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इतिहास के पन्नों से

संस्कृति एवं समृद्धि के उन्नायक भारतीय व्यापारी

डॉ. शशिबाला

द्वितीय विश्व युद्ध में नष्टप्राय: हुए देश जापान ने व्यापारिक उन्नति के माध्यम से संसार के उन्नत राष्ट्रों की पंकित में खड़े होकर यह सिद्ध कर दिया है कि व्यापार से देश में शक्ति आती है और समृद्धि के माध्यम से देश के चर्तुदिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। प्राचीनकाल में हमारे देश ने अनेक देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किये थे। जो व्यापारी सुदूर देशों की यात्राएं करते थे, वे ही अनेक देश में भारतीय संस्कृति के प्रचारक बन गये। जो मार्ग हमारे व्यापारियों ने अपनाएं, वे ही सांस्कृतिक प्रसार के मार्ग भी बन गये, उन पर विशाल सांस्कृतिक केंद्रों का निर्माण हुआ, वे ही शिक्षा के केंद्र भी बने। जिन देशों के साथ व्यापारिक संबंध थे, वे देश सांस्कृतिक मित्र बन गये और वे भारत को अपना तीर्थ मानने लगे।
रेशम के व्यापार के लिए चीन ने जो पथ अपनाया वह कौशेय पथ कहलाया। कुषाणकाल में जब सम्राट कनिष्क ने अपना साम्राज्य के साथ—साथ भारत की प्राचीन लिपि में लिखे गये संस्कृत ग्रंथों के संग्रह भी पहुंचे। अनेक विहारों का निर्माण हुआ। उनकी मूर्तियों पर मथुरा की कला का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
चीन से भारत के सांस्कृतिक संबंधों का लिखित इतिहास सन् 61 ई. से प्राप्त होता है जब चीन के सम्राट मिंग ने दिव्य स्वप्र देखा। स्वप्र के विषय में विचार—विमर्श कर उसने भारत से बौद्ध विद्वानों को लाने के लिए अपने दूत भेजे। वे भारत आये और काश्यप मातंग और धर्मरक्षक नाम के दो आचार्यों को अपने साथ ले गये । वे अपने विपुल संस्कृत साहत्यि ले सफेद रंग के घोड़ों पर सवार होकर चीन पहुंचे। चीनी सम्राट ने स्वयं आकर उनका स्वागत किया। उनके रहने के लिए एक नये विहार की स्थापना करवायी। वह विहार आज तक भी श्वेताश्व विहार के नाम से जाना जाता है। उन्होंने चीन में अनेक संस्कृत ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया। इसके साथ ही आरंभ हो गयी भारतीय धर्म, दर्शन आयुर्वेद, साहित्य, संस्कार, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरण, नीति, अर्थ आदि अनेक विषयों के प्रचार—प्रसार की परंपरा।
दूसरी शताब्दी तक चीन के साथ हमारे व्यापारिक मार्ग मध्य एशिया से होकर आते थे। अत: मध्य एशिया में अनेक सांस्कृतिक केंद्रों का निर्माण हुआ। चीन में बनी तुह्रांग की जगतप्रसिद्ध गुफाएं ऐसे स्थान पर स्थित हैं जहां मध्य एशिया के उत्तर और दक्षिण से चीन जाने वाले मार्गों का संगम होता है, जहां यात्री विश्राम हेतु ठहरा करते थे, श्रद्धापूर्वक विपुल धनराशि दान किया करते थे। इन्हीं मार्गों से अकथनीय उत्साह से भरे बौद्ध विद्वान, भिक्षु धर्म प्रचार हेतु जाने लगे। मार्ग में आने वाली कठिनाइयां उनकी इच्छा—शक्ति को परास्त न कर सकीं।
कश्मीर उस समय विद्या का एक बड़ा केंद्र था जहां से धर्म—यशस ,कुमारजीव, धर्म—मित्र आदि अनेक विद्वान काशगढ़, तूर्फान और कूचा होते हुए चीन पहुंचे। बनारस से गौतम प्रज्ञारुचि, उज्जैन से राजकुमार उपशून्य और कपिलवस्तु से बुद्धभद्र गये। चीनी इतिहास में सैकड़ों भारतीय विद्वानों के इतिहास मिलते हैं जिन्होंने भारतीय ग्रंथों का चीनी में अनुवाद कर उन्हें अमर कर दिया।
संस्कृतिक उत्कर्ष के उस काल में महापुरुष की पहचान उसका धन या राजनैतिक स्थिति नहीं, अपितु विद्वता थी। गुप्तकाल में गुणवर्मन नामक एक ऐसे महापुरुष हुए जिन्हें तीस वर्ष की आयु में जब राजपद किया जाने लगा तो उन्होंने राजनीति के स्थान पर धर्म—प्रसार के मार्ग को चुना, वे अपना राज्य त्याग कर श्रीलंका चले गये और कुछ समय तक धर्म कार्य में जुटे रहे। तत्पश्चात जावा चले गये। उसे समय जावा भारतीय शिक्षा और संस्कृति का केंद्र था। वहां के राजा को उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। शीघ्र ही उनकी विद्वता और कर्मठता की ख्याति चीन तक पहुंच गयी। 424 ई. में उन्हें चीनी सम्राट ने विशेष निमंत्रण भेजा।
गुप्त युग भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। इस समय में भारतीय संस्कृति पूर्व, दक्षिण और मध्य एशिया के अनेक देशों में फैली। इसके संवाहक बौद्ध भिक्षुओं, ब्राह्राणों तथा पुरोहितों के साथ—साथ व्यापारी भी थे। इस समय चीन से भारत आने वाले भिक्षुओं की भी एक लम्बी कहानी है। इतिहास साक्षी है कि गुप्तयुग में राजनैतिक एकछत्रता के साथ—साथ व्यापारिक उन्नति हुई और व्यापारिक समृद्धि के साथ—साथ सांस्कृतिक उत्कर्ष। उज्जैन, पाटलिपुत्र, मथुरा, काशी, प्रयाग जैसे नगरों का विकास हुआ। ऐसा भी देखने में आता है कि जो नगर व्यापारिक केंद्र थे, वे राजनैतिक शक्ति के केंद्र भी बने जैसे ताम्रलिप्ति वंग की राजधानी बना क्योंकि वहां राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा विजित कलिंग प्रदेश की राजधानी कंचनपुर का भी श्रीलंका के साथ व्यापारिक संबंध था।
गुप्तयुग में थल मार्गों के अतिरिक्त समुद्री मार्ग से भी व्यापार बढ़ा। अनेक ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि समुद्री व्यापार से धन अर्जित करने का भाव लोगों में व्याप्त हो चुका था। उदाहरण के लिए द्विपांतर से सोने और रत्नों का व्यापार किया जाता था। जब व्यापारी द्वीपांतर से सोना और रत्न क्रय कर सफलतापूर्वक लौटते थे तो मंदिरों में सवा पाव से सवा मन तक सोने का दान करते थे।
सुवर्ण की खोज में भारतीय व्यापारी सुवर्ण द्वीप जाते थे। इंडोनेशिया के साथ तो भारत के व्यापारिक संबंध प्रथम शताब्दी में ही स्थापित हो गये थे। इनमें जावा, सुमात्रा आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इन द्पीपों के लिए यात्राएं हमारे पूर्वी तट के बंदरगाहों से प्रारंभ होती थीं । अत: मामल्लपुरम् ताम्रलिप्ति, कटक, पुरी,कोजीवरम, रामेश्वर, कावेरी, पट्टीनम व्यापारिक उन्नति के साथ—साथ सांस्कृतिक उत्कर्ष के केंद्र बन गये। बौद्ध धर्मावलम्बी व्यापारियों की सहायता से अमरावती, जगयपट्टे नागार्जुनकुंड आदि के विशाल स्तूप खड़े हुए। पूर्वी तट पर से चलने वाला व्यापार बौद्ध धर्म के उत्कर्ष एवं ऐश्वर्य का कारण बना। इसी भांति पश्चिमी तट पर भाजा कला और कन्हेरी नाम के महाचैत्य एवं विहार भी बौद्ध व्यापारियों की उदारता का ही परिणाम है। ये व्यापारी रोम साम्राज्य के साथ व्यापार करके धन कुबेर बन गये थे। हमारे संस्कृत साहित्य में उस युग की अनेक कथाएं मिलती हैं जिनमें हमारे उन व्यापारियों की साहसिक यात्राओं के वर्णन मिलते हैं। जो न समुद्री मार्ग में आने वाले तूफानों से डरते थे, न विस्तीर्ण मरुभूमियों की यात्राओं से थकते थे। उदाहरण के लिए मैं आपको कथासरित सागर से एक कथा सुनाती हूं। हर्षवर्धन का साम्राज्य हर्षपुर सब प्रकार से समृद्ध था। उसके एक व्यापारी का नाम था। समुद्रशूर, जो धनपति तो था ही, साथ ही साथ बड़ा साहसी भी था। एक बार वह व्यापार हेतु सुवर्णद्वीप की यात्रा पर निकल पड़ा। उस समय समुद्री यात्राएं कठिनाइयों से भी होती थीं। सुवर्णद्वीप पहुंचने से कुछ पहले ही भयंकर बादल और वायुवेग के साथ तूफान आ गया। जिस जलयान में समुद्रशूर था, व टकरा कर चकनाचूर हो गया। परंतु उसने हिम्मत न हारी और वह तैर कर किनारे जाने का प्रयत्न कर ही रहा था कि उसे तैरता हुआ एक मृत शरीर दिखाई दिया। उसने उस शरीर का सहारा लिया और सुवर्णद्वीप पहुंच गया। उस शव की धोती की गांठ में से उसे एक रत्नजडि़त बहुमूल्य हार मिला। उसे लेकर वह कलशपुर (इंडोनेशिया का आधुनिक नगर कालासान) के लिए चल दिया। कलशपुर पहुंच कर वह एक मंदिर में गया। यात्रा की थकान के कारण मंदिर पहुंचते ही उसे नीदं आ गई
राज कर्मचारियों ने समुद्रशूर को पकड़ लिया क्योंकि जो हार उसे मिला था वह राजकुमारी चक्रसेना का हाथ था। चोरी के दोष में उसे पकड़ कर राजदरबार में लाया गया। उसी समय एक चील आई और हार लेकर उड़ गई। समुद्रशूर ने बड़ा प्रयत्न किया पंरतु उसकी बातों पर किसी ने विश्वास नहीं किया औश्र उसे फांसी की सजा सुना दी गई। समुद्रशूर ने अपना दंड सुना, पर साहस नहीं छोड़ा और भगवान शिव की स्तुति करनी आरंभ कर दी। शीघ्र ही आकाशवाणी हुई कि ‘समुद्रशूर निर्दोष है। वास्तव में उसने वह हार नहीं चुराया है, अत: उसे सम्मानपूर्वक छोड़ दिया जाए।’ वहां से छूट जाने के उपरांत उसने अपने व्यापार संबंधी कार्य पूरे किये और समुद्री मार्ग से लौट गया। उसने समुद्री यात्रा के उपरांत थल यात्रा आरंभ की। मार्ग में वह पुन: विपदा में पडग़या। लुटेरों ने उसे घेर लिया और सारा धन लूट लिया। वह निराश हो पेड़ के नीचे लेट गया। अचानक उसने ऊपर चील का घोंसला देखा। उसे घोंसले में सुवर्णद्वीप वाले रत्नजडि़त हार के साथ अन्य अनेक बहुमूल्य आभूषण भी थे। उसने सारे आभूषण लिए हर्षपूर लौट गया और सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा।

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