यह कैसी क्रांति: सूचना क्रांति के बीच सूचना ही संदिग्ध
पीयूष पांडे
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विकीपीडिया प्रोफाइल को 27 जून को किसी ने बदल दिया और उन्हें मुस्लिम बता दिया। उनके पिता मोतीलाल नेहरू और उनके दादा के प्रोफाइल पेज पर भी इसी तरह छेडख़ानी की गई। इतना ही नहीं, नेहरू के बारे में कुछ अन्य आपत्तिजनक बातें भी प्रोफाइल में जोड़ी गईं। आरोप लगाया गया कि जिस आईपी एड्रेस से यह छेडख़ानी की गई, वो केंद्र सरकार को सॉफ्टवेयर देने वाली संस्था नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर के दफ्तर का है। मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर ने अब इस बाबत आंतरिक जांच शुरू कर दी है कि किसने यह छेडख़ानी की।
दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन संदर्भकोश विकीपीडिया पर किसी के प्रोफाइल से छेड़छाड़ अपनी तरह का कोई पहला मामला तो खैर नहीं है, लेकिन इस मामले में एनआईसी का नाम आने के बाद कई सवालों उठ खड़े हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या सूचनाओं के स्रोतों में सेंध लगाकर भी वर्चुअल पहचानों को धूमिल करने की कोशिश की जा सकती है? दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां अपने ब्रांड या प्रोडक्ट का विकीपीडिया पेज लगातार न केवल अपडेट करती हैं, बल्कि उनमें उत्पाद की खूबियां बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की भी कोशिश करती हैं। इसके लिए पेशेवर लोगों की मदद ली जाती है। इंटरनेट पर सूचना प्राप्ति के लिए विकीपीडिया प्राथमिक और महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक है। इस चलन से प्रेरित होकर कुछ अन्य कंपनियों ने भी इसे आगे बढ़ाया तो कुछ सरकारों और बड़ी शख्सियतों ने भी इसे अपनाया। बावजूद इसके सच यही है कि विकीपीडिया एक ओपन सोर्स है और इसमें कोई भी संपादन (कुछ मामलों को छोडक़र) कर सकता है।
विकीपीडिया के बारे में कई भ्रांतियां हैं। सबसे पहली तो यही कि कई लोग इसे प्रामाणिक संदर्भकोश की तरह देखते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि विकीपीडिया में गलतियों की भरमार है। कुछ साल पहले अमेरिका के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मारिका डब्ल्यू डिसटासो ने अपने अध्ययन में पाया था कि विकीपीडिया पर मौजूद हर दस में से छह लेखों में तथ्यगत भूलें हैं। अध्ययन के दौरान किए एक सर्वे के मुताबिक जब विकीपीडिया के टॉक पेज के जरिए भूलें दुरुस्त करने की कोशिश हुई तो भी नतीजा बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। 40 फीसदी लोगों को विकीपीडिया के संपादकों की तरफ से प्रतिक्रिया मिलने में एक दिन से ज्यादा का समय लगा, जबकि 12 फीसदी को एक हफ्ते से ज्यादा का वक्त लग गया। खास बात यह कि 25 फीसदी शिकायतों के संदर्भ में कोई प्रतिक्रिया ही नहीं मिली। इस अध्ययन के मुताबिक 60 फीसदी कंपनियों के पेजों पर उनके अथवा उनसे जुड़े ग्राहकों के बारे में तथ्यात्मक रूप से गलत जानकारी दर्ज है। गौरतलब है कि विकीपीडिया ने करीब तीन साल पहले स्वयं अपने संदर्भकोश के बारे में कराए गए एक अध्ययन में पाया था कि उसके कुल 13 फीसदी लेखों में गलतियां हैं।
साल 2012 में विकीपीडिया की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल उस वक्त खड़ा हो गया था, जब एक काल्पनिक युद्ध से संबंधित लेख को पांच साल बाद साइट से हटाने की बात सार्वजनिक हुई। यह लेख ‘बिकोलिम संघर्ष” नामक एक काल्पनिक युद्ध के बारे में था। इसमें 17वी शताब्दी में पुर्तगालियों और मराठा साम्राज्य के बीच हुए एक युद्ध का जिक्र था। बाद में वेबसाइट को जानकारी मिली कि ऐसा युद्ध तो कभी हुआ ही नहीं था और लेख में शामिल जानकारियां और संदर्भ पूरी तरह से काल्पनिक थे। यह लेख जुलाई 2007 में विकीपीडिया पर डाला गया था और सिर्फ दो महीने बाद वेबसाइट के संपादकों ने इसे अच्छे लेखों की श्रेणी में डाल दिया था। उल्लेखनीय है कि विकीपीडिया पर उपलब्ध अंग्रेजी के कुल लेखों में से सिर्फ एक फीसदी लेखों को इस श्रेणी में रखा गया है। विकीपीडिया पर सामग्री से छेड़छाड़ का एक अन्य मामला तब सामने आया था, जब अजमल कसाब की जन्मतिथि को एक दिन में ही 8 से भी ज्यादा बार बदला गया था।
वास्तव में विकीपीडिया की विश्वसनीयता 100 फीसदी कभी भी नहीं रही है। हां, ये तमाम विषयों पर जानकारी प्राप्त करने का प्रथम स्रोत अवश्य है। दिक्कत यही है कि विकीपीडिया प्रथम स्रोत के बजाय मुख्य स्रोत की जगह लेता जा रहा है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि 244 साल पहले शुरू हुए सबसे प्रामाणिक संदर्भकोश ब्रिटेनिका को भी अपना प्रिंट संस्करण बंद करना पड़ा है। इसमें भी ध्यान रखने वाली बात यह है कि विकीपीडिया के पेजों को विकीपीडिया के वॉलेंटियर्स अपडेट करते हैं। अंग्रेजी विकीपीडिया के वॉलेंटियर्स की संख्या लाखों में है, इसलिए अंग्रेजी विकीपीडिया तेजी से अपडेट होता है, जबकि हिंदी समेत तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के पेजों में सैकड़ों त्रुटियां कई-कई दिनों तक सुधारी नहीं जातीं। दिक्कत यह है कि अकादमिक, पत्रकारीय और अन्य महत्वपूर्ण मंचों पर भी विकीपीडिया से ली सामग्री बिना क्रॉस चेक के इस्तेमाल की जा रही है।
लेकिन अब सवाल विकीपीडिया की विश्वसनीयता भर का भी नहीं है। सवाल है वर्चुअल दुनिया में अपनी पहचान के विषय में पता होने और उसे बचाने का। क्या हमने कभी देखा है कि वर्चुअल दुनिया में हमारी पहचान कैसी है? बहुत मुमकिन है कि किसी अंजान ब्लॉग पर आपके बारे में ऐसी भ्रामक और गलत बातें लिखी हों, जिनके बारे में आपको पता ही नहीं हो और सर्च इंजन में आपके बारे में खोजने पर वही पेज सबसे पहले आता हो। हो सकता है कि आपके नाम से कोई ट्विटर या फेसबुक खाता संचालित हो रहा हो, जिस पर आपने कभी ध्यान ही नहीं दिया हो। विकीपीडिया पर जवाहरलाल नेहरू के पेज से छेड़छाड़ ने फिर इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा दिया है। क्योंकि सवाल सिर्फ जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी या किसी बड़े राजनेता का नहीं, हमारा भी है। सवाल हमारी वर्चुअल आइडेंटिटी का भी है। नए डिजिटल समाज में हर सामाजिक व्यक्ति की वर्चुअल दुनिया में भी एक पहचान है और यह जिम्मेदारी उसे खुद उठानी होगी कि उसकी आभासी पहचान सही-सलामत और प्रामाणिक रहे। यह बड़ी चुनौती है कि क्योंकि अभी भी देश में डिजिटल साक्षरता बहुत अधिक नहीं है। लोग आज भी वर्चुअल पहचान को लेकर ज्यादा सजग नहीं हैं। सच यही है कि इंटरनेट के विस्तार के साथ इस नई समस्या के बड़े खतरों से रूबरू होना हमें अभी बाकी है।