राजीव रंजन प्रसाद
हमें तो वास्कोडिगामा ने खोजा है, भारतीय उससे पहले थे ही कहाँ? पढाई जाने वाली पाठ्यपुस्तकों का सरलीकरण करें तो महान खोजी-यात्री वास्कोडिगामा ने आबरा-कडाबरा कह कर जादू की छडी घुमाई और जिस देश का आविष्कार हुआ उसे हम आज भारत के नाम से जानते हैं? माना कि देश इसी तरह खोजे जाते हैं लेकिन अपनी ही डायरी में वास्कोडिगामा किस स्कंदश नाम के भारतीय व्यापारी का जिक्र करता है? वास्कोडिगामा स्वयं लिखता है कि उसके पास उपलब्ध से तीन गुना अधिक बडे जहाज में मसाले तथा चीड़ -सागवान की लकडियाँ ले कर अफ्रीका के जंजीबार के निकट पहुँचे इस भारतीय व्यापारी से दुभाषिये की मदद से संवाद स्थापित कर उसने उससे भारत आने की इच्छा प्रकट की। स्कंदश के जहाज के पीछे पीछे ही वह भारत पहुँचा। हे एनसीईआरटी, हे सीबीएसई, हे यूजीसी वगैरह वगैरह, कृपया शंका समाधान करें कि हम अपना अस्तित्व कब से मानें, वास्कोडिगामा की खोज से पहले अथवा पश्चात से?
अपनी ही पुरानी पुस्तकों को हम कितना जानते हैं? ‘जहाज के निर्माण में लोहे का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये चूंकि इससे समुद्री यात्राओं में कतिपय चट्टानों की चुम्बकीय शक्ति के प्रभाव मे आने की सम्भावना है। यह उल्लेख राजाभोज के ग्रंथ युक्ति कल्पतरु में प्राप्त होता है। इतना ही नहीं यह ग्रंथ जहाजों की संरचना व उसके निर्माण की जानकारी प्राप्त करने के दृष्टिगत उल्लेखनीय है। छोटी यात्राओं के लिये जहाज के प्रकार, लम्बी यात्राओं के लिये जहाज के गुण-अवगुण से आरंभ कर अलग अलग कार्यों के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले अलग अलग जहाजों का वर्णन इस ग्रंथ में प्राप्त होता है। यह जानकर पहली प्रतिक्रिया हमारी क्या होनी चाहिये? हमें कुछ साईंटिस्ट टाईप लोगों को इक_ा करना चाहिये और एक पेपर लिखवाना चाहिये कि जैसे वैमानिक शास्त्र को हम खारिज करते हैं वैसे ही यह युक्ति कल्पतरु क्या बला है?
आप प्रश्न कीजिये कौन थे राजा भोज और तत्काल उत्तर मिलेगा वही गंगू तेली वाले? कहावत के भीतर सिमटे राजा भोज का हमने जनश्रुतियों और कहानियों में ऐसा घालमेल कर दिया है कि इतिहास ने उनकी ओर से पीठ कर ली है। कम ही लोग जानने में रुचि रखते हैं कि परमारवंशीय राजा भोज (999 – 1055 ई.) वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य के पश्चिमी हिस्से में अवस्थित मालवा क्षेत्र के शासक थे जिनकी राजधानी धारानगरी (वर्तमान धार) हुआ करती थी। चेदि के राजा गांगेयदेव तथा कर्णाटक के चालुक्य राजा तैलप द्धितीय से अनेक संघर्षोंयुद्धों, उनसे राजा भोज की विजय के पश्चात गांगेयदेव का संक्षेपीकरण गंगू तथा तैलय से तेली जोड कर, दो नितांत असमान व्यक्तियों की तुलना के लिये कहावत चलन में आयी – कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली। आज ध्यान से विवेचित करता हूँ तो लगता है भोज अब मिथक बन गये हैं और हमारा युग गंगू युग बनता जा रहा है। राजा भोज ने भारतीय ज्ञान भंडार में अपने अनेक ग्रंथों के माध्यम से अभिवृद्धि की, उनमें से कुछ प्रमुख हैं – वाग्देवीस्त्रोत, अवनिकूर्मशतम, चम्पूरामायण, सुभाषित प्रबंध, शाृंगारमंजरी कथा, सरस्वतीकण्ठाभरण (व्याकरण), शाृंगारप्रकाश, नाममालिका, तत्वप्रकाश, शालिहोत्र, प्रश्नचूड़ामणि, राजमृगांक, राजमार्तण्डयोगसूत्रवृत्ति, राजमार्तण्ड (ज्योतिष), समरांगणसूत्रधार, युक्तिकल्पतरु आदि।
मैं अपनी बात रखने से पूर्व बधाई देना चाहूंगा प्रसिद्ध इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू जी को जिन्होंने दस वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात लगभग आठ हजार श्लोकों वाले राजाभोज कृत समरांगणसूत्रधार को अनूदित व विश्लेषित किया है। मैं स्वयं जलविद्युत क्षेत्र में कार्यरत हूँ, अत: इस ग्रंथ के एक उद्धरण ने मेरा ध्यान खींचा। इकत्तीसवें अध्याय में उल्लेख मिलता है – ‘धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमणं तथा, यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च। एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षतेÓ अर्थात बहती हुई जलधारा का भार तथा वेग का शक्ति उत्पादन हेतु विशेष यंत्र में उपयोग किया जाता है। जलधारा यंत्र को घुमाती है। यदि जलधारा अधिक ऊंचाई से गिरे तो उसका बहुत प्रभाव होता है एवं यंत्र उसके भार व वेग के अनुपात में धूमता है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है। यही ग्रंथ आगे बताता है कि जल का किस तरह संग्रहण किया जा सकता है एवं उसे विविध उपयोग में लिया जा सकता है। हाईड्रो इंजीनियर्स क्या मुझे बता सकते हैं कि जो कुछ यह श्लोक कह रहा है क्या गलत है? अगर नहीं, तो मेरा अगला प्रश्न यह नहीं कि आप समरांगण सूत्रधार से क्यों परिचित नहीं, आप राजा भोज को क्यों नहीं जानते?
मैकेनिकल इंजीनियरिंग के विद्यार्थी कृयपा अपनी पाठ्यपुस्तक खोल लें और सबसे बुनियादी पाठ व्हाट इज मशीन/यंत्र ही निकाल लें। अब आप समरांगण सूत्रधार के उल्लेखों से मिलान करें – यंत्र वे होते हैं जिनके विभिन्न पुर्जों में परस्पर सह-सम्बंध होते हैं जिससे उनके संचालन में सहजता होती है। यंत्र वे होते हैं जिनके संचालन उपरांत हमें विशेष ध्यान न रखना पडे, कम ऊर्जा का प्रयोग हो, न्यूनतम ध्वनि उत्पन्न करे आदि। यंत्र इस तरह तैयार किये जाने चाहिये कि उसके कल-पुर्जे ढीले न हों, गति कम-ज्यादा न हो तथा वह लम्बे समय तक कार्य करने योग्य हो। कुछ यंत्र एक ही क्रिया बार-बार करते रहते है तथा विशिष्ट कालांतर मे काम करते हैं। कुछ यंत्र विशेष ध्वनि उत्पन्न करने के लिये होते हैं तो कुछ को वस्तुओं का आकार बड़ा या छोटा करने के लिये उपयोग में लाया जाता है। इसी तारतम्य में ग्रंथ का यह श्लोक देखें कि – ‘तिर्यगूध्र्वंमध: पृष्ठे पुरत: पाश्र्वयोरपि। गमनं सरणं पात इति भेदा: क्रियोद्भवा अर्थात किसी मशीन की किसी कार्य की उपादेयता के अनुरूप विभिन्न प्रकार की गतियाँ होती हैं जैसे तिर्यग् (slanting), ऊध्र्व (upwards), अध: (downwards), पृष्ठे (backwards), पुरत: (forward) एवं पाश्र्वयो (sideways)। वस्तुत: आप ग्रंथ पढ़ते जायेंगे और आधुनिक अभियंत्रिकी के सूत्रों और परिभाषाओं से निरंतर परिचित होते रहेंगे।
आपके तर्कों को मान लिया जाये कि यंत्रिकी और जलविद्युत को ले कर जो कुछ राजाभोज ने लिखा वह सपना अथवा कपोल कल्पना है, हमारा विमान शास्त्र कल्पना है, स्त्रीपुरुषप्रतिमायन्त्र कल्पना है तब भी क्या ये अतीव उत्कृष्ट संकल्पनायें नहीं हैं? हमारे पास ऐसी उन्नत संकल्पनायें धूल फांकती हैं और हम जापान की ओर प्यासी निगाह से तकते हैं कि हमसे डॉलर ले लो हमको रोबोट दे दो? राजाभोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण नाम से काव्यशास्त्र लिखा, इसी नाम से व्याकरण ग्रंथ की रचना की, इतना ही नहीं अध्ययन-अध्यापन के लिये राज्य में कई सरस्वतीकण्ठाभरण शालायें बनवायीं। राजा भोज की राजधानी धार में ऐसी ही एक शाला अथवा शिक्षा संस्थान है जिसे भोजशाला के नाम से जाना तो जाता है लेकिन यहाँ की कहानी अधिक दु:खद हो जाती है।
धार की भोजशाला में बहुत अधिक संख्या में शिलांकित साहित्य देखा जा सकता है जिसे आप शिलांकित पुस्तकालय की संज्ञा भी दे सकते हैं। जैसे बख्तियार खिलजी ने नालंदा को नष्ट किया आप उसकी तुलना धार की भोजशाला से भी कर सकते हैं। वर्ष 1401 में अलाउद्दीन खिलजी तथा दिलावर खां गौरी की सेनाओं से माहलकदेव और गोगादेव ने युद्ध लड़ तथा विजित हो कर मालवा में सल्तनत की स्थापना की। तलवार लहराने वालों के लिये शिक्षा संस्थान किस काम के थे अत: इसी स्थान पर खिलजी ने मौलाना कमालुद्दीन के मकबरे और दरगाह का निर्माण करवाया। राजा भोज की भोजशाला को भूल जाईये लेकिन उनके ग्रंथों के भीतर विद्यार्थी उतर सकें इसकी तो समुचित व्यवस्था होनी चाहिये? वैज्ञानिक युग है, मत कीजिये आँख बंद कर विश्वास, परंतु जो कभी जान गया और दस्तावेजीकृत भी किया गया उसपर समझ विकसित करने में परेशानी क्यों है?
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