“यह संसार है। यहां जो बीज बोया जाता है, उसी का फल मिलता है। ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था अटल है। कोई भी व्यक्ति उसे भंग नहीं कर सकता।”
कभी कभी आपको ऐसा लगता होगा, कि यहां संसार में तो न्याय दिखता नहीं। “जो लोग झूठे चोर बेईमान दुष्ट स्वभाव के हैं, वे तो मौज मस्ती कर रहे हैं, खूब आनंद से जी रहे हैं। उन्हें बुढ़ापे में भी कोई तकलीफ नहीं दिखाई देती। सब लोग उनके आगे पीछे घूमते हैं। बड़ा सम्मान करते हैं। खाना पीना संपत्ति आदि पूरी सुविधाएं उनके पास हैं। नौकर चाकर भी सब ठीक सेवा करते हैं।” “परंतु जो गरीब या मध्यम वर्गीय लोग हैं, उनको बहुत कष्ट भोगने पड़ते हैं। वे कितने भी ईमानदार हों, तो भी उनको धन सम्मान आदि उचित प्रकार से और उचित मात्रा में नहीं मिलता। अनेक बार उनके बच्चे भी बुढ़ापे में सेवा नहीं करते। और भी उन्हें अनेक प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।”
इस स्थिति को देखकर व्यक्ति का मन, ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था से उठ जाता है। व्यक्ति भ्रांति या संशय में पड़ जाता है। वह सोचता है कि “पता नहीं ईश्वर है भी, या नहीं? वह संसार के लोगों की स्थिति को देखता भी है या नहीं?”
कुछ चंचल स्तर के लोग तो मजाक से यहां तक भी कह देते हैं, “अगर भगवान है भी, तो ऐसा लगता है, कि दारू (शराब) पीकर वह भी कहीं सो गया है। उसे दुनिया की खबर ही नहीं है, कि यहां कितना अत्याचार हो रहा है? कितनी लूटमार और पाप कर्म हो रहे हैं। यदि वो है, तो संसार की सुध बुध क्यों नहीं लेता? क्यों नहीं दुष्ट लोगों को दंड देता? क्यों नहीं सज्जनों की रक्षा करता?” इस प्रकार के प्रश्न उठाकर वे लोग अपने मन की उलझनों को प्रकट करते हैं।
इन सब प्रश्नों का उत्तर है, कि “ईश्वर है। यह बात निश्चित रूप से सत्य है। इसमें कोई भी संशय नहीं है। वह दारू पीकर कहीं सो नहीं गया। वह 24 घंटे जागता है, और सारे संसार का पूरा ध्यान रखता है, कि कौन कितने और कैसे कर्म करता है। ईश्वर के पास पूरा हिसाब है। समय आने पर वह सबके कर्मों का फल भी देता है।” आंखें खोलकर देखें, और बुद्धि खोल कर गंभीरता पूर्वक विचार करें, कि “सूअर कुत्ते गधे सांप बिच्छू भेड़िए हाथी बंदर मछली इत्यादि तरह-तरह के प्राणी किसने बनाए और क्यों बनाए? यह ईश्वर ने ही उन दुष्टों को दंड दिया है, जो लोग चोरी डकैती लूटमार आतंकवाद आदि पाप कर्म करते हैं। उन्हीं को ईश्वर ने पशु पक्षी आदि योनियों में दंड दिया है।”
और जो अच्छे सज्जन लोग हैं, उनको मनुष्य योनि में जन्म दिया है। “अच्छे कर्मों के स्तर भी ऊंचे नीचे हैं, इसलिए जो कर्मों का फल मनुष्य योनि के रूप में दिया जाता है, वह भी ऊंचे नीचे स्तर के मनुष्यों के रूप में दिया जाता है। जो जितने अधिक अच्छे कर्म करता है, उसे उतने अधिक अच्छे फल (सुख) मिलते हैं। इस व्यवस्था को आप प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखें और अनुमान लगाएं, कि यह व्यवस्था ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।”
इसलिए ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था पर संशय नहीं करना चाहिए। और उसे ध्यान में रखते हुए यह सोचना चाहिए, कि हम अपने वर्तमान कर्मों में सुधार करें। जैसे कि, “यदि हम अपने बड़े बुजुर्गों की सेवा करेंगे, तो कल हमारे बच्चे भी हमारे बुढ़ापे में हमारी सेवा कर देंगे। आज यदि हम अपने बड़ों की रक्षा सेवा सम्मान नहीं करेंगे, तो कल बुढ़ापे में हमारा भी कोई रक्षा सेवा सम्मान नहीं होगा।”
“इसलिए जो लोग अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करना चाहते हों, वे वर्तमान में अपने बड़े बुजुर्गों की श्रद्धा पूर्वक तन मन धन से सेवा रक्षा पालन आदि करें। तभी उनके बुढ़ापे में भी उनकी रक्षा सेवा पालन आदि हो पाएगा।”
“यदि आपके बुढ़ापे में दूसरों ने आपकी सेवा रक्षा आदि कर दी। और स्वार्थ आदि किसी कारणवश आपने अपने माता पिता की सेवा रक्षा पालन आदि कर्म नहीं किया। तो आपके माता-पिता बड़े बुजुर्गों का जो आप पर ऋण बाकी रह जाएगा, उस का दंड आपको अगले जन्म में फिर पशु पक्षी आदि योनियों में दुख भोगकर चुकाना पड़ेगा।” “इसलिए यही व्यवहार उचित है, कि आज अपने बड़ों की सेवा करें। और कल अपने बुढ़ापे में, अपने बच्चों से सेवा लें। एक हाथ दें, एक हाथ लें।”
—- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।
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