पुस्तक समीक्षा : ‘रिश्ते बन जाते हैं’
पुस्तक समीक्षा : ‘रिश्ते बन जाते हैं’
‘रिश्ते बन जाते हैं’ – इस पुस्तक की लेखिका श्रीमती कमलेश वशिष्ठ हैं। लेखिका का यह कहानी संग्रह है । जिसमें कुल 41 कहानियों को स्थान दिया गया है। छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से लेखिका ने बहुत अच्छा संदेश देने का प्रयास किया है। कहानी ‘संयोग’ में एक परित्यक्ता की कहानी को बहुत ही संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है । इस कहानी का अंत भी विदुषी लेखिका ने बहुत अच्छे ढंग से किया है।
वे लिखती हैं -“इधर दोनों माँओं ने अपने विचार व्यक्त किए कि यदि इन दोनों के विचार मिल जाएं तो इससे अच्छी बात क्या होगी ? दोनों मांओं ने एकांत में अपने बच्चों से पूछा क्या तुम यह यह रिश्ता निभा सकते हो ? तो उन्होंने अपनी मौन स्वीकृति दे दी । आदित्य ने कहा ‘मैं रहूंगा यही अपने घर में’। सभी की सहमति के बाद दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई ।
नेहा का घर खुशियों से भर गया । आदित्य और मीनू ने एक दूसरे को समझा। हर्ष अपने नए घर में चहकता रहा ।
मुझे यह भजन शुरू से ही अच्छा लगता था -‘तू ही बिगाड़े, तू ही सवारे, इस जग के सारे काम। हे राम!’ इसका आज पूरा मतलब समझ आया। यह कैसा सुखद संयोग है ?
सचमुच विधि के विधान को कोई समझ नहीं पाता। जिस जीवन में एक क्षण में गमों का गहरा अंधकार पसर जाता है , वहीं खुशियों के उजाले भी लौट आते हैं । यह इस कहानी से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। कहीं कोई अपने ही रिश्तों से दुखी है तो कहीं अपने ही जीवन से दुखी है।अनेकों प्रकार की समस्याओं के बोझ तले दबा हुआ मानव कितने ही दुखों के पहाड़ को अपनी छाती पर लिए घूमता रहता है ? पर किसी से कुछ बोलता नहीं ।अजीब रिश्ते हैं , अजीब सी आग है और भीतर से उठता हुआ एक अजीब सा धुंआ है ।इसी से यह सारा संसार बना है। कोई रिश्तों से दुखी है, कोई आग से दुखी है, कोई भीतर से उठते हुए धुएं से दम घुटता हुआ अनुभव कर रहा है- ऐसी ही उलझनों से बनी है सारी दुनिया।
इन सारे एहसासों को अपने शब्दों के माध्यम से पुस्तक के रूप में प्रकट करके विदुषी लेखिका ने मानो अपने अनेकों प्रकार के अनुभव सांझा किए हैं। कहानियों के माध्यम से सांझा किए गए इन अनुभवों से पाठकों को जीने की एक नई शिक्षा मिलती है। नई प्रेरणा मिलती है। नया उत्साह नई उमंग मिलती है। पाठक सोचने को विवश हो जाता है कि समस्याएं आती हैं तो चली भी जाती हैं लेकिन उत्साह और आशा का संचार हमें हमेशा बनाए रखना चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि जहां अंधेरे हैं वहां सवेरा अवश्य होगा ।विदुषी लेखिका के इस पवित्र भाव के लिए वह अभिनंदन की पात्र हैं।
कहानी ‘अपना अपना भाग्य’ का अंत वह इन्हीं आशाजनक शब्दों के साथ करती हैं :- ‘अब मंजू को समझ आया कि यदि ईश्वर की कृपा दृष्टि हो तो सभी रास्ते आसान हो जाते हैं और अपने भाग्य तथा अक्षय के सहयोग से वह अपनी गृहस्थी में खुश थी। नित्य प्रभु को धन्यवाद देती तथा जीवन में आगे बढ़ती गई।’
कुल 128 पेजों में यह 41 कहानियां पूर्ण की गई हैं। पुस्तक का मूल्य ₹200 है ।पुस्तक के प्रकाशक साहित्यागार धामाणी मार्केट की गली चौड़ा रास्ता , जयपुर 302003 है।
पुस्तक की प्राप्ति के लिए 0141 -2310785, 4022382 पर संपर्क किया जा सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य