गतांक से आगे….
प्रस्थानत्रयी के प्रधान साहित्य उपनिषद की विशेष रीति से और दूसरे साधारण साहित्य गीता की साधारण रीति से आलोचना हो गई। दोनों साहित्य में आसुरी सिद्धांतों का मिश्रण सिद्ध हो गया। अब उक्त दोनों पुस्तकों के आसुरी सिद्धांतों को दार्शनिक रूप देने के लिए जो वेदान्तदर्शन नामी नवीन दर्शन गढ़ा गया है, उसकी भी आलोचना कर लेना चाहिए। वेदान्तदर्शन – उत्तरमीमांसा – ब्रह्मसूत्र आदि शब्द एक ही ग्रंथ के वाचक हैं यह प्रसिद्ध है कि यह सूत्र भी वेदव्यास के ही रचे हुए हैं। पर हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक साद्यन्त वेदव्यासकृत नहीं है। शायद इस बात में हम भूलते हो, तो इसमें तो कुछ संदेह ही नहीं है कि, इसमें वेदव्यास की रचना बहुत थोड़ी है।रायबहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य एम.ए. महाभारतमीमांसा के पृष्ट 55 पर लिखते हैं कि ‘ब्रह्मसूत्र नामक भी कोई ग्रंथ रहा होगा और वह वेदान्तसूत्रों में शामिल कर दिया होगा’ इससे पाया जाता है कि समग्र ब्रह्मसूत्र वेदव्यासकृत नहीं है। इसलिए वेदान्तदर्शन के अधिकांश स्थल वेदानुकूल नहीं है ‘शास्त्रयोनित्वात’ यह एक सूत्र है, जो ईश्वरसिद्धि के लिए इसमें दिया गया है। इसका मतलब यह है कि ईश्वर न होता, तो संसार में ज्ञान कैसे आता ? दूसरी दलील ‘जन्माद्यस्ययतः’ की दी गई है। इसका मतलब यह है कि यदि ईश्वर न होता, तो संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय कैसे होती ? बस, यही दो सूत्र ईश्वरसिद्धि के लिए हैं। इनमें वेदों की कोई बात नहीं है। इसके आगे तीसरी दलील यह है कि ‘तत्तु समन्वयात’ अर्थात उसका समन्वय होने से – वर्णन होने से- उसका अस्तित्व है। ब्रह्मसूत्रों में समन्वय के जितने प्रमाण उद्धृत किए गए हैं, वे सब उपनिषद और गीता के ही हैं। उपनिषद और गीता के भी अधिकतर वही स्थल उद्घधृत हुए हैं,जो आसुर हैं, वेद से कुछ भी उद्धृत किया गया है। यदि कहीं वेदों का जिक्र आया है, तो भाष्यकारों की ओर से आया है,मूलग्रंथ की ओर से नहीं। ऐसी दशा में उसे वेदानुकूल कैसे कह सकते हैं ? जो ग्रन्थ जिसके अनुकूल होता है, वह उसकी बात अवश्य कहता है, पर यहां तो उपनिषदों के शब्दों की व्याख्या से ही सारा ग्रंथ भरा हुआ है और वेदों का नाम तक भी नहीं है। इस ग्रन्थ ने उपनिषदों की श्रुति और गीता को स्मृति बनाने में बड़ा जोर लगाया है। इससे असली श्रुति और स्मृति की मान-मर्यादा का ह्रास हुआ है। क्योंकि जो उपनिषद और गीता वेदो और ब्राह्मणों का तिरस्कार करते हैं, उन्हीं की श्रुति और स्मृति बताने वाला यह ग्रंथ वेदों के अनुकूल कैसे हो सकता है?
वेदान्तदर्शन की वेदविरुद्धता इस बात से भी प्रतीत होती है कि, उसमें सब दर्शनों का – न्याय, वैशेषिक, योग, संख्या,मीमांसा का खण्डन है। शंकराचार्य ने वेदान्त के सूत्रों से ही समस्त दर्शनों का खण्डन किया है। परन्तु हम देखते हैं कि, वैशेषिक आदि दर्शन वेदों को बुद्धिपूर्वक बतलाते हैं, इसलिए वे वेदानुकूल हैं, पर उनका खण्डन करने वाला वेदों के अनुकूल कैसे हो सकता है? योगदर्शन पर वेदव्यास ने भाष्य किया है। यदि योगदर्शन खण्डन करने के योग्य होता, तो वे उसका भाष्य क्यों करते? इससे तो यही सूचित होता है कि योग का खण्डन करने वाला वेदान्तदर्शन वेदव्यास की रचना भी नहीं है। क्योंकि यदि वह वेदव्यास की रचना होती, तो उसमें बौद्वों के सिद्धान्त का खण्डन न होता। परन्तु वेदान्तदर्शन में बौद्धों के उभय समुदाय का खण्डन है, इससे वह वेदव्यासकृत नहीं है। बौद्ध शास्त्रों का स्वाध्याय करने वाले जानते हैं कि, बौद्ध धर्म के चार भेद हैं। इन चारों में से दो दल ज्ञानादिक पदार्थों को क्षणिक मानते हैं। ये दोनों दल संसार में दो प्रकार के समुदाय मानते हैं। पहिले समुदाय में भूमि, जल ,तेज और वायु के परमाणु सम्मिलित हैं और बाह्म समुदाय कहलाते हैं। दूसरे समुदाय में रूप, विज्ञान,संज्ञा और संस्कार के पांच स्कन्ध सम्मिलित हैं और अन्त: समुदाय कहलाते हैं। यही दोनों समुदाय इस सृष्टि का कारण बतलाए जाते हैं और इन्हीं दोनों समुदायों पर वेदान्तदर्शन 2/ 2/ 18 में ‘समुदाय उभहेतुकेऽपि तदप्राप्ति:’ सूत्र की रचना हुई है। इस सूत्र का अर्थ यह है कि दोनों समुदायों के जड़ होने के कारण उन दोनों से संसार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस वर्णन से स्पष्ट हो गया कि वेदान्तदर्शन वेदव्यासकृत नहीं है। क्योंकि वेदव्यास के पंद्रह सौ वर्ष बाद बुद्व भगवान का जन्म हुआ है और उनके 400सौ वर्ष बाद बौद्वों में चार प्रकार के सम्प्रदायों का विस्तार हुआ है। ऐसी दशा में ये सूत्र व्यासकृत कैसे हो सकते हैं ?
क्रमशः