आसाम का गौरव
अब एक बार पुन: चलते हैं आसाम की ओर। जी हां, यह वह स्थान है जिसके विषय में हम पूर्व में भी बता चुके हैं कि भारत का यह प्रांत एक दिन भी किसी मुस्लिम सुल्तान या बादशाह का गुलाम नही रहा। यह एक इतिहास है और एक ऐसा इतिहास है जिस पर गौरव की अनुभूति होती है।
प्राग्ज्योतिषपुर से असम तक
असम को प्राचीन काल में प्राग्ज्योतिषपुर कहा जाता था। असम का अर्थ विद्वानों ने जिसकी कोई समता न हो, जो सर्वदा अपराजेय रहे और विषम (अ+सम=समतल नही है जो) भूमि वाला लिया है। संभव है कि दिन का शुभारंभ यहीं से होने के कारण हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस क्षेत्र को ज्योतिष और ज्योतिष संबंधी ज्ञान विज्ञान का केन्द्र बनाया था। इसलिए इसे प्राग्ज्योतिषपुर का सार्थक नाम दिया गया। यह भी मान्यता है कि रामायणकाल में कुश के पुत्र अमुर्थराज ने कामरूप राज्य की स्थापना की थी। उसके पश्चात अमुर्थराज की पीढिय़ों ने यहां शासन किया। इस काल में यहां वैदिक संस्कृति का दिव्य-दिवाकर अपनी पुण्य आभा से जग को आलोकित करता रहा और असम भारत के ज्योतिष शास्त्र के एक प्रमुख गढ़ के रूप में स्थापित हो गया।
महाभारतकालीन नरकासुर
महाभारत काल में यहां नरकासुर राज्य करता था। इसी नरकासुर का पुत्र भगदत्त था, जिसका राज्य उस समय तिब्बत भूटान और ब्रह़मा (बर्मा) तक फैला हुआ था। इसी भगदत्त के नेतृत्व में चीन के शल्य की सेना ने महाभारत के युद्घ में भाग लिया था। पश्चिमी कामरूप कभी मौर्य साम्राज्य में भी सम्मिलित रहा, जबकि गुप्तकाल में यहां पुष्यवर्मा का शासन रहा। 643 ई. में यहां भास्कर वर्मा का शासन था। इसी भास्कर वर्मा के शासन काल में यहां हवेन सांग (चीनी यात्री) आया था।
असम का हिंदू शासक संध्या
आसाम ने 1205 ई. में नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाले बख्तियार खिलजी को हराकर अपना इतिहास बनाया था। जिसका उल्लेख हम प्रसंगवश पूर्व में कर चुके हैं। जब दिल्ली की सल्तनत स्थापित होकर हिंदुस्तान को अपने झण्डे तले लाकर इसके धर्म संस्कृति और क्षात्रशक्ति का पददलन करने के लिए प्रतिक्षण कोई न कोई दुष्ट उपाय खोज रही थी, तभी की बात है कि 1228 ई. में असम का शासन हिंदू राजा संध्या के हाथों में था। उसे भली प्रकार ज्ञात था कि 1205 ई. में आसाम की धरती ने हिंदुत्व के हत्यारे और संस्कृति के भक्षक खिलजी की क्या दुर्दशा की थी? इसलिए वीरता और शौर्य में संपन्न इस राजा के हृदय में भी भारत के शासकों की परंपरागत धर्मशक्ति, ईश्वर भक्ति और राष्ट्रभक्ति की त्रिवेणी बह रही थी, जो उसे निज राष्ट्र के लिए कुछ करने की प्रेरणा देती थी।
संध्या ने हराया नासिरूद्दीन को
इस शासक के समय में दिल्ली के सुल्तान इल्तमश के पुत्र नासिरूद्दीन महमूद ने 1228 ई. में आसाम पर आक्रमण कर दिया। नासिरूद्दीन भूल गया था कि आसाम की वीरभूमि ने किस प्रकार खिलजी का प्राणांत कराके ही सांस लिया था। उसके आक्रमण का तब आसाम के शासक संध्या ने सफलतापूर्वक सामना किया, कितने ही हिंदूवीरों ने अपना बलिदान दे दिया, पर आसाम की एक इंच भूमि शत्रु को नही दी। सचमुच एक-एक इंच भूमि के लिए घोर संघर्ष हुआ, पर सफलता भारत माता के सपूतों को ही मिली, अर्थात हिंदुत्व के धर्म ध्वजवाहक विजयी रहे। राजा संध्या ने न केवल नासिरूद्दीन को परास्त किया अपितु उसका वध करके शत्रु को सदा-सदा के लिए ही समाप्त कर दिया।
शत्रु का अंत करना दूरदर्शिता थी
संध्या का यह एक दूरदर्शी निर्णय था, कि उसने शत्रु को युद्घ क्षेत्र में ही परास्त कर दिया। क्योंकि ऐसे कई अवसर आये जब हमारे शासकों ने हाथ में आये शत्रु को बिना उसके प्राण लिये छोड़ दिया। जैसे राणा हम्मीर ने 1326 ई. में दिल्ली के बादशाह मुहम्मद तुगलक को सिंगौली के समीप परास्त कर बंदी बना लिया था और दिल्ली उस समय राजा विहीन थी। यदि हम्मीर शत्रु का अंत कर दिल्ली पर अधिकार कर लेता तो उसे कोई रोकने वाला नही था। इसी प्रकार 1433 ई. में मेवाड़ के राणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान को परास्त कर बंदी भी बना लिया और पूरे छह माह अपने बंदी ग्रह में रखा, पर बाद में उसे यूं ही छोड़ दिया। यदि राणा भी उस समय मालवा को अपने आधीन कर लेता तो भारत का इतिहास भी कुछ और ही होता। ऐसे ही और भी उदाहरण हैं। कहने का अभिप्राय केवल ये है कि राजा को शत्रु के प्रति सदा भविष्य को दृष्टि में रखकर ही निर्णय लेना चाहिए।
गयासुद्दीन बढ़ा असम की ओर
आसाम की भूमि को सुल्तान गयासुद्दीन उजबेग ने 1255 ई. में पददलित करने हेतु आक्रमण किया। उजबेग का आक्रमण ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे पर आगे बढ़ते हुए कामरूप पर किया गया। उजबेग निस्संकोच आगे बढ़ रहा था, भारत की इस वीर भूमि का शासक उस समय भी संध्या ही था। संध्या की ओर से कोई प्रतिरोध होता न देखकर उजबेग का मनोबल बढ़ता जा रहा था, जो उसे निरंतर आगे बढऩे की प्रेरणा दे रहा था।
संध्या ने शत्रु को भ्रमित कर दिया
उधर आसाम का युद्घ प्रवीण शासक संध्या असम के राजाओं की परंपरागत युद्घ शैली को अपनाते हुए शत्रु को निरंतर आगे बढऩे दे रहा था, उसने शत्रु को अपनी योजना की कोई भनक नही लगने दी। इसके विपरीत उसे इस भ्रांति में रखा कि जैसे उसका प्रतिरोध करने की क्षमता अब आसाम की भूमि में नही रही है।
शत्रु को कर दिया परास्त
जब शत्रु अपेक्षानुरूप जाल में फंस गया तो संध्या ने अपनी सेना को पूर्ण प्रबलता से प्रहार करने का संकेत दे दिया। हिंदूवीरों की योजना सफल रही। शत्रु सारी चतुराई भूल गया और उसे हिंदू वीरों के जाल से निकलने का कोई मार्ग भी नही सूझा। मूर्ख शत्रु संध्या के चक्रव्यूह में पड़ा-पड़ा छटपटा रहा था। उसकी सारी सेना ने समर्पण कर दिया था। इससे पूर्व आसाम की धरती ने शत्रु के रक्त से अपनी प्यास बुझाई और शत्रु सेना के प्रमुख उजबेग का भी वध कर दिया गया। इस प्रकार एक और शत्रु ने असम की धरती पर आकर संसार को विदा कह दिया। उजबेग का सारा परिवार भी संध्या के द्वारा बंदी बना लिया गया था। असम की धरती धन्य हो गयी, क्योंकि संध्या ने ब्रह्मबल (बुद्घिबल) और क्षात्रबल (बाहुबल) की ऐसी अदभुत संधि करा दी थी कि थोड़े से अंतराल में ही आसाम की धरती पर दो प्रबल शत्रुओं का आकर अंत हो गया था।
आसाम के अहोम शासकों का काल
आसाम 13वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्घ में अहोम शासकों ने अपने आधिपत्य में लेना आरंभ किया। अहोम मूलत: शान जाति के थे। उस समय आसाम में बोडो जाति के लोगों का शासन था। अहोम लोग उत्तर बर्मा से यहां आये। अहोम वंश के संस्थापक सुकाफा ने 1228 ई. में असम के पूर्वी भाग पर आक्रमण कर बड़े क्षेत्रफल पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।
असम की सीमाओं में वृद्घि की
इन अहोम शासकों ने अपना शासन दूर-दूर तक स्थापित किया। उन्होंने आसाम को कभी के प्राग्ज्योतिषपुर के वैभव में ले जाने का प्रयास किया। बड़ी सावधानी से इन वीर शासकों ने अपनी योजना को मूत्र्तरूप देना प्रारंभ किया। उन्होंने बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन तक अपनी सीमाएं बढ़ा लीं अब मुसलमानों को अपने राज्य पर आक्रमण करने से रोकने की बारी थी। अत: इसके लिए भी इन शासकों ने जिस योग्यता और बुद्घिमत्ता का परिचय दिया उससे मुस्लिम सुल्तान को इन शासकों के आक्रमणों को रोकने में असफलता ही हाथ लगी।
मुहम्मद तुगलक ने भी किया था असफल प्रयास
मुहम्मद तुगलक के विषय में हम पूर्व में बता चुके हैं कि वह एक ऐसा शासक था जो अपनी योजनाओं के कारण इतिहास में उपहास का पात्र रहा है। उसने भी असम के इस अपराजित क्षेत्र को अपने आधीन लाने का प्रयास अपने शासन काल में किया था। बात 1333 ई. की है। दिल्ली सल्तनत अपने अत्याचारों से उस समय हिंदुस्तान को पूर्णत: हिला रही थी। तब दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के मन मस्तिष्क में असम को अपने आधीन करने की महत्वाकांक्षाएं जन्म लेने लगीं। यद्यपि उसके समक्ष पूर्व में उन शासकों के कटु-अनुभवों का इतिहास भी था जो असम में सफल नही हो पाये थे और असम की असमता (ऊंची नीची पहाडिय़ों) में ही अपना जीवनान्त कर गये थे।
पर कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि मनुष्य अपने पूर्ववत्र्तियों के कटु अनुभवों को सुखद अनुभूति में परिवर्तित करने के लिए और इस प्रकार एक इतिहास बनाने के लिए भी किसी पूर्ववर्ती के अनुभवों से कुछ सीखने का प्रयास नही किया करता है। सौ में से पिच्चानवें प्रतिशत लोग गतानुगतिक स्थिति के भंवर जाल में फंस जाते हैं, मात्र पांच प्रतिशत लोग किसी के अनुभवों से कुछ सीखने का प्रयास करते हैं। अत: मुहम्मद बिन तुगलक ने भी जगत की रीति का ही अनुकरण किया और वह एक लाख की बड़ी भारी सेना लेकर असम की ओर चल दिया। उसने कामरूप राज्य पर आक्रमण किया।
कामरूप का शासक दुर्लभ नारायण सिंह
उस समय कामरूप का शासक दुर्लभ नारायण सिंह था। वह वीरता में ‘दुर्लभ,’ धर्म परायणता में ‘नारायण’ और शौर्य में ‘सिंह’ था। उसने समय को पहचान लिया और बड़ी विनम्रता से अहोम शासक से उसकी सेना का सहयोग प्राप्त करने में भी राजा दुर्लभ नारायण सिंह सफल रहा। राजा ने सुल्तान की सेना का सामना राज्य की सीमा पर ही किया। अनेकों राष्ट्रभक्त हिंदू वीरों ने अपना बलिदान दिया और शत्रु के प्राण ले लेकर उसे यमराज का ताण्डव दिखाने लगे। शत्रु सेना हिंदू वीरों की इस अदभुत वीरता को देखकर भाग खड़ी हुई। इसके पश्चात मुहम्मद बिन तुगलक जीवन भर अपने घावों को सहलाता रहा और पुन: कभी असम जाकर वहां अपना झण्डा फहराने का प्रयास उसने नही किया। जो दूसरों के अनुभवों से शिक्षा नही लेते हैं, उन्हें अपने अनुभव बहुत कुछ सिखा जाते हैं।
राजा शुक्रांक ने हराया गयासुद्दीन को
1400-1415 ई. का काल असम के शुक्रांक नामक शासक का काल है। यह शासक भी एक अच्छा प्रजाहित चिंतक और राष्ट्र प्रेमी शासक था। उसके काल में बंगाल के शासक सुल्तान गयासुद्दीन आजमशाह ने कामरूप पर आक्रमण किया था। राजा शुक्रांक ने उस समय दुर्लभ नारायण सिंह के उदाहरण का अनुसरण किया और उसने अहोम के राजा से सहायता का निवेदन किया। अहोम के शासक ने कामरूप के अधीश्वर के निवेदन को अपना परम कत्र्तव्य और राष्ट्रभक्ति का परिचायक मानकर सहजता से स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप कामरूप और अहोम की सम्मिलित सेनाओं ने आजमशाह को परास्त कर भगा दिया।
असम ने पुन: अपनी अपराजेयता स्थापित की और अपनी स्वतंत्रता को हड़पने के एक गंभीर प्रयास को पुन: असफल कर दिया।
वीर सावरकर का कथन है….
ऐसे वीर शासकों के वीर कृत्यों और उनके द्वारा स्वतंत्रता के लिए किये गये अथक प्रयासों को देखते हुए ही वीर सावरकर ने लिखा है-‘‘कोई भी विदेशी सत्ता संपूर्ण भारत पर कभी भी अधिकार न कर सकी। भारत पर सिकंदर का आक्रमण, ‘भारत पर शकों का आक्रमण’ इस प्रकार के वाक्य पढ़ते ही सर्व सामान्य विदेशी अथवा भारतीय पाठक की यही धारणा बनती है कि मानो इस विदेशी शत्रु ने संपूर्ण भारत पर आक्रमण करके उसकी स्वतंत्रता का अपहरण कर लिया हो। ऐसी भ्रांत धारणा के कारण अनेक शत्रु और विदेशी आक्षेप लगाते हैं कि भारतीय राष्ट्र अर्थात हिंदू राष्ट्र का संपूर्ण जीवन विदेशियों की दासता में ही व्यतीत हुआ है। यह आक्षेप सर्वथा निराधार तथा शरारत पूर्ण है।
नेपाल से लेकर पूर्व समुद्र तक संपूर्ण भारत एवं दक्षिण भारत अर्थात भारत खण्ड का 3/4 सुविशाल भाग इन 1300 वर्षों की प्रदीर्घ अवधि में पूर्णत: स्वतंत्र रहा है। भूभाग अथवा सिंधु मार्ग से उस पर कोई भी विदेशी आक्रमण नही हो सके।
शेष बचे हुए भारत के एक चौथाई पश्चिमोत्तर भाग में जो विदेशी आक्रमण हुए उनमें एक बार यवन शत्रु अवश्य ही पंजाब से अयोध्या तक आगे बढऩे में सफल हो गया था। साथ ही कुछ काल तक पंजाब से गुजरात तक की पश्चिमोत्तर पट्टी भी शक कुशाणों के अधिकार में चली गयी थी। हूण तो किसी प्रकार पंजाब से उज्जयिनी तक ही आ सके थे। इन सब आक्रमणकारी शत्रुओं की हिंदू राष्ट्र ने कैसी दुर्गति की, यह इतिहास के पृष्ठों में है।’’
(संदर्भ भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ भाग-1 पृष्ठ 118)
असम का इतिहास वंदनीय है
आसाम की पावन भूमि इसी बात की साक्षी दे रही है कि उसने विदेशी आक्रांता की किस प्रकार दुर्गति कर डाली थी? इतिहास का कोई जिज्ञासु विद्यार्थी जब-जब भी मां भारती पर असम के ऋणों पर चिंतन करेगा तो वह असम को और उसकी वीरता, विजय और वैभव के दीर्घकालीन इतिहास को नमन करना नही भूलेगा। असम को देखकर तो वीर सावरकर केे उक्त कथन का अगला भाग चाहे देश के किसी अन्य भाग पर अक्षरश: लागू हो या न हो पर उस पर तो लागू होता ही है। वीर सावरकर आगे कहते हैं-‘‘यवन शक, हूण आदि विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार केवल भारत ही बना हो, ऐसी बात नही है। इनमें से कुछ ने तो अपने समय के विश्व के अधिकांश राज्यों को उदध्वस्त ही कर डाला था।
हिंदू राष्ट्र का भी उसी प्रकार नामोनिशान मिटाने की आकांक्षा लेकर प्रचंड शस्त्र बल और असीम संख्याबल के साथ वे भारत पर टूट पड़े। परंतु हिंदू राष्ट्र ने इन सभी यवन, शक, कुषाण, हूणादिक सशस्त्र आक्रमणकारियों को रणाग्नि में भस्मसात करके, फिर उनकी म्लेच्छीय बर्बरता को यज्ञाग्नि में शुद्घ करके उन्हें आत्मसात कर डाला। यहां तक कि भारत को नामशेष करने के लिए आये हुए इन शत्रुओं का अस्तित्व ही नही नाम तक शेष नही रहने दिया।’’
संत शंकर देव ने फैलाया हिंदू-धर्म
असम की पावन धरती को वीरों ने ही सुशोभित किया हो ऐसा नही है। यहां अध्यात्म शक्ति के संत पुरूषों ने भी समय-समय पर ज्ञान और धर्म की ज्योति जलाये रखी। इसके प्राग्ज्योतिषपुर नाम से ही यह सिद्घ है, पर हम सल्तनत काल में यहां एक अन्य विभूति के दर्शन पाते हैं, जिनका नाम था संत शंकर देव। इनका काल 1449 से 1568 ई. माना गया है।
समाज की गति को सही दिशा देने के लिए संतों, ऋषियों, महर्षियों का मार्गदर्शन भारत को प्राचीन काल से मिलता रहा है। यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो भारतीय संस्कृति अपने मौलिक स्वरूप में ऋषि संस्कृति है। ऋषि चिंतन का अधिष्ठाता होता है, और चिंतन ही किसी परिवार, समाज और देश को सही दिशा और दशा प्रदान किया करता है। इसलिए इस ऋषि संस्कृति में राजा से भी उच्चासन ऋषि को दिया गया है।
शंकर देव ने अपने काल में हिंदू धर्म में व्यापक सुधारों का कार्यक्रम चलाया। उन्होंने इस बात को बड़ी गहराई से समझा कि धर्म के मौलिक स्वरूप में यदि जंग लग गया तो परिणति में वह लोकोपकारी और लोकोपयोगी नही रह पाता है। जब इस्लाम अपने प्रचार-प्रसार के लिए देश के हर क्षेत्र में सक्रिय था, तब शंकर देव का मार्गदर्शन मिलना इस प्रांत के लिए सौभाग्य की बात थी।
संत की राष्ट्रवादी योजना
शंकर देव ने वैष्णव मत का व्यापक प्रचार अभियान चला कर उसे प्रमुखता प्रदान करायी। इसके लिए उन्होंने मठ और नाम जपने के लिए केन्द्र स्थापित किये जिन्हें नामधर कहा जाता था। संत शंकर देव ऐसे संत थे जिन्होंने भारतीय समाज में जातिबंधन को तोडऩे की दिशा में भी उस समय ठोस पहल की। इसलिए उनके सदप्रयासों और उचित मार्गदर्शन के कारण नामधारी केन्द्रों और मठों में प्रत्येक हिंदू को प्रवेश करने की सुविधा थी। जातीय आधार पर किसी भी समुदाय को मठादि में प्रवेश पाने से अवरूद्घ नही किया जाता था। इस प्रकार के कार्यों ने हिंदुओं में जातीय एकता का भाव उत्पन्न किया और मुस्लिम आक्रमणों का एकता के साथ विरोध करने का साहस उन्हें दिया।
तर्क संगत अभियान
संत शंकर देव का यह ‘जाति तोड़ो अभियान’ एक प्रकार से मुस्लिमों के उस मिथ्या प्रचार का उत्तर था जिसमें वह यह बात प्रचारित कर रहे थे कि उनके यहां कोई जाति बंधन या ऊंच नीच नही है। समय की परिस्थितियों और सृष्टि के वैज्ञानिक नियमों के आधार पर संत शंकर देव का यह अभियान तर्क संगत था, जिसके सार्थक परिणाम सामने आये और हिंदू समाज हिंदू के श्रेष्ठता बोध से भर उठा।
आक्रामक तुर्बाक और हुसैन भी मारे गये
असम की पावन धरती पर अगला प्रमुख आक्रमण मुस्लिम सेनापति तुर्बाक और हुसैन ने किया। उनका आक्रमण 1533 ई. में अहोम शासक सुहुम्भुंग की के शासन काल में किया गया। अहोम के राजा सुहुम्भुंग की और कचारी की सेनाओं ने मिलकर इस आक्रमण का प्रतिरोध करने का प्रशंसनीय निर्णय लिया और अपनी एकता का पुन: आसामी परंपरागत शैली में परिचय दिया। शत्रु को भारी हानि तो उठानी पड़ी ही, साथ ही पराजय का मुंह भी देखना पड़ा। यहां तक कि तुर्बाक और हुसैन नामक दोनों मुस्लिम सेनापति भी मारे गये। इस प्रकार आसाम ने पुन: अपनी वीरता का परिचय दिया और इस्लामिक सोच को यहां पैर पसारने से रोकने में सफलता प्राप्त की।
पराजित सेना जब भागने लगी तो उसके 28 हाथी तथा 850 घोड़ों के साथ-साथ बहुत सी तोपें भी राजा की सेना के हाथ आ गयीं।
एक और अच्छी पहल
असम को अपनी अस्मिता की रक्षार्थ कई युद्घ लडऩे पड़ चुके थे, और इसके उपरांत भी संकट यथावत और निरंतर बना रहता था। इसलिए उस संकट के स्थायी समाधान की दिशा में सोचा जाना भी आवश्यक था। इस ओर भी राजा सुहुम्भुंग ने अनूठी पहल की।
राजा बंगाल के मुस्लिम शासकों के उद्देश्यों को परख रहा था, और उससे वह सशंकित भी था। इसलिए उड़ीसा के महाराजा विक्रमसेन के साथ मिलकर वीर हिंदू राजा सुहुम्भुंग की ने एक ऐसा सैन्य गठजोड़ तैयार किया जिसका उद्देश्य मुस्लिम आक्रमणों का प्रतिरोध करना था। राजा का यह प्रयास सार्थक रहा और इस गठजोड़ के कारण न्यून से न्यून तीन मुस्लिम आक्रमणों को असफल करने में उसे सफलता मिली।
छल से बंदी बनाया राजा नीलाम्बर बच निकला
जब मुस्लिमों ने देखा कि किसी भी प्रकार से असम पर नियंत्रण किया जाना असंभव हो रहा है तो उन्होंने अपने परंपरागत छल युद्घ का सहारा लिया। बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन का शासन काल 1493 से 1519 ई. माना गया है। उसने अपने काल में असम पर आक्रमण किया और जब वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका तो उसने राजा नीलाम्बर (1480-1498 ई.) के पास संदेश भिजवाया कि राजा की रानी मुस्लिम सरदारों की बंग में भेंट करना चाहती है।
राजा ने यदि हां कर दी तो इस भेंट के पश्चात मुस्लिम सेनाएं लौट जाएंगी। राजा ने इस प्रस्ताव को मान लिया। सुल्तान ने पालकियों में मुस्लिम सैनिक भेजकर राजा को छल से बंदी बनवा लिया।
राजा नीलाम्बर अपने बुद्घि बल और साहस से मुस्लिमों के चंगुल से बचकर भाग निकला। तत्पश्चात नीलाम्बर ने एक बड़ी सेना एकत्र कर मुस्लिम सेना पर आक्रमण किया। शत्रु सेना चारों ओर से घेरकर मारी गयी। अधिकांश मुस्लिम सैनिक मार दिये गये थे, जो बचे थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस प्रकार असम ने पुन: एक बार अपने गौरव को दोहराया और इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों का एक अध्याय ही जोड़ दिया।
परंपरा आगे भी यथावत रही
असम की यह बलिदानी और वीर परंपरा आगे भी यथावत चलती रही। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में अहोम राजा रूद्रसिंह ने पूर्वी भारत के हिंदू राजाओं का एक संघ बना लिया था, जिसका उद्देश्य तत्कालीन मुगल बादशाहत का संयुक्त रूप से प्रतिरोध करना था। अपने इस पवित्र उद्देश्य में राजा रूद्रसिंह और उनके साथी सफल भी रहे। औरंगजेब ने अपने शासनकाल में असम पर बारहवीं बार आक्रमण कराया था। इस सेना का नेतृत्व भी दुर्भाग्य से राजा रामसिंह कर रहा था जो औरंगजेब के लिए असम को जीतना चाहता था। राजा रूद्रसिंह और उनके संगठन के सभी साथी आपत्ति की आहट को भांप गये थे और उन्होंने संगठित तैयारी करनी आरंभ कर दी। जैसे ही राजा रामसिंह का असम की पावन धरती पर पहुंचने का संदेश इन राजाओं को मिला, उनकी संयुक्त सेना ने गोवाहाटी के निकट तराई घाट पर पहुंच कर मुगल सेना को घेर लिया। घोर संग्राम हुआ। यह घटना 1670 ई. की है। अहोम राजा का सेनापति लाचित बडफूकन था जिसने अपने सफल सैन्य संचालन एवं युद्घ कौशल से मुगल सेना को परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया।
राजा रत्नध्वज ने भी हराया मुस्लिम सेना को
इसके पश्चात भी अहोम राजा रत्नध्वज ने मुस्लिम सेना को रंगमाटी में युद्घ में परास्त किया। असम पर अंतिम मुस्लिम आक्रमण 1692 ई. में हुआ, उस समय भी शत्रु सेना को परास्त होना पड़ा था, और अहोम राजा ने मुस्लिमों को आसाम से बाहर खदेड़ दिया था। इसके पश्चात मुस्लिम शासकों ने असम की ओर जाने का विचार भी त्याग दिया।
पाठक वृन्द! क्या गर्वीला और गौरवशाली इतिहास है अपने असम का। यदि इस इतिहास को आज हमारे विद्यालयों में पढ़ाया जाए तो निश्चत ही पूर्वोत्तर भारत में चल रहा अलगाववादी आंदोलन स्वयं ही मर जाएगा।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत