डॉ. ओमप्रकाश पांडेय
राजनीति के मूर्धन्य आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की योजनाओं को मूर्त रूप देने में सहयोगी रहे उनके शिष्यों में चन्द्रगुप्त का स्थान सर्वोपरि रहा था। यह मोरियगण की कन्या से उत्पन्न हुआ एक असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी था। मोरिय हिमालय की तराई में स्थित पिप्पली वन में निवास करने वाली एक निम्न जाति थी। इस जाति के स्त्री—पुरुष प्राय: गठीले बदन के मेहनतकश लोग हुआ करते थे। इनकी आजीविका मुख्यत: मूर्ति—निर्माण व उनके विक्रय तथा श्रम साध्य कृषि कार्यों पर ही निर्भर थी (मौर्य: हिरण्यार्थिभि अर्चा: प्रकल्पिता: पातंजलि महाभाष्य—5/3/99)। नन्द के सैनिकों द्वारा पिप्पली वन के गणों का उच्छेद किये जाने के पश्चात् यहाँ की कुछ चुनिंदा सुन्दरियों को राजा के मनोरंजन के लिए उसके सेवकों द्वारा पाटलिपुत्र के राजमहल में भजवा दिया गया। कालान्तर में इन्हीं मोरिया युवतियों में से मुरा नामक एक पाेडषी दासी को राजभवन के अज्ञात संयोगों से ठहरे गर्भ से चन्द्रकान्ति सम्पन्न एक तेजस्वी शिशु की प्राप्ति हुई। गुप्तकालीन मुद्राराक्षक नामक ग्रंथ (श्लोक—5/19) के रचयिता विशाखदत्त मुरा के चन्दसिरि या ‘चन्द्रश्री’ नामधारी इस पुत्र को नन्द का ही अवैध सन्तान घोषित करते हैं। विष्णुगुप्त का टीकाकार रत्नगर्भ भी इसे नन्द का ही अवांछित पुत्र मानता था। (नन्दस्यैव पत्न्यन्तरस्य मुरासंज्ञस्य पुत्रं मौर्याणां प्रथमस—4/24/28)। कथासरित्सागर के सन्दर्भ भी चन्द्रगुप्त को पूर्वनन्द का ही पुत्र ही चिन्हित करते हैं (पूर्वनन्दसुतं कुर्याच् चन्द्रगुप्तं हि भूमिपम् 1/4/116)। गर्भवती होने के बाद मुरा को रंगरेलियों के लिये अनुपयोगी मानते हुये राजमहल से बाहर कर दिया गया। फलत: निराश्रित हो चुकी मुरा राजधानी के समीप रहने वाले एक ग्रामीण परिवार के शरण में चली गई। प्रसवोपरान्त मुरा का पुत्र इसी ग्रामीण परिवेश में पलने—बढऩे को विवश हुआ। इधर अपने सहपाठी रह चुके मगध के महामात्य शकटार से मिलने पाटलिपुत्र आये आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की दृष्टि इस विलक्षण बालक पर पड़ी और उसके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वह उसे संस्कारित करने के उद्देश्य से तक्षशिला लिवा लाये। इस प्रकार तक्षशिला के प्रसिद्ध गुरुकुल में दस निरंतर वर्षों तक आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य के सानिध्य में अध्ययनरत् रहने के उपरान्त इस किशोर ने राजनीति के साथ—साथ युद्ध—विद्या में भी प्रवीणता को प्राप्त कर लिया। संभवत: गुरु विष्णुगुप्त् के प्रति एकनिष्ठता का भाव रखने के कारण ही चन्द्रश्री नामक यह तरुण तदन्तर चन्द्रगुप्त के परवर्तित तथा कालान्तर में माता मुरा के प्रभाववश मौर्य के संपूर्ण नाम से ही जाना जाने लगा। इसी तरह शिष्य की गरिमा के अनुरूप गुरु का ही उद्बोधन कहीं—कहीं चाणक्य चन्द्र या फिर विष्णुचन्द्र के रूप में किया जाने लगा। (सन्दर्भ — अद्भुतसागर, पृ.213)
नन्दवंश के उन्मूलन के पश्चात् अखण्ड राष्ट्र की अपनी आदर्श संकल्पना को साकार करने के लिये आचार्य चाणक्य ने अपने इस योग्यतम् शिष्य को पाटलिपुत्र के प्रतिष्ठित सिंहासन पर बिठा दिया। मुद्राराक्षस (श्लोक—7/12) के अनुसार अल्पवय (लगभग बीस वर्ष की आयु) में ही राजपाट को प्राप्त कर (बाल एव हि लोकेस्मिन् संभावित महोदय:) भारत में मौर्यवंश की स्थापना करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य अपने गुरु चाणक्य के मार्ग निर्देशन में चौबीस वर्षों तक शासन करता रहा। आचार्य चाणक्य की परिकल्पनाओं के अनुरूप चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने पराक्रम के बल पर मौर्य—साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में पार्स (फारस) से लेकर पूर्व में बंगाल तथा पश्चिमोत्तर में बाह्लिक (आधुनिक अफगानिस्तान से भी उत्तर का क्षेत्र) व उत्तर में कम्बोज (आधुनिक पामीर) से लेकर दक्षिण में महिष्मती (आधुनिक कर्नाटक, मैसूर) तक करके एक अखण्ड व सुदृढ़ राष्ट्र की नींव डाली थी।
महाभारत की युद्ध घटना के ठीक 1600 वर्षों के पश्चात् पाटलिपुत्र के सिंहासन पर आरुढ़ हुये चन्द्रगुप्त मौर्य को यवन सम्राट अलक्क्षेन्द्र (ऐलेक्जेन्डर या सिकन्दर) का समकालिक मानने की भ्रान्तियों के कारण आधुनिक इतिहासकारों ने पुराण वर्णित चौबीस वर्षों के इसके शासनकाल को 324 ई.पू. से लेकर 300 ई.पू. तक का चिन्हित किया है। वस्तुत: इस कल्पित अवधारणा का विकास कोलकाता फोर्ट के तत्कालिक प्रमुख सर विलियम जोन्स के 28 फरवरी 1793 के इस रहस्योद्घाटन से हुआ कि मेगास्थनिस आदि यवन लेखकों द्वारा वर्णित सिकन्दरकालीन पालिबोथ्रा व सैण्ड्राकोटस का आशय चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र से ही रहा था। अंग्रेजी दासता के काल में परवर्ती इतिहासज्ञों (मैक्समूलर, विष्टर्निट्ज, रैपसन, कीथ आदि) के लिये जोन्स का यह मत भारतीय इतिहास को कालबद्ध करने में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। कालान्तर में इसी आधार को पुष्ट करने के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य व सैल्कुकास निकाटोर के बीच युद्ध व फिर पराजित यवन सम्राट द्वारा की गई सन्धि के परिणामस्वरूप यूनानी मेगास्थनीस व भारतीय व्याडि का एक दूसरे के दरबार में राजदूत बनकर जाना, सैक्युकस की पुत्री हेलेन से चन्द्रगुप्त का विवाह होना तथा इसी के गर्भ से भावी मौर्य सम्राट बिन्दुसर के जन्म् आदि—आदि प्रसंगों को भारतीय इतिहास में समावेशित किया गया। पराधीनता के काल में विकसित हुई मनोवृत्तियों ने बिना किसी सम्यक विवेचना के जोन्स—भित्ति पर पल्लवित हुई इस अवधारणा को अक्षरश: आत्मसात भी कर लिया। विलियम जोन्स द्वारा कराये गये इस कालगत बोध के परिणामस्वरूप भारतीय इतिहास में आये 1214 वर्षों के महत्वपूर्ण सिकुडऩों से महाभारत—युद्ध की मान्य घटना भी 3138 ई.पू से खिसक कर 1924 ई.पू. पर ही आकर टिक जाती है। इन मान्य तथा स्थापित हुये कालगत विसंगतियों के परिमार्जन हेतु मूल यूनानी लेखकों (मेगास्थनीस आदि) द्वारा प्रयुक्त भारतीय सन्दर्भों की तथ्यात्मक विवेचना करना आवश्यक हो जाता है।
मेगास्थनीस के अनुसार अति प्राचीन काल में डायोनुसोस नामक एक प्रसिद्ध राजा पश्चिम से भारत आया था। उसी के वंश में हेराक्लेस नामक एक राजा हुआ था। इसी ने पालिबोथ्रा नामक भव्य नगरी का निर्माण करवाया था। मिस्र के पुरोहितों ने डायोनुसोस को तीसरी श्रेणी का देव माना था। भारतीय अभिव्यकित में डायोनुसोस जहाँ स्पष्ट रूप से दानवेश का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है, वहीं यहाँ की मान्यताओं में कश्यप की पत्नियों में दिति व अदिति के क्रम से तीसरी रही दनु का पुत्र विप्रचित्ति ही दानवों का राजा हुआ था (विप्रचित्त: च राजानं दानवानामथास्स्दिशत् — वायुपुराण 70/7)। महाभारत (भीष्मपर्व 90/29) के अनुसार दनु के इस पराक्रमी पुत्र ने दैत्य सम्राट बलि की ही भांति तात्कालिक देवलोक (एलब्रुज पर्वतांचल का क्षेत्र), रसातल (बैबीलोनिया, बल्ख, बुखारा, वास्पोरस, हिरात, हरम व गजनी के क्षेत्र) व मानवलोक (सप्तसिन्धु प्रदेश) को जीत लिया था। दनुपुत्र विप्रचित्ति द्वारा अधिग्रहित की गई भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्तों की भूमियों में रहने वाली परवर्ती जातियों (तुरानियों) के लिये यहाँ के शास्त्रों में किया गया दनूनाम तुराणाम् का संकेत भी इन्हें दानवों से ही संबंद्ध करता है। यही नहीं, बल्कि महाभारत (भीष्म पर्व 37/15) के सन्दर्भ तो सप्तसिन्धु क्षेत्र में रहने वाली तात्कालिक क्षुद्रक व मालव जातियों को भी इन्हीं दानवों से बने असुरों की शाखाओं से निसृत घोषित करते हैं। सन् 1921 में पुरातत्ववेत्ताओं को पश्चिमी पंजाब (आधुनिक पाकिस्तान) के माण्टूगोमरी जिले के हड़प्पा नामक स्थान की खुदाई से मिली असुर लिपि में अंकित मुद्रायें भी इन्हीं तथ्यों को प्रमाणित करती हैं। रामायण के संदर्भ तो प्राचीन मथुरा (मधुपुरी) को मधु असुर (रावण की मौसी पुष्पोत्कंटा की पुत्री कुम्भीनसी का पति) द्वारा बसाया गया ही सिद्ध करते हैं। इसी असुर के पुत्र लवणासुर का वध रामानुज शत्रुघ्न ने किया था। कालीदास कृत रघुवंश तथा व्यासकृत महाभारत नामक ग्रंथ तो इक्ष्वाकु, सगर व रघु तथा कृष्ण आदि का संघर्ष पश्चिमोत्तर के यवनों से ही प्रमाणित करते हैं। दि अनैवेसिस ऑफ एलेक्जैण्डर नामक ग्रंथ (खण्ड 5 अध्याय 1) में यूनानी लेखक एरियन इन यवनों का भारत में प्रवेश डायोनुसोस के साथ हुआ सिद्ध करता है। संभवत: मेगास्थनीस द्वारा प्रयुक्त हेराक्लेस का सम्बोधन इन्हीं दानवों में से किसी परवर्ती राजा के लिये रहा होगा।
जहां तक गंगा व शोण के संगम पर स्थित मौर्यकालीन पाटलिपुत्र (आधुनिक बिहार के पटना) का प्रश्न है, तो भारतीय प्रमाणों के अनुसार इस नगरी की स्थापना शैशुनाग वंशी बिम्बसार के पोते उदायिभद्र (उपनाम अशोक) के हाथों संपन्न हुआ था (उदायी भविता यस्मात्रयस्त्रिंशत्समा नृप: वै स पुरवरं राजा पृथिव्यां कुसुमाह्रयम् गंगाय दक्षिणे कूले चतुर्थाह्यब्दे करिष्यति – वायुपुराण 99/319)। चीनी यात्री ह्वेनसांग का भी यही अभिमत रहा था। (ह्वेनसांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, वाल्टर थॉमस, पृष्ठ 101)। भारतीय शास्त्रों के अनुसार मथुरा के निकट निवास करने वाली असुरों की उपर्युक्त वंशावलियों में हुये एक परवर्ती राजा की पुत्री परिलोमा से दिवोदास के वंशज रहे पांचाल नरेश जह्नु को पृषत व प्रभद्र नामक दो पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। जह्नु के इसी कनिष्ठ पुत्र प्रभद्र से निकली क्षत्रियों की एक शाखा प्रभद्रक के नाम से चिन्हित हुई थी। महाभारत (भीष्म पर्व, अध्याय 19) में पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र रहे धृष्टद्युम्न को महारथी होने के साथ—साथ प्रभद्रकों का भी अधिपति घोषित किया गया था (धृष्टद्युम्नश्च पांचाल्यस्तिषां गोप्ता महारथ: सहित: पृतनाशरै रथमुख्यै: प्रभद्रकै:)। इन्हीं प्रभद्रकों ने पांचाल के समीप यमुना तट पर पारिभद्र नामक एक राजधानी बसाई थी। मेगास्थनीस के अनुरूप भी पालिबोथ्रा वस्तुत: फर्रसई अर्थात् प्रसईयों या फिर प्रभदकों की ही राजधानी रही थी। जहाँ तक प्रसई की भौगोलिक स्थिति का प्रश्न है तो मेगास्थनीस इसकी सीमाओं को सिन्धु क्षेत्र के किनारे का ही चिन्हित करता है। वह लिखता है कि सिंधु और कित्र्स प्रसई की सीमाओं पर थे।
प्रसईयों के इस पड़ोसी राज्य के विषय में महाभारत ग्रंथ समुचित प्रकाश डालता है। भीष्मपर्व के अनुसार प्राच्य जनपदों में मगध, पौंड्र, सुहम्, अंग व बंग आदि आते थे, जबकि मध्य प्रदेश के अन्तर्गत चेदि,वत्स,करुष, भोज व सिन्धु—पुलिन्द आदि जनपद ही रहे थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मेगास्थनीस का तात्पर्य ख्यातिलब्ध सिन्धु—प्रदेश के विपरीत प्रभद्रको की सीमा से लगे मध्य प्रान्त के तात्कालिक सिन्धु—पुलिन्द नाम के जनपद से ही रहा था। यमुना तट पर बसे प्रभद्रकों के पारिभद्र नामक नगर को भी मेगास्थनीस एक प्रकार से मान्यता देता ही दिखता है। उसके अनुसार एर्रनोबोअस या जोमेनस (यमुना) नदी पालिबोथ्रा में ही बहती हुई मेंथोरा (मथुरा) और करिसोबोर (करुष) के मध्य गेंगारि (गंगा) में मिलती है। भारतीय मान्यताओं में सूर्य—पुत्री के रूप में स्वीकारी गई यमुना को पर्याय स्वरूप अरुणजा या फिर अरुणीवहा आदि के नामों से ही चिन्हित किया गया है। संभवत: मेगास्थनीस द्वारा यमुना के लिये प्रयुक्त किया गया एर्रनोबोअस का यह सम्बोधन अरुणीवहा का ही यूनानी संस्करण रहा होगा। यह सर्वविदित है कि यमुना नदी मगध की राजधानी पाटलिपुत्र अर्थात् आधुनिक पटना से लगभग दो सौ मील पहले (पश्चिम में) ही प्रयाग (इलाहाबाद जनपद) स्थित संगम—क्षेत्र में गंगा से आकर मिल जाती है। मेगास्थनीस के लेखों के अनुसार पालिबोथ्रा से लेकर अफगानिस्तान के नैश शहर तक 1250 मील लम्बा एक राजमार्ग रहा था। निश्चित रूप से पटना से लेकर नैश (काबुल) तक के सड़क मार्ग की वास्तविक दूरी उल्लेखित माप से लगभग दुगुनी ही है। उपर्युक्त भौगोलिक उद्धरणों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित पालिबोथ्रा का आशय मगध की राजधानी रही पाटलिपुत्र से कदापि नहीं रहा था।
अब मेगास्थेनस द्वारा वर्णित पालिबोथ्रा का वास्तविक आशय जानने के लिये युनानी तथा भारतीय भाषाओं के आपसी संस्कारों पर भी दृष्टि डालनी चाहिए। भारतीय वर्ण प के लिये यूनानी उच्चारण जहाँ प या पी ही रहा था, वहीं द अक्षर के लिये कही—कहीं ट या थ एवम् वा तथा भ वर्णों के लिये ब का प्रयोग होता रहा था। उदाहरणार्थ, पाताल (पैटालाइन) चन्द्रभागा (चंदतब्रा/सैंडाबलद्य) चन्द्रावती (सैंद्राबाटिस, भद्र (बोथ्रा) आदि। भारतीय वर्णों (प ,भ, द) के लिये प्रयुक्त हुये यूनानी उच्चारण (पी, बी, ट और थ) स्वत: सिद्ध कर देते हैं कि मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित पालिबोथ्रा का आशय मागधी पाटलिपुत्र के बजाय प्रभद्रकों के पारिभद्र नामक नगर से ही रहा था।
इसी अनुरूप सैण्ड्रकोट्स व चन्द्रगुप्त के नामसमानता की प्रमाणिकता के लिये भी मेगास्थनीस के तत्संबंधी कथनों की सम्यक विवेचना अपरिहार्य हो जाती है। मेगास्थनीस के अनुसार सैण्ड्रकोट्स हेराक्लेस की 138वीं पीढ़ी में हुआ था और उसके पुत्र का नाम एमित्रोकेडस या एल्लित्रोकेडस रहा था। यह सर्वविदित है कि आचार्य चाणक्य के प्रयत्नों से मगध के सिंहासन पर आरुढ़ हुआ दासी मुरा का चन्द्रगुप्त मौर्य नामधारी पुत्र ही भारत के मौर्य वंश का संस्थापक राजा रहा था। ऐसी स्थिति में उसे किसी राजकुल की उत्तरोत्तर पीढिय़ों का फिर 138वीं पीढ़ी से कतई सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है। जहाँ तक इसके पुत्र का प्रश्न है तो उसे भारतीय इतिहास में बिन्दुसार के नाम से चिन्हित किया गया है और यही मौर्यकालीन भारत सम्राट अशोक प्रियदर्शी का जनक रहा था। यही नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट पद पर सुशोभित करने से लेकर मौर्यकालीन शासन—प्रशासन के नियामक रहे आचार्य चाणक्य को भी मेगास्थनीस अपने संस्मरणों में सैण्ड्रकोट्स के साथ कहीं स्थान नहीं देता है। मेगास्थनीस के कथनानुसार सैण्ड्राकोट्स के काल में भारतवर्ष 118 विभिन्न राज्यों में बंटा हुआ था, जबकि दक्षिण में महिष्मती (मैसूर) से लेकर संपूर्ण उत्तर भारत तक फैले विशाल मगध राज्य को हस्तगत करने के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने पराक्रम से इसकी सीमा का विस्तार पश्चिम में पर्स (फारस राज्य) तक करके एक अखण्ड राष्ट्र की नींव डाली थी। चन्द्रगुप्त मौर्य की इस ऐतिहासिक उपलब्धि के विपरीत मेगास्थनीस सिन्धु क्षेत्र के मात्र दो जनपदों के राजा रहे पोरस (पुरु) को सैड्रोकोट्स की तुलना में श्रेष्ठ ही मानता था। एक राजदूत स्तर के विदेशी राजनयिक से तात्कालिक भारत—सम्राट की वंशावलियों तथा क्षमताओं के प्रति इतनी अनर्गल व बचकानी टिप्पणियों की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। वस्तुत: मेगास्थनीस के विवेक को लांछित करने वाली इन भ्रान्तियों का मूल कारण उसके द्वारा उल्लेखित सैण्ड्राकोट्स को चन्द्रगुप्त का पर्याय मानकर इसे चन्द्रगुप्त मौर्य समझने से ही उत्पन्न हुआ है।
अब प्रश्न उठता है कि मेगास्थनीस द्वारा वर्णित पालिबोथ्रा की भौगोलिक स्थिति तथा सैण्ड्राकोट्स से सम्बन्धित ऐतिहासिक वृत कहीं मौर्यकालीन चन्द्रगुप्त से इतर किसी नाम—साम्य वाले परवर्ती राजा को तो इंगित नहीं करते है? मौर्य बनाम अन्य के मकडज़ाल में उलझी सैण्ड्राकोट्स की इस गुत्थी को सुलझाने में आन्ध्रयुगीन भारतीय इतिहास के परिदृश्य अत्यधिक सहायक सिद्ध होते हैं। मौर्यों के उपरान्त मगध के शासक हुये शुंग व कण्व राजवंशों के क्रम से ही आन्ध्रों का राजकुल अस्तित्व में आया था। इसी आन्ध्रवंश के एक परवर्ती राजा हाल को इलियट के संदर्भ (भाग—1 पृष्ठ संख्या—108/109) एलेक्जेन्डर का समकालिक ठहराते हैं। आन्ध्रयुग की मध्यान्ह बेला तक भारत अनेक छोटे—छोटे राज्यों में विभाजित हो चुका था। मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित भारत के 118 राज्यों का सन्दर्भ इस काल को ही इंगित करता है। आन्ध्रकुलीन हाल के ही काल में चन्द्रकेतु नामक प्रभद्रकों का एक पराक्रमी राजा हुआ था। यूनानी लेखकों द्वारा प्रयुक्त हुआ सैण्ड्राकोट्स का उच्चारण भी चन्द्रगुप्त की अपेक्षा चन्द्रकेतु से ही अधिक साम्यता रखता प्रतीत होता है। कुशल सैन्य—संचालन के बल पर पड़ोस के छोटे—छोटे राज्यों को जीत कर चन्द्रकेतु ने अपनी सीमाओं को उज्जयिनी तक समुचित विस्तार भी किया था। राज्य—विस्तार के इसी उपक्रम में इसका संघर्ष पश्चिम के यवनों से भी हुआ था। प्लूटार्क के अनुसार गंगा तीर के राजाओं और प्रसूईयों या प्रभद्रकों की सम्मलित शक्तियों के विपरीत निरंतर युद्धों से क्लान्त हो चुकी अपनी सेना की क्षमताओं का आंकलन करने के पश्चात् ही सिकन्दर ने विश्वविजय के अपने अभियान को स्थगित किया था। इतिहासज्ञों ने भी सिकन्दर के स्वदेश लौटने का प्रमुख कारण उसकी सेना में व्याप्त हताशा को ही माना है।
संभवत: सिकन्दर के वापस लौट जाने से उत्साहित हुई मित्र राजाओं की सेना ने बचे हुए यूनानियों को भी वापस खदेडऩे के उद्देश्य से चन्द्रकेतु के नेतृत्व में इनके स्कन्धावरों पर धावा किया होगा। इस युद्ध में पराजित यूनानी क्षत्रप सैल्युकस निकाटोर व विजयी चन्द्रकेतु के मध्य हुई सन्धि के परिणामस्वरूप सीमा— परिसीमन, वैवाहिक—संबंध व राजनयिकों की नियुक्तियों के प्रसंग उपस्थित हुये होंगे। कालान्तर में जैन—श्रमण भद्रबाहु के संसर्ग में आने के कारण प्रभद्रकों का यह प्रतापी राजा अपने पुत्र अमरकेतु को राज्यभार दे कर स्वयं सन्यस्थ हो गया (सन्दर्भ—आराधना कथाकोश)। मेगास्थनीस आदि द्वारा सैण्ड्राकोट्स के पुत्र के लिये प्रयुक्त किया गया अमित्रोकेड्स का उद्बोधन प्रकटत: अमरकेतु का ही भाषायी अपभ्रंश प्रतीत होता है। जैन आचार्य हरिषेण द्वारा रचित आराधना कथाकोश के अनुसार भी राज्य में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष के समय अपने पुत्र को राजपाट सौंपकर श्रमम—भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान करने वाला उज्जैन नरेश चन्द्रगुप्त (अथवा चन्द्रकेतु), प्रभद्रकों का ही राजा रहा था।
प्रमाण बताते है कि जैन श्रमण बन चुके इस राजा ने मैसूर स्थित श्रवण बेलगोल में निराहार व्रत का पालन करते हुये अपनी इहलीला समाप्त की थी। सिकन्दरकालीन जैन—श्रमण भद्रबाहु के कारण जोन्स मतावलम्बी इतिहासज्ञ इस घटना को चन्द्रगुप्त मौर्य से ही जोड़ते हुये उसके द्वारा अन्तिम समय में जैन धर्म अपनाने की बात स्वीकार करते हैं। जबकि कट्टर ब्राह्राण व कुशल राजनीतिक के रूप में ख्यातिलब्ध रहे आचार्य चाणक्य के इस अन्यतम अनुयायी का मात्र चौबीस वर्षों के राजनैतिक जीवन के बाद एकाएक जैन मुनि के प्रभाव में आ जाना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। वस्तुत: चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के आधे रात्रि के समय पाटलिपुत्र के राजमहल में हुए एक विस्फोट में गंभीर रूप से घायल होने के कारण हुई थी। (संदर्भ: मंजुश्री मूलकल्प श्लोक 441/442)
डॉ. ओमप्रकाश पांडेय
लेखक प्रसिद्ध अंतरिक्ष विज्ञानी हैं।
राजनीति के मूर्धन्य आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की योजनाओं को मूर्त रूप देने में सहयोगी रहे उनके शिष्यों में चन्द्रगुप्त का स्थान सर्वोपरि रहा था। यह मोरियगण की कन्या से उत्पन्न हुआ एक असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी था। मोरिय हिमालय की तराई में स्थित पिप्पली वन में निवास करने वाली एक निम्न जाति थी। इस जाति के स्त्री—पुरुष प्राय: गठीले बदन के मेहनतकश लोग हुआ करते थे। इनकी आजीविका मुख्यत: मूर्ति—निर्माण व उनके विक्रय तथा श्रम साध्य कृषि कार्यों पर ही निर्भर थी (मौर्य: हिरण्यार्थिभि अर्चा: प्रकल्पिता: पातंजलि महाभाष्य—5/3/99)। नन्द के सैनिकों द्वारा पिप्पली वन के गणों का उच्छेद किये जाने के पश्चात् यहाँ की कुछ चुनिंदा सुन्दरियों को राजा के मनोरंजन के लिए उसके सेवकों द्वारा पाटलिपुत्र के राजमहल में भजवा दिया गया। कालान्तर में इन्हीं मोरिया युवतियों में से मुरा नामक एक षोडषी दासी को राजभवन के अज्ञात संयोगों से ठहरे गर्भ से चन्द्रकान्ति सम्पन्न एक तेजस्वी शिशु की प्राप्ति हुई। गुप्तकालीन मुद्राराक्षक नामक ग्रंथ (श्लोक—5/19) के रचयिता विशाखदत्त मुरा के चन्दसिरि या ‘चन्द्रश्री’ नामधारी इस पुत्र को नन्द का ही अवैध सन्तान घोषित करते हैं। विष्णुगुप्त का टीकाकार रत्नगर्भ भी इसे नन्द का ही अवांछित पुत्र मानता था। (नन्दस्यैव पत्न्यन्तरस्य मुरासंज्ञस्य पुत्रं मौर्याणां प्रथमस—4/24/28)। कथासरित्सागर के सन्दर्भ भी चन्द्रगुप्त को पूर्वनन्द का ही पुत्र ही चिन्हित करते हैं (पूर्वनन्दसुतं कुर्याच् चन्द्रगुप्तं हि भूमिपम् 1/4/116)। गर्भवती होने के बाद मुरा को रंगरेलियों के लिये अनुपयोगी मानते हुये राजमहल से बाहर कर दिया गया। फलत: निराश्रित हो चुकी मुरा राजधानी के समीप रहने वाले एक ग्रामीण परिवार के शरण में चली गई। प्रसवोपरान्त मुरा का पुत्र इसी ग्रामीण परिवेश में पलने—बढऩे को विवश हुआ। इधर अपने सहपाठी रह चुके मगध के महामात्य शकटार से मिलने पाटलिपुत्र आये आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की दृष्टि इस विलक्षण बालक पर पड़ी और उसके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वह उसे संस्कारित करने के उद्देश्य से तक्षशिला लिवा लाये। इस प्रकार तक्षशिला के प्रसिद्ध गुरुकुल में दस निरंतर वर्षों तक आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य के सानिध्य में अध्ययनरत् रहने के उपरान्त इस किशोर ने राजनीति के साथ—साथ युद्ध—विद्या में भी प्रवीणता को प्राप्त कर लिया। संभवत: गुरु विष्णुगुप्त् के प्रति एकनिष्ठता का भाव रखने के कारण ही चन्द्रश्री नामक यह तरुण तदन्तर चन्द्रगुप्त के परवर्तित तथा कालान्तर में माता मुरा के प्रभाववश मौर्य के संपूर्ण नाम से ही जाना जाने लगा। इसी तरह शिष्य की गरिमा के अनुरूप गुरु का ही उद्बोधन कहीं—कहीं चाणक्य चन्द्र या फिर विष्णुचन्द्र के रूप में किया जाने लगा। (सन्दर्भ — अद्भुतसागर, पृ.213)
नन्दवंश के उन्मूलन के पश्चात् अखण्ड राष्ट्र की अपनी आदर्श संकल्पना को साकार करने के लिये आचार्य चाणक्य ने अपने इस योग्यतम् शिष्य को पाटलिपुत्र के प्रतिष्ठित सिंहासन पर बिठा दिया। मुद्राराक्षस (श्लोक—7/12) के अनुसार अल्पवय (लगभग बीस वर्ष की आयु) में ही राजपाट को प्राप्त कर (बाल एव हि लोकेस्मिन् संभावित महोदय:) भारत में मौर्यवंश की स्थापना करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य अपने गुरु चाणक्य के मार्ग निर्देशन में चौबीस वर्षों तक शासन करता रहा। आचार्य चाणक्य की परिकल्पनाओं के अनुरूप चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने पराक्रम के बल पर मौर्य—साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में पार्स (फारस) से लेकर पूर्व में बंगाल तथा पश्चिमोत्तर में बाह्लिक (आधुनिक अफगानिस्तान से भी उत्तर का क्षेत्र) व उत्तर में कम्बोज (आधुनिक पामीर) से लेकर दक्षिण में महिष्मती (आधुनिक कर्नाटक, मैसूर) तक करके एक अखण्ड व सुदृढ़ राष्ट्र की नींव डाली थी।
महाभारत की युद्ध घटना के ठीक 1600 वर्षों के पश्चात् पाटलिपुत्र के सिंहासन पर आरुढ़ हुये चन्द्रगुप्त मौर्य को यवन सम्राट अलक्क्षेन्द्र (ऐलेक्जेन्डर या सिकन्दर) का समकालिक मानने की भ्रान्तियों के कारण आधुनिक इतिहासकारों ने पुराण वर्णित चौबीस वर्षों के इसके शासनकाल को 324 ई.पू. से लेकर 300 ई.पू. तक का चिन्हित किया है। वस्तुत: इस कल्पित अवधारणा का विकास कोलकाता फोर्ट के तत्कालिक प्रमुख सर विलियम जोन्स के 28 फरवरी 1793 के इस रहस्योद्घाटन से हुआ कि मेगास्थनिस आदि यवन लेखकों द्वारा वर्णित सिकन्दरकालीन पालिबोथ्रा व सैण्ड्राकोटस का आशय चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र से ही रहा था। अंग्रेजी दासता के काल में परवर्ती इतिहासज्ञों (मैक्समूलर, विष्टर्निट्ज, रैपसन, कीथ आदि) के लिये जोन्स का यह मत भारतीय इतिहास को कालबद्ध करने में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। कालान्तर में इसी आधार को पुष्ट करने के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य व सैल्कुकास निकाटोर के बीच युद्ध व फिर पराजित यवन सम्राट द्वारा की गई सन्धि के परिणामस्वरूप यूनानी मेगास्थनीस व भारतीय व्याडि का एक दूसरे के दरबार में राजदूत बनकर जाना, सैक्युकस की पुत्री हेलेन से चन्द्रगुप्त का विवाह होना तथा इसी के गर्भ से भावी मौर्य सम्राट बिन्दुसर के जन्म् आदि—आदि प्रसंगों को भारतीय इतिहास में समावेशित किया गया। पराधीनता के काल में विकसित हुई मनोवृत्तियों ने बिना किसी सम्यक विवेचना के जोन्स—भित्ति पर पल्लवित हुई इस अवधारणा को अक्षरश: आत्मसात भी कर लिया। विलियम जोन्स द्वारा कराये गये इस कालगत बोध के परिणामस्वरूप भारतीय इतिहास में आये 1214 वर्षों के महत्वपूर्ण सिकुडऩों से महाभारत—युद्ध की मान्य घटना भी 3138 ई.पू से खिसक कर 1924 ई.पू. पर ही आकर टिक जाती है। इन मान्य तथा स्थापित हुये कालगत विसंगतियों के परिमार्जन हेतु मूल यूनानी लेखकों (मेगास्थनीस आदि) द्वारा प्रयुक्त भारतीय सन्दर्भों की तथ्यात्मक विवेचना करना आवश्यक हो जाता है।
मेगास्थनीस के अनुसार अति प्राचीन काल में डायोनुसोस नामक एक प्रसिद्ध राजा पश्चिम से भारत आया था। उसी के वंश में हेराक्लेस नामक एक राजा हुआ था। इसी ने पालिबोथ्रा नामक भव्य नगरी का निर्माण करवाया था। मिस्र के पुरोहितों ने डायोनुसोस को तीसरी श्रेणी का देव माना था। भारतीय अभिव्यकित में डायोनुसोस जहाँ स्पष्ट रूप से दानवेश का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है, वहीं यहाँ की मान्यताओं में कश्यप की पत्नियों में दिति व अदिति के क्रम से तीसरी रही दनु का पुत्र विप्रचित्ति ही दानवों का राजा हुआ था (विप्रचित्त: च राजानं दानवानामथास्स्दिशत् — वायुपुराण 70/7)। महाभारत (भीष्मपर्व 90/29) के अनुसार दनु के इस पराक्रमी पुत्र ने दैत्य सम्राट बलि की ही भांति तात्कालिक देवलोक (एलब्रुज पर्वतांचल का क्षेत्र), रसातल (बैबीलोनिया, बल्ख, बुखारा, वास्पोरस, हिरात, हरम व गजनी के क्षेत्र) व मानवलोक (सप्तसिन्धु प्रदेश) को जीत लिया था। दनुपुत्र विप्रचित्ति द्वारा अधिग्रहित की गई भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्तों की भूमियों में रहने वाली परवर्ती जातियों (तुरानियों) के लिये यहाँ के शास्त्रों में किया गया दनूनाम तुराणाम् का संकेत भी इन्हें दानवों से ही संबंद्ध करता है। यही नहीं, बल्कि महाभारत (भीष्म पर्व 37/15) के सन्दर्भ तो सप्तसिन्धु क्षेत्र में रहने वाली तात्कालिक क्षुद्रक व मालव जातियों को भी इन्हीं दानवों से बने असुरों की शाखाओं से निसृत घोषित करते हैं। सन् 1921 में पुरातत्ववेत्ताओं को पश्चिमी पंजाब (आधुनिक पाकिस्तान) के माण्टूगोमरी जिले के हड़प्पा नामक स्थान की खुदाई से मिली असुर लिपि में अंकित मुद्रायें भी इन्हीं तथ्यों को प्रमाणित करती हैं। रामायण के संदर्भ तो प्राचीन मथुरा (मधुपुरी) को मधु असुर (रावण की मौसी पुष्पोत्कंटा की पुत्री कुम्भीनसी का पति) द्वारा बसाया गया ही सिद्ध करते हैं। इसी असुर के पुत्र लवणासुर का वध रामानुज शत्रुघ्न ने किया था। कालीदास कृत रघुवंश तथा व्यासकृत महाभारत नामक ग्रंथ तो इक्ष्वाकु, सगर व रघु तथा कृष्ण आदि का संघर्ष पश्चिमोत्तर के यवनों से ही प्रमाणित करते हैं। दि अनैवेसिस ऑफ एलेक्जैण्डर नामक ग्रंथ (खण्ड 5 अध्याय 1) में यूनानी लेखक एरियन इन यवनों का भारत में प्रवेश डायोनुसोस के साथ हुआ सिद्ध करता है। संभवत: मेगास्थनीस द्वारा प्रयुक्त हेराक्लेस का सम्बोधन इन्हीं दानवों में से किसी परवर्ती राजा के लिये रहा होगा।
जहां तक गंगा व शोण के संगम पर स्थित मौर्यकालीन पाटलिपुत्र (आधुनिक बिहार के पटना) का प्रश्न है, तो भारतीय प्रमाणों के अनुसार इस नगरी की स्थापना शैशुनाग वंशी बिम्बसार के पोते उदायिभद्र (उपनाम अशोक) के हाथों संपन्न हुआ था (उदायी भविता यस्मात्रयस्त्रिंशत्समा नृप: वै स पुरवरं राजा पृथिव्यां कुसुमाह्रयम् गंगाय दक्षिणे कूले चतुर्थाह्यब्दे करिष्यति – वायुपुराण 99/319)। चीनी यात्री ह्वेनसांग का भी यही अभिमत रहा था। (ह्वेनसांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, वाल्टर थॉमस, पृष्ठ 101)। भारतीय शास्त्रों के अनुसार मथुरा के निकट निवास करने वाली असुरों की उपर्युक्त वंशावलियों में हुये एक परवर्ती राजा की पुत्री परिलोमा से दिवोदास के वंशज रहे पांचाल नरेश जह्नु को पृषत व प्रभद्र नामक दो पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। जह्नु के इसी कनिष्ठ पुत्र प्रभद्र से निकली क्षत्रियों की एक शाखा प्रभद्रक के नाम से चिन्हित हुई थी। महाभारत (भीष्म पर्व, अध्याय 19) में पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र रहे धृष्टद्युम्न को महारथी होने के साथ—साथ प्रभद्रकों का भी अधिपति घोषित किया गया था (धृष्टद्युम्नश्च पांचाल्यस्तिषां गोप्ता महारथ: सहित: पृतनाशरै रथमुख्यै: प्रभद्रकै:)। इन्हीं प्रभद्रकों ने पांचाल के समीप यमुना तट पर पारिभद्र नामक एक राजधानी बसाई थी। मेगास्थनीस के अनुरूप भी पालिबोथ्रा वस्तुत: फर्रसई अर्थात् प्रसईयों या फिर प्रभदकों की ही राजधानी रही थी। जहाँ तक प्रसई की भौगोलिक स्थिति का प्रश्न है तो मेगास्थनीस इसकी सीमाओं को सिन्धु क्षेत्र के किनारे का ही चिन्हित करता है। वह लिखता है कि सिंधु और कित्र्स प्रसई की सीमाओं पर थे।
प्रसईयों के इस पड़ोसी राज्य के विषय में महाभारत ग्रंथ समुचित प्रकाश डालता है। भीष्मपर्व के अनुसार प्राच्य जनपदों में मगध, पौंड्र, सुहम्, अंग व बंग आदि आते थे, जबकि मध्य प्रदेश के अन्तर्गत चेदि,वत्स,करुष, भोज व सिन्धु—पुलिन्द आदि जनपद ही रहे थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मेगास्थनीस का तात्पर्य ख्यातिलब्ध सिन्धु—प्रदेश के विपरीत प्रभद्रको की सीमा से लगे मध्य प्रान्त के तात्कालिक सिन्धु—पुलिन्द नाम के जनपद से ही रहा था। यमुना तट पर बसे प्रभद्रकों के पारिभद्र नामक नगर को भी मेगास्थनीस एक प्रकार से मान्यता देता ही दिखता है। उसके अनुसार एर्रनोबोअस या जोमेनस (यमुना) नदी पालिबोथ्रा में ही बहती हुई मेंथोरा (मथुरा) और करिसोबोर (करुष) के मध्य गेंगारि (गंगा) में मिलती है। भारतीय मान्यताओं में सूर्य—पुत्री के रूप में स्वीकारी गई यमुना को पर्याय स्वरूप अरुणजा या फिर अरुणीवहा आदि के नामों से ही चिन्हित किया गया है। संभवत: मेगास्थनीस द्वारा यमुना के लिये प्रयुक्त किया गया एर्रनोबोअस का यह सम्बोधन अरुणीवहा का ही यूनानी संस्करण रहा होगा। यह सर्वविदित है कि यमुना नदी मगध की राजधानी पाटलिपुत्र अर्थात् आधुनिक पटना से लगभग दो सौ मील पहले (पश्चिम में) ही प्रयाग (इलाहाबाद जनपद) स्थित संगम—क्षेत्र में गंगा से आकर मिल जाती है। मेगास्थनीस के लेखों के अनुसार पालिबोथ्रा से लेकर अफगानिस्तान के नैश शहर तक 1250 मील लम्बा एक राजमार्ग रहा था। निश्चित रूप से पटना से लेकर नैश (काबुल) तक के सड़क मार्ग की वास्तविक दूरी उल्लेखित माप से लगभग दुगुनी ही है। उपर्युक्त भौगोलिक उद्धरणों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित पालिबोथ्रा का आशय मगध की राजधानी रही पाटलिपुत्र से कदापि नहीं रहा था।
अब मेगास्थेनस द्वारा वर्णित पालिबोथ्रा का वास्तविक आशय जानने के लिये युनानी तथा भारतीय भाषाओं के आपसी संस्कारों पर भी दृष्टि डालनी चाहिए। भारतीय वर्ण प के लिये यूनानी उच्चारण जहाँ प या पी ही रहा था, वहीं द अक्षर के लिये कही—कहीं ट या थ एवम् वा तथा भ वर्णों के लिये ब का प्रयोग होता रहा था। उदाहरणार्थ, पाताल (पैटालाइन) चन्द्रभागा (चंदतब्रा/सैंडाबलद्य) चन्द्रावती (सैंद्राबाटिस, भद्र (बोथ्रा) आदि। भारतीय वर्णों (प ,भ, द) के लिये प्रयुक्त हुये यूनानी उच्चारण (पी, बी, ट और थ) स्वत: सिद्ध कर देते हैं कि मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित पालिबोथ्रा का आशय मागधी पाटलिपुत्र के बजाय प्रभद्रकों के पारिभद्र नामक नगर से ही रहा था।
इसी अनुरूप सैण्ड्रकोट्स व चन्द्रगुप्त के नामसमानता की प्रमाणिकता के लिये भी मेगास्थनीस के तत्संबंधी कथनों की सम्यक विवेचना अपरिहार्य हो जाती है। मेगास्थनीस के अनुसार सैण्ड्रकोट्स हेराक्लेस की 138वीं पीढ़ी में हुआ था और उसके पुत्र का नाम एमित्रोकेडस या एल्लित्रोकेडस रहा था। यह सर्वविदित है कि आचार्य चाणक्य के प्रयत्नों से मगध के सिंहासन पर आरुढ़ हुआ दासी मुरा का चन्द्रगुप्त मौर्य नामधारी पुत्र ही भारत के मौर्य वंश का संस्थापक राजा रहा था। ऐसी स्थिति में उसे किसी राजकुल की उत्तरोत्तर पीढिय़ों का फिर 138वीं पीढ़ी से कतई सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है। जहाँ तक इसके पुत्र का प्रश्न है तो उसे भारतीय इतिहास में बिन्दुसार के नाम से चिन्हित किया गया है और यही मौर्यकालीन भारत सम्राट अशोक प्रियदर्शी का जनक रहा था। यही नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट पद पर सुशोभित करने से लेकर मौर्यकालीन शासन—प्रशासन के नियामक रहे आचार्य चाणक्य को भी मेगास्थनीस अपने संस्मरणों में सैण्ड्रकोट्स के साथ कहीं स्थान नहीं देता है। मेगास्थनीस के कथनानुसार सैण्ड्राकोट्स के काल में भारतवर्ष 118 विभिन्न राज्यों में बंटा हुआ था, जबकि दक्षिण में महिष्मती (मैसूर) से लेकर संपूर्ण उत्तर भारत तक फैले विशाल मगध राज्य को हस्तगत करने के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने पराक्रम से इसकी सीमा का विस्तार पश्चिम में पर्स (फारस राज्य) तक करके एक अखण्ड राष्ट्र की नींव डाली थी। चन्द्रगुप्त मौर्य की इस ऐतिहासिक उपलब्धि के विपरीत मेगास्थनीस सिन्धु क्षेत्र के मात्र दो जनपदों के राजा रहे पोरस (पुरु) को सैड्रोकोट्स की तुलना में श्रेष्ठ ही मानता था। एक राजदूत स्तर के विदेशी राजनयिक से तात्कालिक भारत—सम्राट की वंशावलियों तथा क्षमताओं के प्रति इतनी अनर्गल व बचकानी टिप्पणियों की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। वस्तुत: मेगास्थनीस के विवेक को लांछित करने वाली इन भ्रान्तियों का मूल कारण उसके द्वारा उल्लेखित सैण्ड्राकोट्स को चन्द्रगुप्त का पर्याय मानकर इसे चन्द्रगुप्त मौर्य समझने से ही उत्पन्न हुआ है।
अब प्रश्न उठता है कि मेगास्थनीस द्वारा वर्णित पालिबोथ्रा की भौगोलिक स्थिति तथा सैण्ड्राकोट्स से सम्बन्धित ऐतिहासिक वृत कहीं मौर्यकालीन चन्द्रगुप्त से इतर किसी नाम—साम्य वाले परवर्ती राजा को तो इंगित नहीं करते है? मौर्य बनाम अन्य के मकडज़ाल में उलझी सैण्ड्राकोट्स की इस गुत्थी को सुलझाने में आन्ध्रयुगीन भारतीय इतिहास के परिदृश्य अत्यधिक सहायक सिद्ध होते हैं। मौर्यों के उपरान्त मगध के शासक हुये शुंग व कण्व राजवंशों के क्रम से ही आन्ध्रों का राजकुल अस्तित्व में आया था। इसी आन्ध्रवंश के एक परवर्ती राजा हाल को इलियट के संदर्भ (भाग—1 पृष्ठ संख्या—108/109) एलेक्जेन्डर का समकालिक ठहराते हैं। आन्ध्रयुग की मध्यान्ह बेला तक भारत अनेक छोटे—छोटे राज्यों में विभाजित हो चुका था। मेगास्थनीस द्वारा उल्लेखित भारत के 118 राज्यों का सन्दर्भ इस काल को ही इंगित करता है। आन्ध्रकुलीन हाल के ही काल में चन्द्रकेतु नामक प्रभद्रकों का एक पराक्रमी राजा हुआ था। यूनानी लेखकों द्वारा प्रयुक्त हुआ सैण्ड्राकोट्स का उच्चारण भी चन्द्रगुप्त की अपेक्षा चन्द्रकेतु से ही अधिक साम्यता रखता प्रतीत होता है। कुशल सैन्य—संचालन के बल पर पड़ोस के छोटे—छोटे राज्यों को जीत कर चन्द्रकेतु ने अपनी सीमाओं को उज्जयिनी तक समुचित विस्तार भी किया था। राज्य—विस्तार के इसी उपक्रम में इसका संघर्ष पश्चिम के यवनों से भी हुआ था। प्लूटार्क के अनुसार गंगा तीर के राजाओं और प्रसूईयों या प्रभद्रकों की सम्मलित शक्तियों के विपरीत निरंतर युद्धों से क्लान्त हो चुकी अपनी सेना की क्षमताओं का आंकलन करने के पश्चात् ही सिकन्दर ने विश्वविजय के अपने अभियान को स्थगित किया था। इतिहासज्ञों ने भी सिकन्दर के स्वदेश लौटने का प्रमुख कारण उसकी सेना में व्याप्त हताशा को ही माना है।
संभवत: सिकन्दर के वापस लौट जाने से उत्साहित हुई मित्र राजाओं की सेना ने बचे हुए यूनानियों को भी वापस खदेडऩे के उद्देश्य से चन्द्रकेतु के नेतृत्व में इनके स्कन्धावरों पर धावा किया होगा। इस युद्ध में पराजित यूनानी क्षत्रप सैल्युकस निकाटोर व विजयी चन्द्रकेतु के मध्य हुई सन्धि के परिणामस्वरूप सीमा— परिसीमन, वैवाहिक—संबंध व राजनयिकों की नियुक्तियों के प्रसंग उपस्थित हुये होंगे। कालान्तर में जैन—श्रमण भद्रबाहु के संसर्ग में आने के कारण प्रभद्रकों का यह प्रतापी राजा अपने पुत्र अमरकेतु को राज्यभार दे कर स्वयं सन्यस्थ हो गया (सन्दर्भ—आराधना कथाकोश)। मेगास्थनीस आदि द्वारा सैण्ड्राकोट्स के पुत्र के लिये प्रयुक्त किया गया अमित्रोकेड्स का उद्बोधन प्रकटत: अमरकेतु का ही भाषायी अपभ्रंश प्रतीत होता है। जैन आचार्य हरिषेण द्वारा रचित आराधना कथाकोश के अनुसार भी राज्य में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष के समय अपने पुत्र को राजपाट सौंपकर श्रमम—भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान करने वाला उज्जैन नरेश चन्द्रगुप्त (अथवा चन्द्रकेतु), प्रभद्रकों का ही राजा रहा था।
प्रमाण बताते है कि जैन श्रमण बन चुके इस राजा ने मैसूर स्थित श्रवण बेलगोल में निराहार व्रत का पालन करते हुये अपनी इहलीला समाप्त की थी। सिकन्दरकालीन जैन—श्रमण भद्रबाहु के कारण जोन्स मतावलम्बी इतिहासज्ञ इस घटना को चन्द्रगुप्त मौर्य से ही जोड़ते हुये उसके द्वारा अन्तिम समय में जैन धर्म अपनाने की बात स्वीकार करते हैं। जबकि कट्टर ब्राह्राण व कुशल राजनीतिक के रूप में ख्यातिलब्ध रहे आचार्य चाणक्य के इस अन्यतम अनुयायी का मात्र चौबीस वर्षों के राजनैतिक जीवन के बाद एकाएक जैन मुनि के प्रभाव में आ जाना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। वस्तुत: चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के आधे रात्रि के समय पाटलिपुत्र के राजमहल में हुए एक विस्फोट में गंभीर रूप से घायल होने के कारण हुई थी। (संदर्भ: मंजुश्री मूलकल्प श्लोक 441/442)