आर्यसमाज के सौ वर्ष और हरयाणा में उसका प्रभाव
आर्यसमाज के सौ वर्ष और हरयाणा में उसका प्रभाव
लेखक – प्रो. प्रकाशवीर विद्यालंकार अध्यक्ष संस्कृत विभाग राजकीय महिला महाविद्यालय रोहतक
प्रस्तुतकर्ता :- आर्य सागर खारी
राजनैतिक क्षेत्र में
सामाजिक क्षेत्र में
धार्मिक क्षेत्र में
सांस्कृतिक व शैक्षणिक क्षेत्र में ।
आर्य समाज की स्थापना दस अप्रैल १८७५ को महर्षि दयानन्द के करकमलों द्वारा बम्बई में हुई । उससे पूर्व और बाद में महर्षि दयानन्द अपना संदेश देते हुए सारे देश में घूमे । उनके जीवन चरित्रों से यही प्रमाणित होता है कि वे हरयाणा के केवल दो ( रेवाड़ी और अम्बाला ) शहरों में आये । रेवाड़ी में ऋषि दयानन्द राव युधिष्ठिरसिंह के पास ठहरे । कई दिन उपदेश दिया और उनसे कहकर गोशाला की स्थापना करवाई जो आज दिन भी चलती है । ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों का जितना प्रचार हरयाणा प्रदेश में हुआ उतना देश के किसी और राज्य में नहीं हुआ । युग युगान्तरों से चली आरही , वैदिक मान्यताओं का अनुसरण हरयाणे के किसानों ने हृदय से किया और इसी कारण हरयाणा के ग्रामीण खेतीहरों व मजदूरों ने वैदिक धर्म की मान्यताओं को स्वीकार करते हुए आर्य समाज का सामाजिक व धार्मिक स्वरूप खुले हृदय से स्वीकार किया । ऋषि दयानन्द ने भी सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में जाट की कथा देकर यह प्रमाणित किया है कि जाट सामान्य तौर से ढ़ोंग व पाखण्ड को स्वीकार नहीं करता । हरयाणा में सबसे अधिक संख्या किसान वर्ग में जाटों की है और मजदूरों में चमारों की खेती के बारे में दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है और वे ही दोनों वर्ग सबसे ज्यादा संख्या में आर्यसमाजी बने और आज भी आर्यसमाजी हैं । पौराणिक धर्मानुयायी ब्राह्मणों में इसकी भारी प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने स्थान - स्थान पर पंचायतें करवाकर आर्यसमाजी जाटों को जाति से बहिष्कृत करवाना शुरू किया और इसका शिकार सबसे पहले साँघी ( रोहतक ) गांव के जैलदार चौ ० मातूराम हुए । भगाण निवासी चौ० लहरीसिंह ( भूतपूर्व मन्त्री , पंजाब ) के पिता चौ० रामनारायण भी इस अभिशाप से बाल - बाल बचे । लाढौत के पं० हरफूलसिंह , सालवन के ठाकुर भगवत सिंह तथा मवाना ( सिंघाया ) के जैमलसिंह आदि को भी जाति बहिष्कृत होना पड़ा था ।
उसके बाद १९०६ में खाण्डा ग्रामवासी ब्र० कूड़ेराम ने सुसाना गांव में पंचायत की जिसमें हरयाणा भर के हजारों लोग शामिल हुए । आर्यसमाज की ओर से पं० गणपति शर्मा शास्त्रार्थ महारथी ने पौराणिक पण्डितों को शास्त्रार्थ में खुली पंचायत में पराजित किया और हजारों लोगों का वैदिक रीति से यज्ञोपवीत संस्कार करवाया । उसके बाद तो गांव - गांव में समाज की धूम मच गई । रात को लोग दिन भर काम करने के बाद आर्य समाज और ऋषि दयानन्द की यशोगाथा इकतारा लेकर गाते । चौपालों में आल्हा का स्थान वैदिक धर्म के प्रचार ने ले लिया ।
आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से पं ० ब्रह्मानन्द ( स्वामी ब्रह्मानन्द ) इस प्रचार के पुरोधा थे । पं० बस्तीराम चौ ० तेजसिंह चौ ० नौनन्दसिंह ( स्वामी नित्यानन्द ) कुंवर जौहरीसिंह आदि ने अपने गुरु चौ ० ईश्वरसिंह के साथ आर्य समाज के प्रचार की धूम मचा दी । उन्हीं दिनों चौ ० पीरुसिंह ने गुरुकुल मटिण्डू की स्थापना की । उसी वर्ष पं ० विश्वम्भरदत्त ने गुरुकुल भज्जर स्थापित किया । उन्ही दिनों अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कर्मभूमि कुरुक्षेत्र में गुरुकुल कुरुक्षेत्र की नींव डाली ।
उस समय पानीपत के समाज का उत्सव बहुत प्रसिद्ध हो गया था , वहीं पर १९१३ में माहरा ( सोनीपत के फूलसिंह पटवारी ( महात्मा भक्त फूलसिंह ) को स्वामी ब्रह्मानन्द ने यज्ञोपवीत दिया और परिणामतः भक्त जी ने कुछ समय के बाद पटवार छोड़ कर अपनी जायदाद बेचकर पटवार के समय ली हुई रिश्वत वापिस की जो कि संसार में एक बेमिशाल उदाहरण है और १९२० में गुरुकुल भैंसवाल की स्थापना की । आज के दिन गुरुकुल भैंसवाल का वार्षिकोत्सव देश के बड़े से बड़े आर्यसमाजों के उत्सव की टक्कर लेता है , जिस में बीस हजार तक नर - नारी बड़े उत्साह से भाग लेते हैं । वहां की छात्र संख्या देश के किसी भी गुरुकुल से अधिक है । १६४२ में शहीद होने से पूर्व भक्त जी ने कन्या गुरुकुल खानपुर की स्थापना की , जिसमें श्राज हजार से अधिक छात्राएं विभिन्न विभागों में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । इन दोनों संस्थानों के विशाल रूप को देखकर भक्त जी की सुपुत्री पद्मश्री बहिन की सुभाषिरणी कर्ममय मूर्ति और चौ ० माडूसिंह जी ( वर्तमान शिक्षामन्त्री , हरयाणा राज्य का विवेकपूर्ण पवित्र व ईमानदार नेतृत्व स्वतः आंखों के सामने आ जाता है ।
पं० समरसिंह वेदालंकार ने आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से ४० वर्ष तक आर्यसमाज के प्रचार की व्यवस्था कराई और अकेले व्यक्ति ने सैंकड़ों समाजों की स्थापना की । हरयाणा ने आर्यसमाज को पं० प्रियव्रत वेदवाचस्पति ( भूतपूर्व उपकुलपति , गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय वैदिक विद्वान् , पं० विद्यानिधि व्याकरणाचार्य जैसे उद्भट कवि ( जो उत्तर भारत के गिने चुने संस्कृत विद्वानों में से एक हैं ) , पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती भूतपूर्व संसद सदस्य जैसे योग्य विद्वान् , स्वामी ओ३मानन्द जैसे योग्य पुरातत्वविद् व कर्मठ संन्यासी , स्वामी रामेश्वरानन्द जैसे निर्भीक साधु और आचार्य विष्णु मित्र ( उपकुलपति कन्या गुरुकुल खानपुर व भैंसवाल ) जैसे धार्मिक उपदेशक दिए । देशभर में हरयाणा में सबसे अधिक गुरुकुल व कन्या गुरुकुल ( गुरुकुल मटिण्डू , गुरुकुल झज्जर , गुरुकुल कुरुक्षेत्र , गुरुकुल भैंसवाल , गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल घरौंडा , कन्या गुरुकुल खानपुर , कन्या गुरुकुल नरेला , गुरुकुल सिंहपुरा सुन्दरपुर , गुरुकुल गदपुरी , कन्या गुरुकुल सिद्दीपुर लोवा , कन्या गुरुकुल बला , गुरुकुल कुम्भा खेड़ा , गुरुकुल कुरड़ी गुरुकुल धीरणवास , गुरुकुल कालवा , गुरुकुल दाधिया , शहीद आश्रम गुलकनी , आचार्यकुल ऋतस्थली माण्डौठी , गुरुकुल आटा जौरासी , वैदिक आश्रम यमुना नगर दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय हिसार ) हैं । जिनके पढ़े हजारों युवक - युवतियों ने हरयाणा की जनता को गतिमान नेतृत्व दिया । यहां के जन - जीवन पर समाज की छाप है । यही कारण है कि हरयाणा में विधवा विवाह की कोई समस्या नहीं है । सभी जातियां अपनी विधवा बेटियों का करेपा ( देवर के पल्ले लगाना ) कर देती हैं या फिर पुनववाह कर देती हैं । यहां पर छूप्राछूत का भी कोई प्रश्न ही नहीं है । जो आर्य समाज के प्रभाव से समय से पूर्व आर्यसमाजी होगये उन्हीं के हाथों में हरयाणा का राजनैतिक , सामाजिक , धार्मिक , सांस्कृतिक व शैक्षणिक नेतृत्व रहा है ।
राजनैतिक नेतृत्व के विषय में चर्चा करते हुए मुझे बड़ा गौरव अनुभव हो रहा है कि हरयाणा में आज भी मुख्य मन्त्री पद पर आसीन लाला बनारसीदास गुप्त आर्यसमाजी हैं जो कि महर्षि दयानन्द को व उनके द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश को अपना जीवन निर्माता तथा पथ प्रदर्शक मानते हैं । हरयाणा का वर्तमान मन्त्रिमण्डल भी आधे से अधिक आर्यसमाजी है । हरयाणा से केन्द्र में तीन मन्त्री ( चौ ० बंसीलाल , प्रो ० शेरसिंह और चौ ० दलवीरसिंह हुए और तीनों ही आर्यसमाजी हैं । प्रायः १९५२ के बाद बननेवाले विधान सभा सदस्य आधे से अधिक आर्यसमाजी रहे हैं । हरयाणा का आन्दोलनात्मक नेतृत्व सदा आर्यसमाज के हाथ में रहा है । चाहे वह हैदराबाद का सत्याग्रह हो जिसके नेता महात्मा भक्त फूलसिंह जी थे , चाहे हिन्दी सत्याग्रह आन्दोलन , जिसका नेतृत्व प्रो ० शेरसिंह ,स्वामी ओमानंद , स्वामी रामेश्वरानन्द तथा पं ० जगदेवसिंह सिद्धान्ती के हाथ में था । चाहे चण्डीगढ़ आंदोलन हो , जिसके नेता स्वामी ओमानंद , कपिलदेव शास्त्री , महाशय भरतसिंह , चौ ० देवीलाल , लाला बनारसीदास गुप्त ( वर्तमान मुख्यमन्त्री ) सभी आर्यसमाजी रहे हैं । पंजाबी सूबे की मांग के लिए यदि अकाली नेता मा ० तारासिंह और स० दर्शनसिंह फेरुमान मैदान में आये तो उनका मुकाबिला करनेवाले स्वामी रामेश्वरानन्द और चौ ० उदयसिंह मान आर्यसमाजी सैनिक ही थे । ला ० लाजपतराय और ला ० लखपतराय ने भी अपना प्रारम्भिक जीवन हरयाणा के प्रसिद्ध नगर हिसार से शुरू किया था । भाई परमानन्द ने इस शती के प्रारम्भ में नारनौन्द में आर्य समाज की स्थापना की और छः मास तक वहां पर रहे भी । स्वामी स्वतन्त्रानन्द के भक्त और महात्मा भक्त फूलसिंह के ( रहबर - ए - आजम ) , सर चौ ० छोटुराम ( माल मन्त्री पंजाब ) भी आर्यसमाजी थे । लोहारू विरुद्ध चहड़ ग्राम के आर्यसमाजियों ने ही प्रतिरोध किया । जो न स्कूल खुलने देता था और न ही यज्ञ करने देता था । नवाब ने उस गांव को तोप से उड़वा दिया पर आर्य लोग उसके अन्याय के सामने झुके नहीं । लोहारू आर्य समाज के उत्सव पर स्वामी स्वतन्त्रानन्द , महात्मा फूलसिंह , स्वामी नित्यानन्द , चौ ० गाहड़सिंह आदि पर नवाब की पुलिस के अमानवीय आक्रमण की कहानी पं ० समरसिंह और ठाकुर भगवन्तसिंह से आज भी सुनी जा सकती है । ( अथवा पढिये ' समाज लोहारू का रोमांचकारी इतिहास " मूल्य १ रु . । )
उस समय के प्रायः सभी जैलदार आर्यसमाजी हुए हैं । दादा घासीराम आहुलाना वाले ( जो पहले पौराणिक थे ) , फरमाणा के चौ ० जुगलाल , सिलाने के जेलदार अमरसिंह मौड़ी ( दादरी ) के जैलदार शिवलाल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । सामाजिक क्रान्ति में आर्यसमाज के सभी नेताओं को पारिवारिक कष्ट उठाने पड़े हैं । जब पहले पहलसमाजियों ने अपने कूओं पर हरिजनों को पानी भरने की अनुमति दी तो उन्हें जाति से बहिष्कृत किया गया और इस प्रकार आज से सतर साल पहले आहुलाना के चौ. जुगलाल और प्रो० शेरसिंह जी के पिता बाघपुर के चौ ० शीशराम आदि अनेकों व्यक्ति इस बहिष्कार का निशाना बने । १९०६ में भीषण अकाल के समय आर्यसमाज ने ही भिवानी में आर्य प्रथम अनाथालय की स्थापना को जिसके वर्तमान प्रबन्धक ला ० विश्ववन्धु शास्त्री हैं मोठ में मुसलमान रांघडो़ से हरिजनों को मुक्ति दिलाने वाले महात्मा फूलसिंह आर्यसमाजी थे ।
सामाजिक क्रान्ति में शुद्धि जहां तक सम्बन्ध है , आर्यसमाज उसमें भी पीछे नहीं रहा । मटिण्डू के चौ ० हरद्वारी सिंह की बेटी रा ( सोनीपत ) के मूले जाट ( को शुद्ध करके ) से विवाहित की गई । दोदुआ ( सोनीपत ) के मुले जाटों को शुद्ध करके चौ० माडूसिंह ( वर्तमान शिक्षा मन्त्री ने भापड़ौदे में उनके रिश्ते करवाये । बोहले के चौ इन्द्राजसिंह ने अपनी बेटी मूले जाटों में व्याहकर उन्हें आर्य बनाया । चौ ० केहरीसिंह सींख निवासी ने पाथरी की माता के ऊपर बकरे आदि कटवाने बन्द करवाए । सिरसा के स्वामी बेधड़क और में मृतक भोज के विरोध में वातावरण तैयार किया और मनसाराम वैदिक तोप ने सिरसा के उसमें सफलता प्राप्त की । आर्यसमाज दहेज प्रथा , नाबालिग विवाह , रिश्वत मद्य , मांस के विरोध हमेशा ही रहा है और इनको समाज के लिए घाग समझता रहा है ।
सामाजिक सुधार के आन्दोलन में ठाकुर जसवन्तसिंह टोहानवी ( जिसने महर्षि का जीवन चरित्र रामायण व महाभारत कविता बद्ध लिखे हैं , पं ० बस्तीराम और चौ ० ईश्वरसिंह गहलौत का बड़ा भारी योगदान रहा है । अनेक प्रकार की बुराइयों को समाज से भजनों द्वारा प्रचार करके दूर किया | यहां पर यदि मैं श्री रामपत वानप्रस्थी , चौ ० गणेशीराम आंवली , चौ ० देशराज बीघल चौ ० जयराम खानपुर , चौ ० उजाला कासण्डी व गामड़ी , चौ ० आशे और चौ ० अभयराम भैंसवाल आदि का जिक्र न करू तो मेरी बात अबूरी ही रह जायेगी । अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रधान फरमाणा निवासी प्रो ० रामसिंह ( पूर्व प्रधान , आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने भी इस क्षेत्र में अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है ।
धार्मिक क्षेत्र में भी समाज अग्रणी रहा है । मूर्तिपूजा और भूत प्रेत विषयक अन्धविश्वास समाज के कारण इस समय हरयाणा में समाप्त प्रायः हैं । गोमाता की रक्षा और पालन करना तथा उसे वध से बचाना आर्यसमाज का धार्मिक कर्त्तव्य रहा है । इसको पूरा करने के लिए सम्भालखे के हत्थे को तोड़ने के लिए जहां महात्मा भक्त फूलसिंह ने अपने प्राणों की बाजी लगादी थी वहां कुण्डली के बूचड़खाने को बन्द करवाने के लिए स्वामी ओमानंद , कपिलदेव शास्त्री और मा ० भरतसिंह ने भी सिंहनाद किया था | जनता की भावनाओं का आदर करते हुए तत्कालीन मुख्यमन्त्री चौ ० बन्सीलाल ने उसे खुलने नहीं दिया । यह आर्यसमाज का ही प्रभाव है कि आज सैकड़ों छोटी बड़ी गोशालायें हरयाणा में गोधन का वर्धन कर रही हैं । इस समय डबवाली , सिरसा , हिसार , भिवानी , लोहारू , महेन्द्रगढ़ , दादरी , नारनौल , रेवाड़ी , गुड़गांव , सोहना , पानीपत , करनाल , असन्द , जींद , नरवाना , हांसी , कैथल , कुरुक्षेत्र , अम्बाला , यमुनानगर और उनके चारों ओर बिखरे हुए हजारों गाँव आर्यसमाज की गति विधियों के केन्द्र हैं । इन सभी स्थानों के आर्यसमाजी कार्यकर्ता तन , मन , धन से समाज का कार्य कर रहे हैं ।
शिक्षा के क्षेत्र में यदि आर्यसमाज के योगदान को देखें तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि व देन हैं । जहां तक इस क्षेत्र में गुरुकुलों का सम्बन्ध है , उसकी चर्चा मैंने पहले विस्तार से कर दी है । स्कूल व कालेजों के विषय में भी यही कहा जा सकता है कि हरयाणा में शायद ही कोई नगर ऐसा होगा जिसमें आर्यसमाज द्वारा संचालित स्कूल व कालेज न हों । इस क्षेत्र में सबसे पहले डी ० ए ० वी ० आन्दोलन से प्रभावित होकर १९१३ में मा ० बलदेवसिंह ने जाट एग्लो वैदिक संस्कृत हाई स्कूल रोहतक की स्थापना की थी । उसके बाद अलखपुरे के सेठ छाजूराम ने चन्दूलाल एंग्लो वैदिक हाई स्कूल तथा जाट हाई स्कूल हिसार के दर्शनीय भवनों का निर्माण करवाया । दादरी के क्षेत्र में पिछली आधी शताब्दी से पं० शिवकरण ने दादरी के चारों ओर समाज का जो प्रचार किया तथा हिन्दी महाविद्यालय चरखी दादरी के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में जो सेवा की उसकी कहानी वह सारा इलाका कहता है । श्री निहाल सिंह तक्षक , चौ ' मोहब्बत सिंह , भरतसिंह शास्त्री का भी इस क्षेत्र में आर्यसमाज के लिए बड़ा योगदान रहा है । शिक्षा के क्षेत्र में समाज ने नारी शिक्षा को बड़ी प्राथमिकता दी है ।
इन सभी प्रयत्नों का फल है कि आज हरवाणा में कोई ऐसा संगठन , बड़ा परिवार या शिक्षण संस्था नहीं है , जहां आर्य समाज की विचारधारा का आदर न होता हो। इस प्रकार इस सामान्य विवेचन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि हरयाणा के जन - जीवन आर्यसमाज की क्रान्तिकारी विचारधारा का महान् प्रभाव हुआ है जिसके पग पग पर दर्शन किये जा सकते हैं।