कांग्रेस को अपने वैचारिक मार्गदर्शक गांधी जी से संविधान और नियम-प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाने का संस्कार उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है। गांधीजी के जीवन का अवलोकन करने से हमें यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपनी मनमानी चलाने के लिए हर उस नैतिकता, मर्यादा , नियम- प्रक्रिया और पार्टी के संविधान के कायदे कानून की धज्जियां उड़ाईं जो उनकी मनमानी के आड़े आ रहे थे। उन्होंने सदा वही किया जो उन्हें अपने अनुकूल और अपने लिए उचित लगा।
गांधीजी के पश्चात उनके उत्तराधिकारी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश के प्रधानमंत्री रहते हुए गांधीजी की इस ‘गौरवशाली परंपरा’ को आगे बढ़ाया। जबकि नेहरू के पश्चात उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने तो संविधान की धज्जियां उड़ाने के कीर्तिमान स्थापित किए। ऐसा नहीं है कि यह परंपरा उसके पश्चात रुक गई। उसके पश्चात भी आज तक यथावत जारी है। कुल मिलाकर कांग्रेस के दामन में एक नहीं, अनेकों दाग हैं। जिनसे यह स्पष्ट होता है कि उसने संविधान और संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन करने में कभी संकोच नहीं किया । कहते हैं ना कि ‘छाज तो बोले सो बोले, छलनी भी बोले -जिसमें 72 छेद’- वास्तव में इस समय कांग्रेस की सोच और मानसिकता इसी प्रकार की बन चुकी है।
उसे अपने 72 छेद दिखाई नहीं देते हैं, जबकि दूसरों का एक छेद उसे बहुत अखरता है ।
यही कारण है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी, मां सोनिया गांधी और पार्टी के अन्य नेता समय-समय पर मोदी सरकार पर यह आरोप लगाते रहते हैं कि वह संविधान की मर्यादाओं का पालन नहीं कर रही है।
अब हम यहां पर विचार करते हैं कि कांग्रेस ने किस प्रकार और कब-कब संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन किया है? बात 31 जुलाई 1959 की है। उस समय केरल में कम्युनिस्टों की सरकार काम कर रही थी। जो कि नेहरू जी को रास नहीं आ रही थी। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने संविधानिक नियमों, प्रक्रियाओं और मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए निर्दलीय विधायकों के सहयोग से केरल में बनी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर दिया था।
गांधीजी अपने जीवन काल में अपनी मनमानी चलाने के लिए बड़ी शीघ्रता दिखाया करते थे। प्रधानमंत्री नेहरु को भी उस समय अपने वैचारिक आदर्श गांधीजी की भांति ही मनमानी करने की बहुत शीघ्रता हो गई थी। यही कारण था कि उन्होंने किसी संविधानिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना राज्यपाल की रिपोर्ट के एयर सर्विस से दिल्ली आने तक की भी प्रतीक्षा नहीं की थी। उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए दूरभाष पर यह रिपोर्ट तैयार करवाई और उसी रिपोर्ट को आधार बनाकर कम्युनिस्ट सरकार को भंग कर दिया। इसके पश्चात केरल में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
नेहरू अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ समझा करते थे। उनके समर्थक ‘गोदी मीडिया’ के पत्रकारों ने उन्हें इसी प्रकार स्थापित भी किया था। तब कहीं किसी ने यह नहीं कहा था कि ‘बेताज का बादशाह’ शब्द अपने आपमें तानाशाही प्रवृत्ति को प्रकट करता है। जिसमें शासक की स्वेच्छाचारिता ,निरंकुशता और उच्छृंखलता प्रकट होती है। जिसे एक लोकतांत्रिक देश में उचित नहीं कहा जा सकता। वैसे भी जब देश शासक के इन अवगुणों से मुक्ति पाकर उस समय आजाद हुआ था, तब किसी भी प्रधानमंत्री के द्वारा अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ कहलवाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। कुछ लोग आज ‘गोदी मीडिया’ पर जब अपने विचार रखते हैं तो इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जैसे ‘गोदी मीडिया’ का मोदी काल में ही उदय हुआ है, जबकि सच्चाई यह है कि ‘गोदी मीडिया’ नेहरू काल में ही जन्म ले चुकी थी।
वैसे हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि नेहरू किसी हिंदू शासक को अपना आदर्श ना मानकर मुगलों को अपना आदर्श माना करते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ कहलवाना उचित माना। उनके मन मस्तिष्क में बादशाही चीजें अच्छी तरह स्थापित थीं, ना कि किसी हिंदू शासक की राजनीति और देश के प्रति समर्पण की भावना। यही कारण था कि उन्हें किसी हिंदू शासक की भांति ‘बिना मुकुट का सम्राट’ कहलाना उचित नहीं लगा।
संविधान की मूल भावना के विपरीत प्रधानमंत्री के पद को सबसे अधिक सशक्त करने का काम भी नेहरू ने ही किया। उन्होंने सरदार पटेल के रहते तो मनमानी कम चलाई , परंतु उनकी मृत्यु के उपरांत तो वह बेताज का बादशाह नहीं ‘बेलगाम के बादशाह’ हो गए थे। उन्होंने अपने मंत्रियों को अकबर के दरबार में बैठे प्यादों की स्थिति में लाने का कुसंस्कार भारतीय राजनीति में डालने का प्रयास किया।
अब आते हैं पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी और देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर। उन्होंने अपने आपको प्रधानमंत्री बनाने में सफलता प्राप्त की थी। वह जिस प्रकार प्रधानमंत्री बनीं वह भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही अशोभनीय स्थितियां थी। आज तक देश के दूसरे और सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य लोगों के सामने नहीं आ पाया है। लोगों के द्वारा कई प्रकार के अनुमान इस विषय में लगाए जाते रहे हैं। 2014 में जब देश के प्रधानमंत्री मोदी बने तो उस समय लाल बहादुर शास्त्री जी के बेटे हरिकृष्ण शास्त्री ने इस विषय में यह मांग की थी कि लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु नहीं बल्कि हत्या हुई थी, इसलिए उनकी हत्या की निष्पक्ष जांच कराई जाए।
इंदिरा गांधी ने सत्ता बिल्कुल उसी प्रकार प्राप्त की थी जिस प्रकार मुगलिया शासन में शहजादे प्राप्त करते रहे थे। वह कौन सी परिस्थितियां थीं और कौन से रहस्य थे – जिनके चलते इंदिरा गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया? – यह आज तक देश के सामने नहीं लाया गया है।
ऐसी परिस्थितियों में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने पिता और कांग्रेस के राष्ट्रपिता गांधी का अनुकरण और दस कदम बढ़कर किया। उन्होंने संविधान को अपनी मुट्ठी में ले लिया और पहले दिन से ऐसा काम करना आरंभ किया जैसे वह देश के लिए कोई लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री न होकर ‘रजिया सुल्ताना’ मिल गई हों?
संविधान के लिए इंदिरा गांधी का शासनकाल सचमुच दुर्दिनों का दौर था। उस समय ऐसे लोग काम कर रहे थे जो ‘इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया’ कहकर अपनी तानाशाह नेता का गुणगान किया करते थे। कांग्रेस के नेता और उसके समर्थकों के इस प्रकार के आचरण के चलते संवेदनशील लोग जब संविधान का अपमान होता देख रहे थे तो उन्होंने भी अपना निष्कर्ष कुछ इस प्रकार व्यक्त किया था कि इस समय देश में ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ लागू न होकर ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंदिरा’ लागू हो चुका है।
कांस्टिट्यूशन ऑफ इंदिरा ने ही देश में सबसे पहले आपातकाल की घोषणा की थी। तब ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ ताक में रखा हुआ सब कुछ देखता रह गया था। उसकी आत्मा चीत्कार कर उठी थी। यह कुछ उसी प्रकार का दृश्य था जैसा महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह द्रोण, कृपाचार्य, और विदुर जैसे लोगों की नीची गर्दन को जाने के समय उपस्थित हुआ था। उस समय के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद भी ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंदिरा’ की इस तानाशाही से बुरी तरह आहत हुए थे। फखरुद्दीन अली अहमद समझ रहे थे कि संविधान की मूल आत्मा क्या कहती है ? और देश के संविधान के प्रावधानों में विश्वास रखने वाले देश के अधिसंख्य लोग उनके इस निर्णय का किस प्रकार उपहास करेंगे या दुख मनाएंगे? डॉ फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के उस निर्णय पर अपने हस्ताक्षर तो कर दिए थे परंतु उसके कुछ समय पश्चात ही वह संसार से चल बसे थे। उनकी मृत्यु के रहस्य पर भी आज तक किसी ने कलम नहीं चलाई और ना ही वह परतें उठाई गईं जिनके चलते उनका असमय देहांत हो गया था।
यह तो अब सभी जानते हैं कि इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल की घोषणा की तो उसके पश्चात देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का पूर्णतया हनन कर लिया गया था। प्रेस पर भी कड़ा पहरा बैठा दिया गया था। जो कुछ भी हो रहा था वह सब इंदिरा गांधी के आदेश पर हो रहा था। और उस समय किसी का भी यह साहस नहीं था कि वह इंदिरा गांधी के आदेशों का उल्लंघन कर सके। देश में पूर्णतया अराजकता व्याप्त हो गई थी और राजनीतिक गतिविधियां सर्वथा शून्य पर आ गई थीं।
इंदिरा गांधी ने उस समय जो कुछ भी किया था वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से क्षुब्ध होकर किया था। माननीय न्यायालय ने उस समय इंदिरा गांधी के चुनाव को ही निरस्त कर दिया था। जिससे इंदिरा गांधी को यह आभास हो गया था कि वह अब देश की प्रधानमंत्री नहीं रह सकतीं। उस समय जेपी आंदोलन के कारण इंदिरा गांधी की रातों की नींद और दिन का चैन समाप्त हो चुका था । उन्हें अपना सिंहासन हिलता हुआ दिखाई दे रहा था। अपने पापों के कारण उन्हें यह भी दिखाई देने लगा था कि यदि सत्ता उनके हाथों से चली गई तो उनका शेष जीवन जेल में कट सकता है। फलस्वरूप उन्होंने ‘कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंदिरा’ के मनमाने प्रावधानों के अंतर्गत देश पर आपातकाल थोप दिया था।
जब उन्होंने देश पर आपातकाल थोपा तो उसके पश्चात ‘कंस्टीटूशन ऑफ़ इंडिया’ को ‘कंस्टीटूशन ऑफ़ इंदिरा’ बनाने के लिए मनमाने संशोधन करने आरंभ किये। इंदिरा गांधी को यह भली प्रकार ज्ञात था कि यदि वर्तमान न्यायपालिका यथावत शक्तियों के साथ काम करती रही तो वह उनके द्वारा देश में आपातकाल थोपने के निर्णय की समीक्षा भी कर सकती है। जिससे उनके लिए फिर एक समस्या उत्पन्न हो सकती है। फलस्वरूप उन्होंने न्यायपालिका को शक्तिहीन करने की दिशा में कठोर और मनमाने निर्णय लिए। 38वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका से आपातकाल की समीक्षा का अधिकार छीन लिया था। इस प्रकार उन्होंने देश की न्यायपालिका को भुने हूए चनों की तरह उसकी अंकुरण शक्ति को समाप्त करके बैठा दिया था । उन्होंने देश के संविधान में 39 वां संशोधन अपनी कुर्सी को बचाने के लिए किया था।
जब शासक भीतरी रूप से दुर्बल होता है तो वह देश के लोगों से, देश की शासन व्यवस्था से या शासन की परंपराओं से या संवैधानिक प्रक्रिया से अपने आपको हर क्षण भयभीत देखता है। तब वह भय के कारण ऐसे निर्णय लेता चला जाता है जो उसके लिए और देश के लिए बहुत ही घातक होते हैं। इंदिरा गांधी की स्थिति भी उस समय यही बन चुकी थी। मेरी समझ में नहीं आता कि वह किस दृष्टिकोण से ‘लौह महिला’ थीं। विशेष रुप से तब जब उन्होंने देश में आपातकाल थोपने सहित अपने कई निर्णय अपने चारों ओर बन गई भयपूर्ण परिस्थितियों के दृष्टिगत भयभीत होकर लिए थे।
उस समय इंदिरा गांधी को अपने चारों ओर ऐसा लगता था कि जनता आ रही है और उनसे सिंहासन खाली करने के लिए कह रही है। अपने इस प्रकार के भीतरी भय को मिटाने के लिए तब उन्होंने 41वें संशोधन के साथ कई नए प्रावधान कराए । 42वें संवैधानिक संशोधनों के द्वारा तो उन्होंने देश के आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों को ही छीन लिया था। वह जितना ही अपने आपको सुरक्षित करने का प्रयास कर रही थीं उतनी ही वह भीतर से अपने आपको असुरक्षित अनुभव करती जा रही थीं। उस समय की राजनीति इंदिरा गांधी के लिए दलदल बन चुकी थी। वह इस दलदल से निकलना तो चाहती थीं परंतु हो उल्टा रहा था। क्योंकि वह निकलने की बजाय इसमें धँसती जा रहीथीं।
इंदिरा गांधी के इस प्रकार के निर्णय से देश की राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह ठप्प होकर रह गई थी। लोगों में भीतर ही भीतर भारी असंतोष फैल गया था। यद्यपि शासक की कठोरता का मैं भी समर्थक हूँ परंतु जब वह नकारात्मक दिशा में जा रही हो तब उस पर किसी भी दृष्टिकोण से सहमति व्यक्त करना उचित नहीं है। इंदिरा गांधी ने मजबूत निर्णय भी लिए इसका भी मैं व्यक्तिगत रुप से समर्थक हूँ परंतु जब उनके निर्णय देश के प्रशासनिक तंत्र को खोखला करने के लिए लिए जा रहे हों तब उन पर अपनी सहमति व्यक्त करना उचित नहीं है।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत