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आचार्य श्री विष्णु गुप्त
धनपशु भी गजब के होते हैं, उन्हें ज्ञान से नफरत होती है। एक प्रसंग बहुत ही रोचक है। हुआ यह कि मेरे एक जानने वाले धनपशु हैं। वे मुझसे हमदर्दी हमेशा जताते रहते थे। मेरे फकर स्वभाव को देख कर वह बहुत दूख भी जताते थे, कहते थे कि आपने अपनी जिंदगी को इतना कष्ट में क्यों डाला है। मैं उनके इस प्रश्न पर कहता था कि मेरी मर्जी, मैंने ऐसी ही अपनी जिंदगी चुनी है, फिर कष्ट किस बात का, फकर जिंदगी में प्रसन्न रहना मेरा स्वभाव है।
एक दिन वह धनपशु मेरे कमरे पर आ धमके। मेरे कमरे मैं फैले अखबार और पुस्तकों की भरमार देख कर नाराज हो गये, कहने लगे कि ये सभी अखबार और पुस्तकों को कबाड़ी को बेच क्यों नहीं देते हैं, इसे संभाल कर रखना क्यों? मुझे उनकी बातों पर बहुत ही गुस्सा आया। पर मैं उन्हें मूर्ख, नासमझ और बुद्धिहीन जान कर माफ कर दिया। मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि आप जिन पुस्तकों को कबाड़ कह रहे हैं वे पुस्तकें मेरी जिंदगी, मेरा धरोहर है, मेरी विरासत है, मेरी पहचान है। मेरा जवाब थोड़ा सा रूखा था। मेरे रूखे जवाब ने उनके मुंह पर ताले लटका दिये।
फिर कुछ देर खामोश रहे। मैंने उनसे पूछ लिया, कैसे आना हुआ? उसने हिचकते हुए कहा कि ऐसे ही आपकी जिंदगी देखने के लिए आ गया। मैंने कहा कि चलिए ठीक है, मेरी जिंदगी तो आपने देख ही लिया, अब मुझे आप कबाड़ का व्यक्ति कह सकते हैं, ऐसी ही धारणा लेकर आप यहां से जायेंगे? यहां आने के लिए आपको धन्यवाद।
फिर उन्होंने कहा कि मैं आपकी आर्थिक मदद करना चाहता हूं। मैंने पूछा कि आर्थिक मदद किस प्रकार की। उन्होंने कहा कि मैं आपको पैसे देना चाहता हूं। मैंने यह नहीं पूछा कि वे कितने पैसे देने वाले हैं, पर वे करोड़पति हैं।
मैंने उनसे कहा कि मैं किसी से नकद पैसे नहीं लेता हूं। मैं लेखनी के लिए ही पैसे लेता हूं। मैं किसी की दया पर जिंदगी नहीं जीता हूं। आप कुछ हजार रूपये की मदद करेंगे, उससे मेरी जिंदगी नहीं चलेगी, मुझे अपने ज्ञान के श्र्रम पर ही जिंदगी चलानी है।
फिर मैंने उनसे कहा कि अगर आप मुझे आर्थिक मदद करना ही चाहते हैं तो फिर मेरी कुछ पुस्तकें खरीद लीजिये। मेरी कई प्रकाशित पुस्तकें हैं, उन्हें पहले से ही मालूम है। उन्होंने पूछा कि आपकी पुस्तकों के मूल्य कितने है? मैंने कहा कि मेरी सभी पुस्तकों के मूल्य एक-एक हजार है। मूल्य सुनकर धनपशु महोदय के होश उड़ गये।
फिर उन्होंने दुनिया भर की बातें की। पर पुस्तक खरीदने की बातें नहीं की। मैंने पूछा कि क्या पुस्तके अपने साथ ले जायेंगे? उन्होंने कहा कि अभी रहने दीजिये, फिर कभी ले जायेंगे। फिर वे भाग खड़े हुए। अब वे धनपशु मेरे संपर्क में नहीं हैं।
धनपशु वाहियात कामों में पैसे खूब लूटाते हैं। पर ज्ञान से उन्हें दुश्मनी होती है। ज्ञान पर पैसा खर्च करना उन्हें स्वीकार नहीं।
आचार्य श्री विष्णुगुप्त
M .. 9315206123
तिथि 21 नंवबंर 2021
नई दिल्ली
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