन पाया। इन दिव्य पुरुषों का पुरुषार्थ और ज्ञान एवं यहां की संघर्षशील और उद्यमशील प्रजा का इन दिव्य पुरुषों के प्रति अगाध् निष्ठा का भाव वो तत्व थे जिनवेफ कारण यहां कभी किसी राजा का ये साहस नहीं हुआ था कि वो भारत में एक नया राष्ट्र खड़ा कर सकता। 1857 की क्रांति में यद्यपि कई राजा अपने निहित स्वार्थो के लिए भारत से अंग्रेज को भगाने के लिए लड़ते देखे गये किन्तु इस सबके उपरान्त भी उन्होंने कभी अपनी रियासत को स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में एक ऐसा राष्ट्र जिसका भारत से कोई संबंध् न हो स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। इसके मूल में जो कारण थे उनमें भारतीय ध्र्म का मानववाद, भारतीय प्रजा का अध्यात्मवाद में विश्वास, भारत की संस्कृति के मुख्य सोपान वेद, उपनिषद, स्मृति, रामायण, महाभारत और पुराण आदि पर सबका समान अधिकार होने की भावना आदि प्रमुख थे। हाँ, जहाँ भारतीय धर्म नहीं रहा, संस्कृति नहीं रही उन्हें मिटा दिया गया, वहाँ-वहाँ राष्ट्र का विभाजन हो गया अथवा कहिए कि वहीं-वहीं से राष्ट्र का शरीर काटकर अलग राष्ट्र खड़ा करने में विदेशी शक्तियां सफल हुईं। स्वयं अंग्रेजों ने भारत से अफ गानिस्तान, तिब्बत, नेपाल, मालदीव, श्रीलंका, बर्मा और पाकिस्तान को इसी आधार पर खंडित किया। इन सबसे बचा हुआ शेष भारत फि र भी भारत ही था। वह विभिन्न राष्ट्रीयताओं का एक संघ कदापि नहीं था। इसलिए भारत के संदर्भ में अंग्रेजों की निहित स्वार्र्थों में की गयी संघ की घोषणा तो तत्कालीन स्थितियों और राजनीतिक परिस्थितियों के दृष्टिगत समझ में आती है किन्तु उसे भारतीय संविधन सभा ने भी यथावत मान लिया और भारत को संघ घोषित कर दिया, यह समझ में नहीं आता। अन्तत: ऐसा करने के पीछे हमारी संविधान सभा पर किसका दबाव था? कौन सी बाधाएं थी? कौन सी सोच थीं? यह आज तक स्पष्ट नहीं किया गया। हाँ, भारत को भारत संघ बनाने की बात तब तो समझ में आ सकती थी कि जब इसके बिछुड़े हुए और कटे हुए टुकड़ों और भागों को पुन: एक साथ एक सूत्र में पिरो दिया जाता। इसके मानचित्र में पुन: अफ गानिस्तान, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव सहित वो सारे देश सम्मिलित कर दिये जाते जो समय-समय पर इससे काट दिये गये थे। ऐसी परिस्थितियों में भारत भारत संघ माना जा सकता था।